निज दोष दर्शन | Nij Dosh Darshan

             निज-दोष-दर्शन                        

(‘दोहा’ छन्द)

जिनवर-जिनवच-जिनगुरु, अरु तीर्थंकर-नाम ।
भक्ति भाव उर धारकर, सादर करूँ प्रणाम ।। 1 ।।
हे प्रभु ! तुम निर्दोष हो, ज्ञान-दर्श सुख पूर्ण ।
तव पथ पर मैं भी चलूँ, करूँ दोष को चूर्ण ।। 2 ।।

                   ('वीर' छन्द) 

अनादिकाल से चतुर्गति में, मोह-राग वश भ्रमण किये ।
एकेंद्रिय से पंचेन्द्रिय-तन, धरकर विध-विध कष्ट सहे ॥
जिन-वच में ही शंका धरकर, व्यर्थ कल्प किए नाना ।
हो स्वच्छंद पापों में रत हो, नरक-निगोद पड़ा जाना ॥

जीवन-मरण, लाभ अरु हानि, हो जिस विधि प्रभु ने जाना।
पर-परिवर्तन करना चाहा, ‘क्रमबद्ध’ को ना माना ॥
नरतन धरकर अज्ञदशा में, मैंने बहु-अपराध किये।
बचपन बीता खेलकूद में, नहीं ज्ञान-संस्कार लिये ॥

यौवन पाकर हो मतवाला, विषयों में ही मस्त रहा।
धन-पद-यश पाने को उद्यत, आतम-हित में सुस्त रहा ।।
वीतराग को नमस्कार कर, राग-सहित पूजे मैंने।
जैनाचार को दे तिलांजलि, भ्रष्टाचार किया मैंने।।

चल चित्रों के विकट-जाल, अरु धारावाहिक में उलझा ।
नायक-खलनायक सब नाटक, सत्य-स्वरूप नहीं समझा।
उनको निज-आदर्श बनाकर, राग-द्वेष किए मैंने।
नाच-गान अरु फैशन में फँस, जीवन व्यर्थ किया मैंने ।।

सर्च किया ‘गूगल’ पर ‘सब कुछ’, जिनवाणी को ना देखा।
मोबाइल से करी मित्रता, किया न भावों का लेखा ।।
बाजारों के भावों में फँस, निज-स्वभाव को ना जाना ।
लोभ के वश हो योग्यायोग्य-वणिज कीना है मनमाना ।।

तत्त्वज्ञान के ही अभाव में, मंत्र-तंत्र में उलझ गया ।
सुख-दुःख मिलता निज-कर्मों से, जिन-वच को मैं भूल गया ।।
राष्ट्र-समाज-अहित करके भी, निज-हित ही साधा मैंने ।
ध्वनि-जल-वायु प्रदूषित करके, जीवों को मारा मैंने ।।

नल के जल को छाना मैंने, रोगाणु से बचने को ।
‘जीवाणी’ ना विधि से कीनी, मरें जीव तो मरने दो ।।
व्यर्थ चलाकर पंखा कूलर, जीवों का बहुघात किया ।
ए.सी.-फ्रिज अरु हीटर-गीजर, चला चला कर पाप लिया ।।

गैस जलाकर, बातों में लग, व्यर्थ ही आग जलाई है।
मानों निज- हाथों से मैंने, सुख में आग लगाई है।
जमीकंद अरु मद्य-मधु का भी सेवन मैंने कीना ।
पंच-इंद्रिय के सुख पाने को, जीवन ‘त्रस’ का भी छीना।।

बिन छाने जल से मशीन में, मैंने कपड़े धोये हैं।
होटल में भोजन कर करके, बीज पाप के बोये हैं ।।
द्विदल सेवन, उपवन-भोजन, करके ‘त्रस’ का घात किया।
चर्म, सिल्क अरु चर्बी निर्मित, वस्तु का उपभोग किया।।

निशि में भोजन-पूजन-फेरे, किये कराये हैं मैंने ।
आतिशबाजी अरु डी.जे. से, सुख से नहीं दिया जीने ।।
बहु प्रकार से हे प्रभु! मैंने, अगणित कीने हैं अपराध |
हों अपराध क्षमा सब मेरे, सादर झुका रहा हूँ माथ ।।

हे प्रभु ! अब मैं कुछ ना चाहूँ, देव-शास्त्र-गुरु शरण मिले।
जिन-दर्शन से निज-दर्शन हो, उर में समकित-सुमन खिले ।।
आप ही हो आदर्श हमारे, तव पथ पर चलना चाहूँ ।
दोषों का प्रक्षालन करके, तुम सम ही बनना चाहूँ ।।

Artist - आ० पं० राजकुमार जी शास्त्री, उदयपुर।

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