अथ रागादिनिर्णयाष्टक लिख्यते
दोहा
सर्व ज्ञेय ज्ञायक परम, केवल ज्ञान जिनंद ॥
तासु चरन वंदन करों, मन धर परमानंद ॥ १ ॥
मात्रिक कवित्त
रागद्वेष मोहकी परणति, हैं अनादि नहिं मूल स्वभाव ।
वेतन शुभ् फटिक मणि जैसें, रागादिक ज्यों रंग लगाव ॥
चाही रंग सकल जग मोहत, सो मिथ्यामति नाम कहाव ।
समदृष्टी सो लखै दुहूं दल, यथायोग्य वरतै कर न्याव ॥ २ ॥
दोहा
जो रागादिक जीवके, ह्वै कहुं मूल स्वभाव ॥
तो होते शिव लोकमें, देख चतुर कर न्याव ॥ ३ ॥
सबहि कर्मतैं भिन्न हैं, जीव जगतके माहिं ॥
निश्चय नयसों देखिये, फरक रंच कहुं नाहिं ॥ ४ ॥
रागादिकसों भिन्न जब, जीव भयो जिहँ काल ॥
तब तिहँ पायो मुकति पद, तोरि कर्मके जाल ॥ ५ ॥
ये हि कर्मके मूल हैं, राग द्वेष परिणाम ||
इनहीसें सब होत हैं, कर्म बन्धके काम ॥ ६ ॥
चान्द्रायण छन्द (२५ मात्रा )
रागी बांधै करम भरमकी भरनसों ।
वैरागी निर्बंद्य स्वरूपाचरनसों ॥
बंध अरु मोक्ष कही समुझाय के ।
देखो चतुर सुजान ज्ञान उपजायके ॥ ७ ॥
कवित्त
राग रु द्वेष मोहकी परणति, लगी अनादि जीव कहँ दोय ।
तिनको निमित पाय परमाणू, बंध होय वसु भेदहिं सोय ॥
तिन होय देह अरु इन्द्रिय, तहाँ विषै रस भुंजत लोय ।
तिनमें राग द्वेष जो उपजत, तिहँ संसारचक्र फिर होय ॥ ८ ॥
दोहा
रागादिक निर्णय कह्यो, थोरे में समुझाय ॥
‘भैया’ सम्यक नैनतैं, लीज्यो सबहि लखाय ॥ ९ ॥
इति रागादिकनिर्णयाष्टक ।
रचयिता: पंडित श्री भैया भगवतीदास जी
सोर्स: ब्रह्म विलास