निर्ग्रन्थ भावना | Nirgranth Bhavna

निर्ग्रन्थता की भावना अब हो सफल मेरी।
बीते अहो आराधना में हर घड़ी मेरी

करके विराधन तत्त्व का, बहु दु:ख उठाया।
आराधना का यह समय, अतिपुण्य से पाया।
मिथ्या प्रपंचों में उलझ अब, क्यों करूं देरी ? निर्ग्रन्थता…।।

जब से लिया चैतन्य के, आनन्द का आस्वाद।
रमणीक भोग भी लगें, मुझको सभी नि:स्वाद।
ध्रुवधाम की ही ओर दौड़े, परिणति मेरी।। निर्ग्रन्थता…।।

पर में नहीं कर्तव्य मुझको, भासता कुछ भी।
अधिकार भी दीखे नहीं, जग में अरे कुछ भी।
निज अंतरंग में ही दिखे, प्रभुता मुझे मेरी।। निर्ग्रन्थता…।।

क्षण-क्षण कषायों के प्रसंग, ही बनें जहाँ।
मोही जनों के संग में, सुख शान्ति हो कहाँ।
जग-संगति से तो बढ़े, दुखमय भ्रमण फेरी।। निर्ग्रन्थता…।।

अब तो रहूँ निर्जन वनों में, गुरुजनों के संग।
शुद्धात्मा के ध्यानमय हो, परिणति असंग॥
निजभाव में ही लीन हो, मेटूं जगत-फेरी || निर्ग्रन्थता…।।

कोई अपेक्षा हो नहीं, निर्द्वन्द्व हो जीवन |
संतुष्ट निज में ही रहूँ, नित आप सम भगवन्
हो आप सम निर्मुक्त, मंगलमय दशा मेरी ।। निर्ग्रन्थता…।।

अब तो सहा जाता नहीं, बोझा परिग्रह का।
विग्रह का मूल लगता है, विकल्प विग्रह का।
स्वाधीन स्वाभाविक सहज हो, परिणति मेरी।। निर्ग्रन्थता…।।

Artist - ब्र.श्री रवीन्द्र जी 'आत्मन्

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@jinesh bhai, what does this mean?

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The first विग्रह stands for क्लेश whereas the latter one for शरीर… (as found in the footnotes to the paath in Adhyatma Paath Manjusha, p. 130)

मेरे दुखों का मूल कारण शरीर के प्रति विकल्प (मिथ्यात्व / कषाय) है, अन्य कोई नहीं ।

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