(राग दीपचन्दी)
महिमा जिनमत की, कोई वरन सकै बुधिवान । टेक ॥।
काल अनंत भ्रमत जिय जा बिन, पावत नहिं निज थान । परमानन्दधाम भये तेही तिन कीनों सरधान ।। १ ।।
भव मरुथल में ग्रीष्मरितु रवि, तपत जीव अति प्रान ।
ताको यह अति शीतल सुंदर, धारा सदन समान ।। २ ।।
प्रथम कुमत मनमें हम भूले, कीनी नाहिं पिछान ।
‘भागचन्द’ अब याको सेवत, परम पदारथ जान || ३ ||
रचयिता: कविवर श्री भागचंद जी जैन
Source: आध्यात्मिक भजन संग्रह (प्रकाशक: PTST, जयपुर )