मौन रह ना सको, आत्म वैभव कहो,
मात्र शुद्धात्मा एक अभिधेय है।
शुद्ध आत्मा की प्राप्ति प्रयोजन अरे,
शुद्ध आत्मा ही श्रद्धा का श्रद्धेय है ।।1।।
प्राप्ति भी तो कही मात्र उपचार से,
प्राप्य की प्राप्ति क्या, वह सदा प्राप्त है।
नित्य-उद्योतमय अपना ज्ञायक प्रभो,
अंतरंग में विराजे सहज आप्त है ।।2।।
आत्मा ज्ञायक है ये भी जाने क्वचित्,
पर सहज ज्ञेय भी श्रद्धा विरले करें।
जानने में तो आये सदा ज्ञान ही,
भ्रान्ति ज्ञेयों की ही मूढ़ प्राणी करें ।।3।।
ज्ञान तो ज्ञान ही चाँदनी सम अहो,
ज्ञेयों से भिन्न अत्यन्त शुद्ध ज्ञान है।
ज्ञान में ज्ञानमय, ज्ञान का परिणमन,
ज्ञान में ज्ञायक का ही हुआ भान है ।।4।।
प्रगटा आनन्द, आनन्द अनुपम अहो,
मुझको दीखे न आनन्द का पार है।
मैं तो सर्वांग आनन्दमय हूँ सहज,
अब न मुक्ति की भी मुझको दरकार है ।।5।।
एकत्वगत निश्चय सुंदर समय,
बंध की तो कथा भी विसंवाद है।
एक ज्ञायक की झंकार गुँजती रहे,
अब दिखे शेष कुछ भी न अवसाद है ।।6।।
और कुछ कहने-सुनने के लायक नहीं,
चिन्तवन का विषय भी हो शुद्धात्मा ।
हो के एकाग्र लोकाग्र में जा बसो,
तुम भी कहलाओ जग पूज्य सिद्धात्मा ।।7।।
सिद्ध पद भी है ज्ञायक की सेवा का फल,
जानकर सर्वाधिक अपना ज्ञायक लखो।
होके निशंक, निर्भय, निराकुल सहज,
अपने ज्ञायक में ही हो के ज्ञायक बसो ।।8।।
परिणमन होने योग्य सहज होयेगा,
दुःख मिट जायेंगे सुख प्रगटायेगा ।
छोड़ कर्तृत्व ज्ञाता अकर्त्ता रहो,
मुक्ति हो जायेगी, साध्य मिल जायेगा ।।9।।
Artist : ब्र. श्री रवीन्द्रजी ‘आत्मन्’
Source : स्वरुप स्मरण (page no. 74)
Audio : https://www.youtube.com/watch?v=n8GTJxJZBWc