नेमिजी तो केवलज्ञानी, ताहीको ध्याऊं ॥ टेक ॥
अमल अखंडित चेतनमंडित, परमपदारथ पाऊं ॥ नेमिजी. ॥ १ ॥
अचल अबाधित निज गुण छाजत, वचनमें कैसे बताऊं ॥ नेमिजी. ॥२॥
‘द्यानत’ ध्याइये शिवपुर जाइये, बहुरि न जगमें आऊं ॥ नेमिजी ॥ ३ ॥
अर्थ: श्री नेमिनाथ भगवान केवलज्ञानी हैं। मैं उनका ही स्मरण-चिन्तन व ध्यान करता हूँ ।
वे निर्मल, अखण्ड पूर्ण चैतन्यस्वरूप हैं। ऐसे परम पदार्थ अर्थात् स्वरूप की प्राप्ति मुझे भी हो।
वे निज गुणों से भरपूर, चंचलता-विहीन, स्थिर सर्वबाधारहित हैं, मैं वचनों द्वारा उनका गुणगान कैसे करूँ ?
द्यानतराय जी कहते हैं कि जो उनका ध्यान करता है, उनको ध्याता है वह मोक्ष को प्राप्त करता है। मैं भी वह मोक्षपद पाऊँ और फिर इस संसार में कभी भी न आऊँ इसलिए उनका ध्यान करता हूँ।
रचयिता: पंडित श्री द्यानतराय जी
सोर्स: द्यानत भजन सौरभ