"मैं" की यात्रा। Mai ki Yatra

जिनेन्द्र भक्ति में, शक्ति है अनंत।
सोलह कारण भा, “मैं” बनूं भगवंत। टेक।

हृदय से मिथ्यात्व का, श्रद्धान हटाऊं।
सम्यक्त्व गुण “मैं” भी, प्रकटा पाऊं।।
"मैं" पहली से चौथी में, छलांग लगाऊं।
और जल्द से जल्द चौदह, पार जाऊंं। 1 ।

राग के जंजाल में, “मैं” ना फस जाऊंं।
नकुल और सहदेव से, कुछ तो सीख पाऊंं।।
जग में “मैं” भी, सर्वज्ञ कहलाऊंगा।
जाते जाते हित का, उपदेश देजाऊंगा। 2 ।

चौरासी के चक्कर से, “मैं” निकल जाऊंं।
और निकल कर वापस, कभी ना आऊं।।
शुक्ल ध्यान ध्या कर, कर्मोंं को नशाऊं।
अयोग केवली अवस्था भी, “मैं” छोड़ जाऊंं। 3 ।

आठों कर्मों से, “मैं” मुक्त हो जाऊंं।
आठों गुणों को, “मैं” प्रकट कर जाऊंं।।
अष्टम पृथ्वी पर, “मैं” स्थित हो जाऊंं।
सभी कार्यों से, “मैं ” कृतकृत्य हो जाऊंं। 4 ।

-शुभम जैन

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