(जगत में) ये चार ही मेरे सहायक हैं, उपकारी हैं, मुझे इनकी ही शरण है। जैसे समुद्र के मध्य उड़ते हुए पक्षी के लिए जहाज के अतिरिक्त कोई आश्रय नहीं होता, वैसे ही इस संसार-समुद्र में इन चारों के अतिरिक्त मेरा अन्य कोई सहायक नहीं है जिनकी मैं शरण जा सकूँ। पहली शरण मुझे अरहंत के चरणों में है, जिनकी पूजा देव व मनुष्य करते हैं। दूसरी शरण मुझे सिद्ध प्रभु की है, जो लोक के उन्नत भाल पर अर्थात् लोकाग्र में तिलक के समान स्थित सिद्ध शिला पर राजा को भाँति आसीन हैं। तीसरी शरण मुझे उन सर्व साधुजनों की है, जो नग्न-दिगम्बररूप में सुशोभित हैं । चौथी शरण मुझे उस अहिंसा-धर्म की है जो स्वर्ग व मुक्ति के सुख का दाता है । दुर्गति/ कष्ट आ पड़ने पर स्वजन-पुरिजन कोई भी जीव को नहीं रखता। उस समय ये चारों ही उसके लिए शरण होते हैं। भूघरदास जी कहते हैं कि सचमुच ऐसे क्षणों में मुझे इन्हों चारों का भरोसा है। ये ही मुझे इस भवसागर से बचाने में समर्थ हैं।