मङ्गल श्रृंगार | Mangal Shringaar

मस्तक का भूषण गुरु आज्ञा, चूड़ामणि तो रागी माने।।
सत्-शास्त्र श्रवण है कर्णों का, कुण्डल तो अज्ञानी जाने ॥१॥

हीरों का हार तो व्यर्थ कण्ठ में, सुगुणों की माला भूषण।
कर पात्र-दान से शोभित हो, कंगन हथफूल तो है दूषण।।२।।

जो घड़ी हाथ में बंधी हुई, वह घड़ी यहीं रह जायेगी।
जो घड़ी आत्म-हित में लागी, वह कर्म बंध विनशायेगी ॥३॥

जो नाक में नथुनी पड़ी हुई, वह अन्तर राग बताती है।
श्वास-श्वास में प्रभु सुमिरन से, नासिका शोभा पाती है।।४।।

होठों की यह कृत्रिम लाली, पापों की लाली लायेगी।
जिसमें बँधकर तेरी आत्मा, भव-भव के दुःख उठायेगी ।।५।।

होठों पर हँसी शुभ्र होवे, गुणियों को लखते ही भाई।
ये होठ तभी होते शोभित, तत्त्वों की चर्चा मुख आई॥६॥

क्रीम और पाउडर मुख को, उज्ज्वल नहिं मलिन बनाता है।
हो साम्यभाव जिस चेहरे पर, वह चेहरा शोभा पाता है॥७॥

आँखों में काजल शील का हो, अरु लज्जा पाप कर्म से हो।।
स्वामी का रूप बसा होवे, अरु नाता केवल धर्म से हो ।।८।

जो कमर करधनी से सुन्दर, माने उस सम है मूढ़ नहीं।
जो कमर ध्यान में कसी गई, उससे सुन्दर है नहीं कहीं।।९।।

पैरों में पायल ध्वनि करतीं, वे अन्तर द्वन्द्व बताती हैं।
जो चरण चरण की ओर बढ़े, उनके सन्मुख शरमाती हैं॥१०॥

जड़ वस्त्रों से तो तन सुन्दर, रागी लोगों को दिखता है।
पर सच पूछो उनके अन्दर, आतम का रूप सिसकता है ।।११।।

जब बाह्य मुमुक्षु रूप धार, ज्ञानाम्बर को धारण करता।
अत्यन्त मलिन रागाम्बर तज, सुन्दर शिवरूप प्रकट करता ॥१२॥

एकत्व ज्ञानमय ध्रुव स्वभाव ही, एक मात्र सुन्दर जग में।
जिसकी परिणति उसमें ठहरे, वह स्वयं विचरती शिवमग में ।।१३।।

वह समवसरण में सिंहासन पर, गगन मध्य शोभित होता/ गगन मध्य ही तिष्ठाता
रत्नत्रय के भूषण पहने, अपनी प्रभुता को प्रगटाता ।।१४।।

पर नहीं यहाँ भी इतिश्री, योगों को तज स्थिर होता।
अरु एक समय में सिद्ध हुआ, लोकाग्र जाय अविचल होता ॥१५॥

Artist - ब्र. श्री रवीन्द्र जी ‘आत्मन्’

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