निर्मुक्ति-भावना | Nirmukti Bhavna

जिनधर्म पाया है परम निर्मुक्त बनूँगा।
निर्मुक्त हूँ स्वभाव से निर्मुक्त रहूँगा ।।टेक।।

परभावों से अति भिन्न है शुद्धात्मा अपना।
निज वैभव से आपूर्ण है ध्रुव आत्मा अपना ।।
हो निर्विकल्प आत्मा हूँ अनुभव करूँगा ।। जिनधर्म…।१।।

जब देह ही अपनी नहीं परिवार फिर कैसा ?
कर्तृत्व ही पर का नहीं फिर भार हो कैसा ?
निर्भार ज्ञातारूप हूँ ज्ञाता ही रहूँगा ।। जिनधर्म…।।२।।

स्वामित्व कुछ पर का नहीं, सम्बन्ध नहिं पर से।
निर्बन्ध एक शुद्ध हूँ नहीं बन्ध हो पर से ।।
निज शान्त रस को वेदता निर्द्वन्द्व रहूँगा ।। जिनधर्म…।।३।।

विपरीतता या न्यूनता नहिं निज स्वभाव में।
पर की अपेक्षा है नहीं आतम स्वभाव में ।।
हो निर्मोही सम्यक्त्वादिक से पुष्ट रहूँगा ।। जिनधर्म…।।४।।

है रूप निज एकत्व-विभक्त सहज जाना।
भोगों से अति निरपेक्ष निज स्वाधीन सुख माना।
नहीं चाह कुछ पर की रही निष्काम रहूँगा ।। जिनधर्म…।।५।।

अक्षय विभव निज का परम उत्कृष्ट है देखा।
अब तो लगे जग का सभी मिथ्या असत् लेखा।
निर्ग्रन्थ पद भाता हुआ निर्ग्रन्थ रहूँगा ।। जिनधर्म…।।६।।

शक्ति अनन्त देखते सन्तुष्ट हो गया।
प्रभुता अलौकिक देखते अति तृप्त हो गया।
नहिं और कुछ सुहाय निज में मग्न रहूँगा ।। जिनधर्म…।।७।।

उत्साह निवृत्त हो गया पर जानने का भी।
फिर भाव कैसे आयेगा दुर्भोगों का सही।
निशल्य शान्त चित्त हुआ निकलंक रहूँगा ।। जिनधर्म… ।।८।।

शुभभाव, रूप ब्रह्मचर्य में तोष नहिं आवे।
परमार्थता परिपूर्णता को चित्त ललचावे ।।
निजब्रह्म पाया है परम ब्रह्मचर्य धरूँगा ।। जिनधर्म…।।९।।

कुछ भय नहीं शंका नहीं भगवान हैं पाये।
ज्ञानी गुरु पाकर परम आनन्द विलसाये।।
जिनवाणी सी माता पाई भव में ना भ्रमूँगा ।। जिनधर्म…।।१०।।

सब कर्मफल संन्यास की अब भावना भाऊँ।
निष्कर्म ज्ञायक भाव में ही सहज रम जाऊँ ।।
बोधिसमाधि को पाकर निज साध्य लहूँगा ।। जिनधर्म…।।११।।

Artist - ब्र. श्री रवीन्द्र जी ‘आत्मन्’

Singer - @Asmita_Jain

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