पणविवि वीरजिणिंदं पच्छा णयलक्खणं वोच्छं ॥1॥
अर्थ- कर्मों को जीतने से वीर, विषयों से विरक्त, कर्ममल से रहित और निर्मल केवलज्ञान से युक्त महावीर जिनेन्द्र को नमस्कार करके पश्चात् नय का लक्षण कहूँगा।
तं इह णयं पउत्तं णाणी पुण तेहि णाणेहिं ॥2॥
अर्थ- श्रुत ज्ञान के आश्रय को लिये हुए ज्ञानी का जो विकल्प वस्तु के अंश को ग्रहण करता है उसे नय कहते है। उस ज्ञान से जो युक्त होता है वह ज्ञानी है।
तह्मा सो बोहव्वो एअंतं हंतुकामेण ॥3॥
अर्थ- नय के बिना मनुष्य को स्याद्वाद का बोध नहीं हो सकता। इसलिए जो एकान्त का विरोध करना चाहता है उसको नय जानना चाहिए।
धाओ वा एयरसं तह णयमलो अणेयंतो ॥4॥
अर्थ- जैसे शास्त्रों का मूल अकारादि वर्ण है, तप आदि गुणों के भण्डार साधु में सम्यक्त्व मूल है, धातुओं में मूल पारा है, वैसे ही अनेकान्त का मूल नय है।
तस्स ण सिज्झइ वत्थु किह एयंतं पसोहेदि ॥5॥
अर्थ- तत्त्व तो नाना विकल्प रुप है उसे जो एक विकल्प के द्वारा सिद्ध करता है उसको वस्तु की सिद्धि नहीं होती। तब वह कैसे एकांत का साधन कर सकता है।
तह इह वंछइ मूढो णयरहिओ दव्वणिच्छित्ती ॥6॥
अर्थ- जिस प्रकार कोई तृषातुर मूढ़ जल विना तृप्ति तथा धर्म विना सुख चाहता है। उसी प्रकार नय ज्ञान के विना द्रव्य के स्वरूप का निश्चय कोई अज्ञानी चाहता है।
तह झादा णायव्वो दवियणिछित्तीहिं परिहीणो ॥7॥
अर्थ- जिस प्रकार राजनीति को नहीं जानने वाला राजा, राज्य वैभव का भोग नहीं कर सकता है। ठीक उसी प्रकार द्रव्य के यथार्थ बोध से विहीन ध्याता ध्यान की प्राप्ति नहीं कर सकता है।
अहवा तंदुलरहियं पलालसंधूणणं सव्वं ॥8॥
अर्थ- भगवान् जिनेन्द्र के वचनों को जान कर पश्चात् निज कार्य में संयुक्त होना चाहिए। अन्यथा किया गया कार्य चावल रहित पलाल (भूसा) के ग्रहण के तुल्य है।
तं खलु णाणवियप्पं सम्मं मिच्छं च णायव्वं ॥9॥
अर्थ- एक नय को एकान्त कहते हैं और उसके समूह को अनेकान्त कहते हैं। यह ज्ञान का भेद है जो सम्यक् और मिथ्या दो रूप होता है।
वत्थुसहावविहूणा सम्माइठ्ठी कहं हुंति ॥10॥
अर्थ- जो नयदृष्टि से विहीन है उन्हें वस्तु के स्वरुप का ज्ञान नहीं हो सकता और वस्तु के स्वरुप को न जानने वाले सम्यग्दृष्टि कैसे हो सकते है?
