निर्ग्रन्थ भाव स्तवन/Nirgranth Bhaav Stvan

निर्ग्रन्थ भाव स्तवन

पर से अति निरपेक्ष है, प्रभुता अपरम्पार |
अहो अकिंचननाथ को, वंदन अगणित बार ॥

(रोला)

तजा अनादि मोह सजा निजपद अधिकारी,
समयसारमय हुए सहज चैतन्य विहारी ।
परम इष्ट ज्ञायक स्वभाव में तृप्त हुए थे,
वीतराग-विज्ञान रूप परिणमित हुए थे ॥१॥

कुछ अनिष्ट नहीं दिखा कल्पना मिथ्या छूटी,
क्रोध भाव की संतति भी फिर सहजहि टूटी ।
हीनाधिक नहीं दिखें सभी भगवान दिखावें,
अरे मान के भाव सहज ही नहिं उपजावें ॥२॥

पूर्ण सिद्ध सम आतम जब दृष्टि में आया,
गुप्त पापमय माया का तब भाव नशाया।
छल प्रपंच सब भगे सरलता हुई संगिनी,
मुक्ति-मार्ग में यही परिणति स्व-पर नंदनी ॥३॥

अक्षय आत्मविभव पाया तब लोभ नशाया,
अनंत चतुष्टय सहजपने प्रभुवर प्रगटाया ।
परम पवित्र हुए निर्दोष निरामय स्वामी,
अहो पतित-पावन कहलाते त्रिभुवन नामी ॥४॥

सहजसुखी हो प्रभो हास्य का काम नहीं है,
निज में ही संतुष्ट न रति का नाम कहीं है ।
निजानन्द में नहीं अरति या खेद सु आवे,
होवे नहीं वियोग शोक फिर क्यों उपजावे ॥५॥

लौकिक जन ही अरे हास्य में समय गँवावें,
रत होवें सुख मान अरति कर फिर दुख पावें ।
अहो निशंकित आप स्वयं में निर्भय रहते,
करें आपका जाप सर्व भय उनके भगते ॥६॥

निर्मल आत्मस्वभाव ज्ञान भी निर्मल रहता,
लोकालोक विलोक जुगुप्सा कहीं न लहता ।
फैली धर्म सुवास वासना दूर भगावें,
स्त्री पुरुष नपुंसक वेद नहीं उपजावें ॥७॥

परम ब्रह्ममय मंगलचर्या प्रभो आपकी,
नहीं वेदना होवे किंचित् त्रिविध ताप की ।
भान हुआ जब निज स्वभाव का मूर्छा टूटी,
बाह्य परिग्रह की वृत्ति भी सहजहि छूटी ॥८॥

पर केवल पर दिखे ग्रहण का भाव न आया,
निस्पृह निज में तृप्त अलौकिक है प्रभु माया ।
चेतन मिश्र अचेतन परिग्रह सब ठुकराया,
हुए अकिंचन आप पंथ निर्ग्रन्थ सुभाया॥९॥

शुद्ध जीवास्तिकाय अलौकिक महल आपका,
सहज ज्ञान साम्राज्य प्रगट है विभो आपका ।
नित्य शुद्ध सम्पदा खान है अन्तर माँहीं,
पर से कुछ भी कभी प्रयोजन दीखे नाहीं ॥१०॥

स्वानुभूति रमणी है नित ही तृप्ति प्रदायी,
ध्रुवस्वभाव ही सिंहासन है आनन्ददायी ।
निरावरण निर्लेप अनाहारी हो स्वामी,
अनुभव-अमृत भोजी नित्य निराकुल नामी॥११॥

अहो आप सम आप कहाँ तक महिमा गाऊँ,
यही भावना सहज अकिंचन पद प्रगटाऊँ ।
चरणों में है भक्ति भाव से नमन जिनेश्वर,
निज प्रभुता में मग्न रहूँ तुम सम परमेश्वर ॥१२॥

(दोहा)

जग से आप उदास हो, जगत आपका दास ।
यही भावना है प्रभो ! रहूँ आपके पास ॥

रचयिता - बाल ब्र. श्री रवींद्र जी आत्मन