मन के विकार नासो, हे महावीर देवा।
संसार ताप छूटे, बस एक चाह देवा ।।टेक।।
भव की भंवर में भ्रमते, तुम ही हो एक खेवा।
कब तक रुलूँगा भगवन, देखा न तुमसा देवा ।।1।।
जग में तो देव सारे, हैं भव भ्रमण के मारे।
जो सेवा नाहिं चाहें, देवें स्वपद का मेवा ।।2।।
रागादि भाव शीतल, निज आत्म माँहि करके।
तुम ही हो इस भवोदधि में, तारने को खेवा ।।3।।
तुमसा समान बनकर, हो शांत आग मेरी।
होकर के वीतरागी, अरहंत नाम देवा ।।4।।