अण्णं असंखसंखा ते तब्भेया मुणेयव्वा ॥11॥
अर्थ- द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक ये दो ही मूल नय कहे गये है। अन्य असंख्यात संख्या को लिये हुए उन दोनों के ही भेद जानने चाहिए।
एवंभूयो णवविह णयावि तह उवणया तिण्णि ॥12॥
अर्थ- नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरुढ़ और एवंभूत (इन सात नयों में द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक को मिलाने से) नौ नय हैं तथा तीन उपनय है।
तिविहं च णेगमं तह दुविहं पुण संगहं तत्थ ॥13॥
उत्ता इह णयभेया उपणयभेयावि पभणामो ॥14॥
अर्थ- द्रव्यार्थिक नय के दस, पर्यायार्थिक नय के छह, नैगम नय के तीन, संग्रह नय, व्यवहार और ऋजुसूत्र नय के दो-दो तथा शेष शब्द, समभिरुढ़ और एवंभूत नय एक एक रूप ही हैं। इस प्रकार नय के भेद कहे गये। उपनय के भेद आगे कहते हैं।
तिविहं पि असब्भूयं उवयरियं जाण तिविहं पि ॥15॥
अर्थ- उपनय तीन हैं- सद्भूत, असद्भूत और उपचरित। सद्भूत नय के दो भेद हैं, असद्भूत नय के तीन भेद हैं और उपचरित के भी तीन भेद हैं।
सब्भूयासब्भूए उवयरिए च दुणवतियत्था ॥16॥
अर्थ- द्रव्यार्थिक नयों का विषय द्रव्य है और पर्यायार्थिक नयों का विषय पर्याय है। सद्भूत व्यवहारनय के अर्थ दो हैं, असद्भूत व्यवहार नय के अर्थ नौ है और उपचरितनय के अर्थ तीन हैं।
सो दव्वत्थो भणिओ विवरीओ पज्जयत्थो दु ॥17॥
अर्थ- जो पर्याय को गौण करके द्रव्य को ग्रहण करता है उसे द्रव्यार्थिकनय कहते हैं और जो द्रव्य को गौण करके पर्याय को ग्रहण करता है उसे पर्यायार्थिक नय कहते हैं।
भण्णइ सो सुद्धणओ खलु कम्मोवाहिणिरवेक्खो ॥18॥
अर्थ- जो कर्मों के मध्य में स्थित अर्थात् कर्मों से लिप्त जीव को सिद्धों के समान शुद्ध ग्रहण करता है उसे कर्मोपाधि निरपेक्ष शुद्ध द्रव्यार्थिक नय कहते हैं।
भण्णइ सो सुद्धणओ इह सत्तागाहओ समए ॥19॥
अर्थ- उत्पाद और व्यय को गौण करके जो केवल सत्ता को ग्रहण करता है उसे आगम में सत्ता ग्राहक शुद्ध द्रव्यार्थिक नय कहते हैं।
सुद्धो सो दव्वत्थो भेदवियप्पेण णिरवेक्खो ॥20॥
अर्थ- गुण-गुणी आदि चतुष्करूप अर्थ में जो नय भेद नहीं करता है, वह भेद विकल्प निरपेक्ष शुद्ध द्रव्यार्थिक नय है।
सोहु असुद्धो उत्तो कम्माणोवाहिसावेक्खो ॥21॥
अर्थ- जो सब रागादिभावों को जीव का कहता है या रागादिभावों को जीव कहता है वह कर्मोपाधि सापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय है।
दव्वस्स एयसमये जो हु असुद्धो हवे विदिओ ॥22॥
अर्थ- जो नय उत्पाद व्यय के साथ मिली हुई सत्ता को ग्रहण करके द्रव्य को एक समय में उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य रुप कहता है वह अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय है।
सो वि असुद्धो दिठ्ठो सहिओ सो भेदकप्पेण ॥23॥
अर्थ- जो नय द्रव्य में गुण-गुणी आदि का भेद करके उनके साथ सम्बन्ध कराता है वह भेद कल्पना सापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय है, क्योंकि वह भेद कल्पना से सहित हैं।
