मुक्तिसोपानम् | Muktisopanam (A PLAY)

“मुक्तिसोपानम्: जीव की पौरूष गाथा”

PART A- Introduction of Jeev and Karma…जीव और कर्म का परिचय:

मैं जीव हूं मैं जीव हूं मैं जीव हूं

ज्ञान दर्शन वीर्य सुख का पुंज अरस अरूप हूं
चेतना चिन्मय अमूर्तिक सिद्ध-सम चिद्रूप हूँ; मैं जीव हूं।

हैं अनंते गुण परन्तु इक अभेद स्वरूप हूं
क्रिया कर्ता कर्म में मैं मात्र ज्ञान स्वरूप हूं; मैं जीव हूं।

कर्म:

हम कर्म हैं -4

एक क्षेत्र-अवगाह हैं, पुद् गल अचेतन रूप हैं
जीव के परिणमन में हम, पर निमित्त स्वरूप हैं;

मोह के परिणाम ही हमको बढ़ावा देत हैं
है अबंध निजातमा, पर बंध मय कर लेत हैं , हम कर्म हैं

वस्त्र आच्छादन करे जिन-बिम्ब को ढंक लेत है
ज्ञान को पांचों प्रकृतियां, आवरण की हेतु हैं, ज्ञानावरण हैं

रोक लेता द्वारपाल, दर्शन न नृप के होत हैं
नौ प्रकृतियां दर्श गुण को, आवरण की हेतु हैं, दर्शनावरण हैं।

शहद से लिपटी हुई तलवार धोखा देत है
वेदनी का कर्म यह, साता असाता रूप है, वेदनीय है

जिस तरह मदिरापान कर मदमत्त होता जीव है
मोह दर्शन और चारित्र, सुखनिधि हर लेत है; मोहनीय है

बेड़ियां ज्यों बंदी नर को, बांध कर रख लेत हैं
आयु कर्म सुचार गति में हमें अटका लेत है, आयु करम है

करे निर्मित चित्रकार, विचित्रविध रचनाओं की
तिरानवे होतीं प्रकृतियां नाम कर्म महान की, नाम कर्म है

छोटे बड़े बर्तन बनाना, काम होत कुम्हार का
उच्च नीच जु गोत्र करम, अगुरुलघु गुण बाधता, गोत्र कर्म है

कोषसंग्रह का भंडारी, लाभ होने दे नहीं
अंतराय कर्म प्रकृतियां जीव को बाधक सभी, अंतराय है

दोहा:-
सात कर्म के भेद सब रहते निःसंतान।
निर्मोही निर्बंध है, कर्म मोह संतान॥

“PART B- Mithyatwa… मिथ्यात्व गुणस्थान”

अज्ञान के कुकृत्य में, ये मोह कर्म नाचता

लगा अनादि काल से, ये कर्म मोह जीव को
रुला रहा चौरासी लाख योनियों में जीव को

ये बुद्धि भ्रष्ट, श्रद्धा नष्ट, आचरण अनिष्ट हो
मान्यता उलटपुलट, भार जो कर्तृत्व हो

भूल कर स्वतत्त्व को विनष्ट हो विनष्ट हो
शरीर में निजत्व मान, कष्ट हो प्रकृष्ट हो

अज्ञान के कुकृत्य में, ये मोह कर्म नाचता

ये राग-द्वेष युक्त देव शास्त्र गुरु मानता
ये वीतरागी के समीप भोग भीख मांगता

आठ आठ कर्म का जो एक हेतु मोह है
जन्म मरण रोग का ये एक हेतु मोह है

है प्रचण्ड क्रोध मान कपट लोभ मोह ये
अनंत-अनुबंधी और मोहदर्श कर्म ये

उदय सत्त्व बन्ध रूप मोह पर्यायें हैं
सब दुखों की हेतु विपरीत मान्यताएं हैं

दोहा:-
पर में सुख को खोज रहा, स्वयं सुख की खान।
निज वैभव को भूल कर, भूल रहा भगवान॥

Part C- Panch Labdhi. पंच लब्धि (सम्यक्त्वसन्मुख)

**मोह निशा को नाशने आई ज्ञान की भोर **
चली श्रद्धा, चली श्रद्धा, चली श्रद्धा समकित की ओर

आ गई काललब्धि है आज
घटा रे पाप प्रकृति अनुभाग
हीन जब हुआ अंश बहुभाग
हो गई लब्धि क्षयोपशम प्राप्त

