नाथ तुम्हारे दर्शन से | nath tumhare darshan se

नाथ तुम्हारे दर्शन से, निज दर्शन मैंने पाया।
तुम जैसी प्रभुता निज में लख, चित मेरा हर्षाया॥ टेक॥

तुम बिन जाने निज से च्युत हो, भव-वन में भटका हूँ ।
निज का वैभव निज में शाश्वत, अब मैं समझ सका हूँ ।
निज प्रभुता में मगन होऊँ, मैं भोगूं निज की माया ॥१॥

पर्यय में पामरता, तब भी द्रव्य सुखमयी राजे ।
लक्ष्य तजूंं पर्यायों का, निजभाव लखूं सुख काजे ।।
पर्यायों में अटक-भटक कर, मैं बहु दु:ख उठाया ॥२॥

पद्मासन थिर मुद्रा, स्थिरता का पाठ पढ़ाती ।
निज भाव लखे से सुख होता, नासादृष्टि सिखलाती ।
कर पर कर ने कर्तृत्व रहित, सुखमय शिवपंथ सुझाया ॥३॥

यही भावना अब तो भगवन, निज में ही रम जाऊँ ।
आधि-व्याधि उपाधि रहित, मैं परम समाधि पाऊँ ॥
ज्ञाननन्दमय ध्रुवस्वभाव हो, अब मेरे मन भाया ।।४।।

Artist - ब्र. श्री रवीन्द्रजी ‘आत्मन्’

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