दव्वठवणो हि जो सो अण्णयदव्वत्थिओ भणिओ ॥24॥
अर्थ- समस्त स्वभावों में जो यह द्रव्य है इस प्रकार अन्वयरुप से द्रव्य की स्थापना करता है वह अन्वय द्रव्यार्थिक नय है।
णियदव्वादिसु गाही सो इयरो होइ विवरीयो ॥25॥
अर्थ- जो स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल और स्वभाव में वर्तमान द्रव्य को ग्रहण करता है वह स्वद्रव्यादिग्राहक द्रव्यार्थिकनय है। और जो पर द्रव्य, परक्षेत्र, परकाल और परभाव में असत् द्रव्य को ग्रहण करता है वह पर द्रव्यादि ग्राहक द्रव्यार्थिक नय है।
सो परमभावगाही णायव्वो सिद्धिकामेण ॥26॥
अर्थ- जो अशुद्ध, शुद्ध और उपचरित स्वभाव से रहित परमस्वभाव को ग्रहण करता है वह परमभाव ग्राही द्रव्यार्थिक नय है, उसे मोक्षेच्छुक भव्य को जानना चाहिए।
जो सो अणाइणिच्चो जिणभणिओ पज्जयत्थिणओ ॥27॥
अर्थ- जो अकृत्रिम और अनिधन अर्थात् अनादि अनन्त चन्द्रमा सूर्य आदि पर्यायों को ग्रहण करता है उसे जिन भगवान् ने अनादि नित्य पर्यायार्थिक नय कहा है।
इदमेवमुच्चरंतो भण्णइ सो साइणिच्च णओ ॥28॥
अर्थ- जो पर्याय कर्मों के क्षय से उत्पन्न होने के कारण सादि है और विनाश का कारण न होने से अविनाशी है, ऐसी सादि नित्य पर्याय को ग्रहण करने वाला सादि नित्य पर्यायार्थिक नय है।
सो दु सहाव अणिच्चो भण्णइ खलु सुद्धपज्जायो ॥29॥
अर्थ- जो सत्ता को गौण करके उत्पाद व्यय को ग्रहण करता है उसे अनित्य स्वभाव को ग्रहण करने वाला शुद्ध पर्यायार्थिक नय कहते है।
सो सब्भाव अणिच्चो असुद्धओ पज्जयत्थीओ णेओ ॥30॥
अर्थ- जो एक समय में उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य से युक्त पर्याय को ग्रहण करता है वह स्वभाव अनित्य अशुद्ध पर्यायार्थिक नय है।
जो इह अणिच्च सुद्धो पज्जयगाही हवे स णओ ॥31॥
अर्थ- जो संसारी जीवों की पर्याय को सिद्धों के समान शुद्ध कहता है वह अनित्य शुद्ध पर्यायार्थिक नय है।
होइ विभाव अणिच्चो असुद्धओ पज्जयत्थिणओ ॥32॥
अर्थ- जो चार गतियों के जीवों की अनित्य अशुद्ध पर्याय का कथन करता है वह विभाव अनित्य अशुद्ध पर्यायार्थिक नय है।
तं भूयणइगमणयं जह अड णिव्वुइदिणं वीरे ॥33॥
अर्थ- जो कार्य हो चुका उसका वर्तमान काल में आरोप करना भूत नैगमनय है। जैसे, आज के दिन भगवान् महावीर का निर्वाण हुआ था।
लोए य पुच्छमाणे तं भण्णइ वट्टमाणणयं ॥34॥
अर्थ- जो प्रारम्भ की गई पकाने आदि की क्रिया को लोगों के पूछने पर सिद्ध या निष्पन्न कहना है वह वर्तमान नैगमनय है।
अप्पत्थे जह पत्थं भण्णइ सो भावि णइगमोत्ति णओ ॥35॥
अर्थ- जो अनिष्पन्न भावि पदार्थ को निष्पन्न की तरह कहता है उसे भावि नैगमनय कहते है जैसे अप्रस्थ को प्रस्थ कहना।
होई तमेव असुद्धो इगजाइविसे सगहणेण ॥36॥
अर्थ- संग्रह नय के दो भेद हैं- शुद्ध संग्रहनय और अशुद्ध संग्रह नय। शुद्ध संग्रहनय में परस्पर में विरोध न करके सत् रुप से सबका ग्रहण किया जाता है और जो नय सत् रुप से ग्रहण पदार्थ की किसी एक जाति विशेष को ग्रहण करता है उसे अशुद्ध संग्रहनय कहते है।