घटा जब पापों का परमान
हो गए तब विशुद्ध परिणाम
मोह का उदय पड़ गया मंद
भाग्य से मिला गुरु का संग

देशना मिली गुरु की आज
हुआ तत्त्वों का सच्चा ज्ञान
किया तत्त्वों पे गहन विचार
मिल गया वीतराग विज्ञान

हुआ जब शुद्धातम का भान
डगमगा रहा कर्म का राज
हुए कम स्थिति और अनुभाग
हुए जब उनके कांडकघात

**मोह निशा को नाशने आई ज्ञान की भोर **
चली श्रद्धा, चली श्रद्धा, चली श्रद्धा समकित की ओर

कर्म की स्थिति घटने लगी
प्रकृतियां ढीली पढ़ने लगीं
प्राप्त होती लब्धि प्रायोग्य
योग्य हो या फिर मोक्ष अयोग्य

भव्य करते अग्रिम पुरुषार्थ
ना होता जब तक आतम ज्ञान
रूचि आतम में लगने लगी
हो गई अधः करण लब्धि

अपूरव करण लब्धि का क्षण
हो रहे नए नए ही करण
फिर हुआ अनिवृत्तिकरण
हो रहा मोहनीय का क्षरण

करण अंतर उपशम फिर हुआ
मोह भी धराशायी हुआ
हो गया मोहनीय उपशम
हुआ फिर सम्यक प्रथमोपशम

**मोह निशा को नाशने आई ज्ञान की भोर **
चली श्रद्धा, चली श्रद्धा, चली श्रद्धा समकित की ओर

दोहा:-
दर्श मोह का नाश कर, हुआ आत्म साक्षात
दृष्टि के दुख से अहो मोक्ष हुआ है प्राप्त

PART D- Samyak Darshan (अविरत सम्यक्त्व)

समकित सावन में ज्ञान मोर उछला उछला जाए…

जब उदित हुआ सम्यक्त्वा सूर्य, अविरत समदृष्टी का
अब बंध हो गया बंद, एकतालीस प्रकृति का

अर दर्श मोह की तीन प्रकृतियां, चार चारित की
हैं क्रोध मान माया लोभी, हो अनंत अनुबंधी

ये मोह की सातों प्रकृतियां उपशमित होवे
उपशमन पूर्वक हो क्षयोपशम, क्षायिक फिर होवे

अन्याय अनिति अभक्ष्य से तो रहित हो जीवन
पच्चीस दोषों से रहित, हो प्रकट आठों अंग

समकित सावन में ज्ञान मोर उछला उछला जाए…

करता सभी वह कार्य तो, मिथ्यादृष्टि जैसे
करते हुए भी रहित वो कर्तृत्व बुद्धि से

हो सहज ही पुरुषार्थ और हो सहज हो जीवन
व्यापार घर परिवार में भी निर्मोही जीवन

आनन्द ही आनंद से युत हो सहज जीवन
पर्याय कुछ भी हो परंतु दृष्टि हो ध्रुव पर

व्यवहार में समदृष्टि भी, भाषा वही बोले
पर अंतरंग में आत्मा, आनंद में डोले

समकित सावन में ज्ञान मोर उछला उछला जाए…

दोहा:-
इस पामर पर्याय में, जब परमात्म दिखाय
अविरति के परिणाम तज, व्रती सहज हो जाय

PART E- Desh Virat (देश विरत गुणस्थान)

भाव अविकार हुए, त्याग परिणाम हुए, अप्रत्याख्यानावरन प्रकृति का अनुदय
जब क्रोध मान माया लोभ का हो अनुदय, यथायोग्य वीतरागी परिणति का उदय

दृष्टी में निजात्मा हो, अनेकांत ज्ञान में हो, आचरण में भी देश चारित्र प्रकट है
घर बार और परिवार में वो रहकर भी, उसकी तैयारी मुनिव्रत की चलत है

संयम असंयम भी अविरत विरत भी , अंतरंग और बहिरंग में दिखत हैं
पालता है एक देश रुप से चरित जीव, भावना सदा सकल संयम की रहत है

प्रतिमाएं ग्यारह विरत धारे बारह, वो अंतर में शुद्ध आत्मा में ही रहत है
शरीर से घर में, परन्तु देश विरती, भावना हृदय से वह वन में रहत है

