नम्र भावना | Namra Bhavna

भावना

इतना ऊँचा कभी न होऊँ, जो नीचे नहीं लख पाऊँ।
गिरूँ गर्त में ठोकर खाऊँ, काँटों से नहीं बच पाऊँ ।।

इतना धनी कभी नहीं होऊँ, जो निर्धन को ठुकराऊँ।
झूठी मान प्रतिष्ठा में फँस, मानवता को विसराऊँ।।

सुविधाएँ कितनी ही होवें, नहीं आलसी हो जाऊँ।
रहूँ स्वावलम्बी जीवन में, बोझा कभी न बन पाऊँ ।।

आदर चाहे जितना पाऊँ, नहीं अनादर करूँ कभी।
रहूँ सहजनिरपेक्षसमझकर, अपने सम ही जीव सभी।।

देहादिक में मग्न रहूँ नहीं, सहज निहारूं शुद्धातम।
पर को ही सुखदुखकाकारण, समझ रहूँ नहीं बहिरातम।।

महाभाग्य जिनवाणी पाई, तत्त्वों का होवे श्रद्धान।
रत्नत्रय की करूँ साधना, वर्ते सदा भेदविज्ञान।।

क्षण-क्षणभाऊँ आत्मभावना, सर्वविभावों को नाशूॅं।
होऊँ मग्न सहज अपने में, अक्षय प्रभुता परकाशूॅं।।

रचयिता: आ० ब्र० रवीन्द्र जी आत्मन्

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