सो ववहारो दुविहो असुद्धसुद्धत्थभेयकरो ॥37॥
अर्थ- जो संग्रहनय के द्वारा गृहीत शुद्ध अथवा अशुद्ध अर्थ का भेद करता है वह व्यवहारनय है। उसके भी दो भेद है- अशुद्ध अर्थ का भेद करने वाला और शुद्ध अर्थ का भेद करने वाला।
सो रिउसुत्तो सुहुमो सव्वं पि सदं जहा खणियं ॥38॥
जो भणइ तावकालं सो थूलो होइ रिउसुत्तो ॥39॥
अर्थ- जो द्रव्य में एक समयवर्ती अध्रुवपर्याय को ग्रहण करता है उसे सूक्ष्म ऋजु सूत्र नय कहते है। जैसे सभी शब्द क्षणिक हैं और जो अपनी स्थितिपर्यन्त रहने वाली मनुष्य आदि पर्याय को उतने समय तक (पर्याय स्थिति) एक मनुष्य रुप से ग्रहण करता है वह स्थूल ऋजुसूत्र नय है।
सो सद्दणओ भणिओ णेओ पुस्साइयाण जहा ॥40॥
तं खलु सद्दे विसयं देवो सद्देण जह देवो ॥41॥
अर्थ- जो नय एक अर्थ में भिन्न लिंग आदि वाले शब्दों की प्रवृत्ति को स्वीकार नहीं करता उसे शब्द नय कहते हैं। जैसे पुष्य आदि शब्दों में लिंग भेद होने से अर्थ भेद जानना चाहिए।
अथवा सिद्ध शब्द में जो कुछ अर्थ का व्यवहार किया जाता है वह शब्दनय का विषय है जैसे देव शब्द से देव अर्थ लिया जाता है।
भणइ इह समभिरूढो जह इंद पुरंदरो सक्के ॥42॥
अर्थ- जो अर्थ को शब्दारूढ़ और शब्द को अर्थारुढ़ कहता है वह समभिरुढ़ नय है जैसे इन्द्र, शक्र और पुरन्दर।
तं तं खु णामजुत्तो एवंभूओ हवे स णओ ॥43॥
अर्थ- जीव मन, वचन, और काय की चेष्टा से जो-जो क्रिया करता है उस-उस नाम से वह युक्त होता है। यह एवंभूत नय का स्वरूप जानना चाहिये।
ते चदु अत्थपहाणा सद्दपहाणा हु तिण्णियरा ॥44॥
अर्थ- पहले के तीन नय द्रव्यार्थिक है बाकी के नय पर्याय को ग्रहण करते है। प्रारम्भ के चार नय अर्थ प्रधान है और शेष तीन नय शब्द प्रधान है।
अह तं एवंभूदो संभवदो मुणह अत्थेसु ॥45॥
अर्थ- इस गाथा का अर्थ स्पष्ट नहीं है। संभव भावार्थ यह प्रतिभासित होता है कि वर्तमान, भूत और आगामी प्रत्येक समय की पर्यायों में भेद है। एवंभूत यह भेद स्वीकार करता है।
सण्णाईहि य भेयं कुण्णइ सब्भूयसुद्धियरो ॥46॥
अर्थ- शुद्ध सद्भूत व्यवहार नय गुण और पर्याय के द्वारा द्रव्य में तथा कारक भेद से द्रव्यों में संज्ञा आदि के द्वारा भेद करता है।
अण्णेय य णिच्छयदो भणिया का तत्थ खलु हवे जुत्ती ॥47॥
अर्थ- एक आचार्य ने व्यवहार नय से द्रव्यों के बहुत प्रदेश कहे है। अन्य आचार्य ने निश्चय नय से द्रव्य के बहुत प्रदेश कहे हैं। इसमें क्या युक्ति है।
अभिन्नात्मैकदेसित्वादेक देेशोऽपि निश्चयात् ॥
कहा भी है- व्यवहार नय के आश्रय से जो असंख्यात प्रदेशी है वही निश्चयनय से अभिन्न एक आत्म रूप होने से एक प्रदेशी भी है।
असमुहदो ववहारा णिच्चयणयदो असंखदेसो वा ॥48॥
अर्थ- व्यवहारनय से आत्मा संकोच-विस्तार गुण के कारण समुद्धात अवस्था के अतिरिक्त शेष सब अवस्थाओं में प्राप्त छोटे या बड़े निज शरीर के बराबर है और निश्चयनय से असंख्यात प्रदेश वाले लोकाकाश के बराबर है।