चाहत है मुनि बन जाने की तुरत किंतु, प्रकृति चरित दोष की उसे खटक है
जब भी जाग जावेगा निजातम का पौरुष, तभी करम बाधा स्वयमेव ही नशत हैं

दोहा:-
रहता है घर गृहस्थी में, परीजनों के बीच
पर अंतर मचल रहा, वन को जाने जीव

PART F- Muniraj (छटवां - सातवां गुणस्थान)

भावना मुनि बन जाने की
प्रकृतियां बीच में आकर खड़ी
चौकड़ी प्रत्याख्यानावरण
कर रही सकलचरित आवरण

सामने निज पौरुष के पर
करम ना टिक सकते हैं जड़
शक्ती वैराग्य जगे अंतर
सतत होती जा रही प्रबल

आत्म स्थिरता वृद्धिंगत
कर्म चारित्र मोह थर थर
एक दिन निज पुरुषार्थ जगा
सकल संयम का भाव बना

कदम जंगल को जाने लगे
मोह प्रकृति मुरझाने लगें
और तन से उतरे अंबर
हो गई दशा तब दिगंबर

चौकड़ी प्रत्याख्यानावरण
वस्त्र के साथ हो गई क्षरण
प्रगट हो गया सकल संयम
पहुंच कर गुणस्थान सप्तम

ध्यान की अग्नि जलने लगी
कर्म की होली जलने लगी
संजवलन प्रकृति उदय में पर
रहे जैसे जल पर अक्षर

निरंतर बढ़े घटे गुणथान
छठे में अर सप्तम स्वस्थान
पर चढ़े जब सप्तम गुणथान
सातिशय अप्रमत विरत महान

पुनः तब होता अध: करण
जीव श्रेणी चढ़ जाता है
संज्वलन की अस्थिरता से
आत्म पौरुष लड़ जाता है।

दोहा:-
मुनिवर अब करने चले, मुक्ति वधु से ब्याह
श्रेणी के रथ पर खड़े, हैं मुनिवर तैयार

PART G: Shreni श्रेणी (8- 9- 10- 12 गुणस्थान)

“यज्ञ हो रहा ध्यान अग्नि में, जीव कर्म का होम करे”

ध्यान हुआ पृथकत्व वितर्की, शुक्ल श्रेणी पुरुषार्थ जगा
सिद्धों की श्रेणी में मुनिवर, सिद्ध शिला का द्वार खुला

अष्टम गुणस्थान में जाकर, करण अपूर्व श्रेणी परिणाम
प्रतिपल बढ़े विशुद्धि अंतर, प्रतिक्षण हो अपूर्व परिणाम

इक्कीस चारित मोह प्रकृति क्षय में क्षायिक श्रेणी चढ़ें
द्वितीयोपशम होने पर साधक, कर्म उपशम की श्रेणी चढ़ें

कांडकघात शक्ति का और स्थिति का हो, कर्म घटे
प्रतिपल कर्म निर्जरित गुणश्रेणी से वे स्वयंमेव झरें

पापों का संक्रमण पुण्य में, वीतराग परिणाम करें
सहज स्वतंत्र कर्म खिरते, और आत्म सहज पुरुषार्थ करे

“यज्ञ हो रहा ध्यान अग्नि में, जीव कर्म का होम करे”

कर्म लगे मुरझाने जब परिणाम अनिवृति करण हुए
सब जीवों के करण यहां पर एक नियत लय बद्ध बढ़े

बदल मान में क्रोध, मान का माया में संक्रमण करें
माया का परिणमन लोभ संज्वलन रूप से मात्र रहे

बचा सूक्ष्म साम्प्राय यहां, और बंद मोह का बंध अरे
सात कर्म का बंध हो रहा, किन्तु थिती अनुभाग घटे

हुआ अंत जब बचे हुए संज्वलन लोभ का दसवें में
पूर्ण वीतरागता प्रकट मुनि, पूर्ण सुखी निज परिणति में

करें मुनि एकत्व वितर्की शुक्ल ध्यान निज आतम का
कर्म घातिया नष्ट स्वयं, हो उदय अनन्त चतुष्टय का

“यज्ञ हो रहा ध्यान अग्नि में, जीव कर्म का होम करे”

