निर्ग्रन्थ दिगम्बर साधु अलौकिक जग में।
निर्भय स्वाधीन विचरते मुक्ति मग में ॥ टेक॥
अन्तर्दृष्टि प्रगटाई निज रूप लख्यो सुखदाई ।
बाहर से हुये उदास सहज अन्तरंग में ॥१॥
जग में कुछ सार न पाया, अन्तर पुरुषार्थ बढ़ाया।
तज सकल परिग्रह भोग बसे, जा वन में ॥२॥
निर्दोष अट्ठाईस गुण हैं, देखो निज मांहि मगन हैं।
कुछ ख्याति लाभ पूजादि चाह नहिं मन में ॥३॥
जिन तीन चौकड़ी छूटी, ममता की बेड़ी टूटी।
अद्भुत समता वर्ते जिनकी परिणति में ।।४।।
निस्पृह आतम आराधै, रत्नत्रय पूर्णता साधैं ।।
निष्कम्प रहें परिषह और उपसर्गन में ॥५॥
(निष्कम्प रहें उपसर्ग और परीषह में )
शुद्धात्म स्वरूप दिखावें, शिवमार्ग सहज ही बतावें।
गुण चिंतन कर निज शीश धरें चरणन में ॥६॥
Artist - ब्र. रवीन्द्र जी ‘आत्मन्’