निर्भय-स्वभाव चिंतन / Nirbhay-Swabhav Chintan

निर्भय-स्वभाव चिंतन

मैं सदा से रहा आत्मा अब भी हूँ ।
आत्मा ही रहूँगा न बदलूँगा मैं ॥ टेक ॥

कोई निंदा करे, या करे स्तुति,
बाह्य वैभव बढ़े या सभी नष्ट हो ।
उनसे वृद्धि न हानि न मेरी तनिक,
इसलिए लोक भय व्यर्थ ही है मेरा ॥
लोक भय से अहित निज का करता रहा,
अब इसे तज चिदानन्द भाऊँगा मैं ॥ 1 ॥

बुद्धि एकत्व की व्यक्त पर्याय में,
इसलिए भव जगत में मैं धारण किए ।
सुर न नारक न तिर्यञ्च मानुष हुआ,
ये तो नष्ट हुई मैं तो शाश्वत रहा ॥
सोचना व्यर्थ परलोक की भी मुझे,
मूर्छा में भी तजूँ सुख भोगूँगा मैं ॥ 2 ॥

आत्मा आधि-व्याधि - उपाधि रहित,
रागमय वेदना भी सहज परिहरूँ ।
जीव का मरण होता कभी भी नहीं,
द्रव्यदृष्टि से भय मरण का भी तजूँ ॥
रोग होता रहे मौत होती रहे,
अब कभी भी न इन रूप होऊँगा मैं ॥ 3 ॥

निज प्रदेशत्व रूपी किलेबन्दी है,
उसको रक्षित रखे से, निज का अस्तित्व है।
गुण लघु अगुरुलघु सदा आत्मा में रहे,
आत्म वैभव में ना हानि वृद्धि कहीं ॥
इसलिए चिंता रक्षा तथा गुप्ति की,
तज परमपद को अब शीघ्र पाऊँगा मैं ॥ 4 ॥

परिणमन का समय क्रम भी निश्चित रहे,
काललब्धि से होते हैं परिणाम सब ।
आ गये ज्ञान में सर्व ज्ञाता के सब,
मेरी चिंता से होता कभी कुछ नहीं ॥
अकस्मात् की चिंता से निर्भय हूँ मैं,
अब सदा काल निर्भय रहूँगा मैं ॥ 5 ॥

रचयिता - बाल ब्र. श्री रवींद्र जी आत्मन
Source - स्वरूप स्मरण