दोहा:- एक अभेद निजातमा, मात्र ध्यान का सार
इसके ही आधार से प्रकटे केवल ज्ञान

PART H – Samavsaran सयोग केवली गुणस्थान :-

झंकृत कर अज्ञान तमस को, ज्ञान दिवाकर है छाया

ओहो कैसा कोलाहल है
क्षोभ हुआ पृथ्वी पर आज
प्रभु ने नाशे कर्म घातिया
तीनों लोकों के सरताज

केवलज्ञान प्रभू को प्रगटा,
पूर्ण विश्व में व्यापक है
भले विश्व दिख रहा ज्ञान में,
ध्येय मात्र निज ज्ञायक है

अनंत ज्ञान दर्शन सुख वीरज
नष्ट सभी के बाधक कर्म
जयजयनाद हुआ जगती में
सौ सौ इंद्र हो रहे नम

हुआ प्रवर्तन धर्म तीर्थ का,
उदित प्रकृति तीर्थंकर
दिव्यप्रसारण दिव्य ध्वनि का,
सब जीवों को है हितकर

अनेकांत और स्यादवाद की
करे घोषणा केवलज्ञान
अकर्तृत्व का शंखनाद,
पर्यायों का क्रमबद्ध विधान

ज्ञान सर्वगत विश्व ज्ञानगत,
झलक रहे सब गुण पर्याय
रहती हैं क्रमबद्ध सभी,
अक्रम-गुण की निश्चित पर्याय

तीर्थंकर के समवसरण में
असंख्यात जन आते नित,
लाखों लाखों जीवों के,
वे सहज बनें उद्धार निमित

देव मनुज तिर्यंच जीव सब,
तत्त्वज्ञान लेकर जाते
सिंह गाय और सर्प नेवला
भी साधर्मी बन जाते

बचे अघाती कर्म अभी सब,
और बच रहा है अब योग
वीतराग सर्वज्ञ जिनेश्वर,
कहलाते केवली सयोग

दोहा:-
ये महान अर्हंत पद, आतम की पर्याय
प्राप्त करे सर्वज्ञता, जो आतम को ध्याय

Part I – 14th Gunasthan अयोग केवली गुणस्थान

सूक्ष्म क्रिया अप्रतिपाती ध्यान,
जब हुआ प्रभू तीर्थंकर को
हुआ निरोध योग का तब,
फिर नहिं ईर्यापथ आस्रव हो

कर्म अघाती विद्यमान हैं,
पिच्यासी प्रकृति के साथ
किंतु नहीं वे करते हैं,
आतम स्वभाव का कोई बिगाड़

आयु नाम अरु गोत्र वेदनीय,
बस अंतरमुहूरत तक हैं
अ इ उ ऋ लृ उच्चारण,
समय प्रमाण सत्व में हैं

होता व्युपरत क्रिया निवर्ती,
ध्यान प्रभू के अंतर में
लीन रहें निज आतम में,
स्वयमेव सभी तब कर्म नशें

अन्तिम चौदहवे गुणस्थान में,
हैं अयोग केवलि भगवान
अंत समय से पहले क्षण में
नष्ट बहत्तर प्रकृति यहां

चौदहेवे के अंत समय में,
नष्ट शेष तेरह प्रकृति
उस क्षण ही व्यय सब कर्मों का,
हो उत्पाद सिद्ध पदवी

सिद्ध दशा:

न कर्मम् , न बंधम्, न संबंध-शेषम्
सदानंदमात्रम् च ज्ञानस्य भोगं

न द्रव्यम् न भावं न नोकर्मममलं
न कोपि विभावम्, तु परमात्मनिकलम्

न ध्यानं न कार्यं, च कृतकृत्यभावं
सहज- ज्ञान-ध्यानं, सहज-सर्व-कार्यं।

न वर्णम् न मूर्तं ,न स्पर्शं, न रूपं
अनूपं च अरसं च ध्रुवम् स्वरूपं

अमलं च अचलं च निष्कर्म भावं
त्रिलोकाग्रभागे स्थितम् सिद्धचक्रम्

नमामि नमामि समम् सिद्धचक्रम्
नमामि नमामि समम् सिद्धचक्रम्

मुक्तिसोपानम् मुक्तिसोपानम्
मुक्तिसोपानम् मुक्तिसोपानम्

लेखक: संदेश शास्त्री, दिल्ली