मेरी अभिलाषा | Meri Abhilaashaa

मेरी अभिलाषा

सन्त साधु बनके विचरूं, वह घड़ी कब आयेगी।
शान्ति दिल पर मेरे, वैराग्य की छा जायेगी। टेक।
मोह ममता त्याग दूं मैं, सब कुटुम्ब परिवार से।
छोड़ दू झूठी लगन, धन धान्य घरबार से ।।
नेह तज दू महल और मन्दिर, अरू चमन गुलजार से।
वन में जा डेरा करूं, मुंह मोड़ इस संसार से १।
इस जगत में जो पदारथ आ रहे मुझ को नजर।
थिर नहीं है कोई इसमें, सब की सब दिख रहे अथिर।।
जिंदगी का क्या भरोसा, यह रही दम दम गुजर।
दम है जब तक दम में दम है दम में दम से बेखबर । २ ।
कौन सी वह चीज है, जिस पर लगाऊं दिल यहाँ ।
आज योवन खिल रहा जो, कल भला वह फिर कहां।।
माल औधन की सब हकीमत, जमाने पर अयां।
क्या भरोसा लक्ष्मी का जो अब यहां और कल वहां । ३ ।
बाप माँ और बहिन-भाई, बेटा-बेटी, नारी क्या।
सब सगै अपनी गरज के,यार क्या परिवार क्या।।
बात मतलब से करें सब, जगत यह संसार क्या।
बिन गरज पूछे न कोई बात क्या तकरार क्या । ४ |
था अकेला हूं अकेला और अकेला ही रहूं।
जो पड़े दुख में सहे अरु जो पड़े सो में सहूं।।
फिर भला किसको जगत में अपना हमराही कहूं ।
कौन अपना है सहायक, कौन का शरणा गहूं ।५ |
काल सर पर काल का, खंजर लिये तैयार है।
कौन बच सकता है इससे इसका गहरा बार है।।
हाय ! जब हर हर कदम पर इस तरह से हार है।
फिर न क्यों वह राह पकड़, सुख का जो भंडार है ।६|
ज्ञान रूपी जल से, अग्नि क्रोध को शीतल करूं।
मान माया लोभ राग, और द्वेष आदिक परिहरूं ।।
वश में विषयों को करूं और सब कषायों को हरूं ।
शुद्ध चित्त आनन्द से मैं ध्यान आतम का धरूं ।७ |
जग के सब जीवों से अपना प्रेम हो और प्यार हो।
और मेरी इस देह से, संसार का उपकार हो ।।
ज्ञान का प्रचार हो, और देश का उद्धार हो ।
प्रेम और आनन्द का व्यवहार घर घर बार हो। ८ ।
प्रेम का मन्दिर बनाकर, ज्ञान देवहिं दूं बिठा।
शान्ति और आनन्द के, घड़ियाल घण्टे दूं बजा ।।
अरु पुजारी बन के दूं मैं, सब को आतम रस चखा ।
यह करूं उपदेश जग में, कर भला होगा भला । ९।
आए कब वह शुभ घड़ी, जब बन बिहारी बन रहूं ।
शांत होकर शान्ति गंगा का मैं निर्मल जल पिऊं।।
“ज्योति" से गुण ज्ञान को, अज्ञान सब जग का दहूं।
हो सभी जग का भला, यह बात मैं हर दम चहूं । १० । इति

रचनाकार का नाम ज्ञात नहीं हो पाया है।