संभूएणं बहुगा तस्स य ते भेयकप्पणासहिए ॥49॥
अर्थ- भेद कल्पना रहित निश्चयनय से द्रव्य एक प्रदेशी है और भेद कल्पना सहित सद्भूत व्यवहारनय से बहुत प्रदेशी है।
सज्जाइइयरमिस्सो णायव्वो तिविहभेदजुदो ॥50॥
अर्थ- जो अन्य के गुणों को अन्य का कहता है वह असद्भूत व्यवहारनय है। उसके तीन भेद है सजाति, विजाति और मिश्र तथा उनमें से भी प्रत्येक के तीन-तीन भेद हैं।
दव्व गुणपज्जया गुणे दवियपज्जया णेया ॥51॥
संबंधे संसिलेसो णाणीणं णेयमादीहिं ॥52॥
अर्थ- द्रव्य में द्रव्य का, गुण में गुण का, पर्याय में पर्याय का, द्रव्य में गुण और पर्याय का, गुण में द्रव्य और पर्याय का और पर्याय में द्रव्य और गुण का उपचार करना चाहिए। यह उपचार बन्ध से संयुक्त अवस्था में तथा ज्ञानी का ज्ञेय आदि के साथ सम्बन्ध होने पर किया जाता है।
ते जो भणेइ जीवो ववहारो सो विजातीओ ॥53॥
अर्थ- पौद्गलिक काय में जो एकेन्द्रिय आदि के शरीर बनते हैं उन्हें जो जीव कहता है वह विजातीय असद्भूत व्यवहार नय है।
जइ णहु मुत्तं णाणं ता कह खलियं हि मुत्तेण ॥54॥
अर्थ- मतिज्ञान मूर्तिक है क्योंकि मूर्तिक द्रव्य से पैदा होता है यदि मतिज्ञान मूर्त न होता तो मूर्त के द्वारा वह स्खलित क्यों होता।
सज्जाइअसब्भूओ उवयरिओ णिययजातिपज्जाओ॥55॥
अर्थ- प्रतिबिम्ब को देखकर यह वही पर्याय है जो ऐसा कहता है वह स्वजाति पर्याय में स्वजाति पर्याय का उपचार करने वाला असद्भूत व्यवहार नय है।
जो भणइ एरिसत्थं ववहारो सो असब्भूदो ॥56॥
अर्थ- ज्ञेय जीव भी है और अजीव भी है ज्ञान के विषय होने से उन्हें जो ज्ञान कहता है, वह असद्भूत व्यवहार नय है।
सो ववहारो णेओ दव्वे पज्जायउवयारो ॥57॥
अर्थ- जो एक प्रदेशी परमाणु को बहुप्रदेशी कहता है उसे द्रव्य में पर्याय का उपचार करने वाला असद्भूत व्यवहारनय जानना चाहिए।
सेओ जह पासाणो गुणेसु दव्वाण उवयारो ॥58॥
अर्थ- अन्य अर्थ में होने वाला व्यवहार रूप को भी द्रव्य कहता है जैसे सफेद पत्थर। यह गुणों में द्रव्य का उपचार है।
ववहारो खलु जंपइ गुणेसु उवरियपज्जाओ ॥59॥
अर्थ- परिणमन शील ज्ञान को पर्याय रुप से कहा जाता है इसे गुणों में पर्याय का उपचार करने वाला असद्भूत व्यवहारनय कहते है।
उवयारो पज्जाए पोग्गलदव्वस्स भणइ ववहारो ॥60॥
अर्थ- स्थूल स्कन्ध को देखकर लोक में उसे ‘यह पुद्गल द्रव्य है’ ऐसा कहते है इसे पर्याय में पुद्गल द्रव्य का आरोप करने वाला व्यवहार नय कहते है।
गुणउवयारो भणिओ पज्जाए णत्थि संदेहो ॥61॥
अर्थ- शरीर के आकार को देखकर उसका वर्णन करते हुए कहना कि कैसा उत्तम रूप है, यह पर्याय में गुण का उपचार है इसमें सन्देह नहीं।
जस्स ण हवेइ संतो हेऊ दोण्हंपि तस्स कुदो ॥62॥
जइ तं मिच्छा तो किह संसारो संखमिव तस्समये ॥63॥
हिंसादिसु जदि पावं सव्वत्थो किं ण ववहारो ॥64॥
अर्थ- जिनेन्द्र देव ने सर्वत्र पर्याय रुप से व्यवहार को सत् कहा है। जो व्यवहार को सत् नहीं मानता उसके मत में संसार और मोक्ष के कारण कैसे बनेंगे?
