ओ चेतन ! निज की ओर लखो,
तुझे शाश्वत सुख भण्डार मिले।
पर की न तनिक भी प्रीत रहे,
निज से ही ऐसा संसार मिले ॥ टेक ॥
पर तो क्षणभंगुर संयोगी जड़,
तू चेतन शाश्वत प्रभु है।
चैतन्य सूर्य का पा प्रकाश,
परिणति में अन्त: कमल खिले ॥ 1 ॥
विभम्र-विकल्प दुःख का न नाम है,
चिन्मय विभु आनंदधाम।
निज की अनुभूति परम शीतल,
क्षण भर में भव की तपन बुझे ॥ 2 ॥
पूर्णज्ञ स्वयं ही में मिलता,
इच्छाएँ कभी उत्पन्न न हों।
ज्ञानी जन निज ज्ञायक को ही,
चिन्तामणि कल्पतरु सु कहें ॥ 3 ॥
हैं सर्व समागम आज मिले,
छोड़ो प्रमाद पुरुषार्थ करो।
बस निज आश्रय से ही तुझको,
आनन्दमयी शिव राज्य मिले ॥ 4 ॥
रचयिता - बाल ब्र. श्री रवींद्र जी आत्मन
Source - स्वरूप स्मरण