यह चार गति रुप संसार है उसके हेतु शुभ और अशुभ कर्म है। यदि वह मिथ्या है तो उसके मत में सांख्य की तरह वह संसार कैसे बनेगा?
जिनेन्द्र देव ने व्यवहार नय से एकेन्द्रिय आदि जीवों के शरीर को जीव कहा है। यदि उनकी हिंसा करने में पाप है तो सर्वत्र व्यवहार क्यों नहीं मानते?
णिच्छयदो पुण जीवो भणिओ खलु सव्वदरसीहिं ॥65॥
अर्थ- व्यवहार नय से बन्ध की तरह मोक्ष का हेतु भी अन्य जानना चाहिए। किन्तु निश्चयनय से सर्वदर्शी भगवान् ने निजभाव को बन्ध और मोक्ष का कारण कहा है।
सो चिय भेदुवयारा जाण फुडं होइ ववहारो ॥66॥
अर्थ- निश्चय नय से जो जीव स्वभाव सब जीवों में होता है भेदोपचार से वह भी व्यवहार है ऐसा स्पष्ट जानों।
सम्मे सम्मो भणिओ तेहि दु बंधो व मुक्खो वा ॥67॥
अर्थ- मिथ्यादृष्टियों का भेद रूप उपचार तथा निश्चय मिथ्या होता है और सम्यग्दृष्टियों का सम्यक् होता है। उन्हीं से बन्ध अथवा मोक्ष होता है।
तं इह मिच्छाणाणं विवरीयं सम्मरूवं खु ॥68॥
अर्थ- जो वस्तु-स्वरुप को नहीं जानता या निरपेक्ष रुप से विपरीत जानता है वह मिथ्या ज्ञान है और उससे विपरीत सम्यग्ज्ञान है।
किह णिच्छित्तीणाणं अण्णेसिं होइ णियमेण ॥69॥
अर्थ- ज्ञान और दर्शन का ज्ञेय में उपचार नहीं किया जाता। तब नियम से अन्य पदार्थों के निश्चय को ज्ञान कैसे कहा जा सकता है?
सज्जाइइयरमिस्सो उवयरिओ कुणइ ववहारो ॥70॥
अर्थ- सत्य, असत्य और सत्यासत्य पदार्थों में तथा स्वजातीय, विजातीय और स्वजाति-विजातीय पदार्थों में जो एक उपचार के द्वारा दूसरे उपचार का विधान किया जाता है उसे उपचरितासद्भूत व्यवहारनय कहते है।
मे देसं मे दव्वं सच्चासच्चंपि उभयत्थं ॥71॥
अर्थ- देश का स्वामी कहता है कि यह देश मेरा है, या देश में स्थित व्यक्ति कहता है कि देश मेरा है या व्यापारी अर्थ का व्यापार करते हुए कहता है कि मेरा धन है तो यह क्रमशः सत्य, असत्य और सत्यासत्य उपचरित असद्भूत व्यवहार नय है।
उवयारासब्भूओ सजाइदव्वेसु णायव्वो ॥72॥
अर्थ- पुत्र आदि बन्धु वर्ग रूप मैं हूँ या यह सब सम्पदा मेरी है इस प्रकार का कथन स्वजाति उपचरित असद्भूत व्यवहार नय है।
उवयार असब्भूओ विजादिदव्वेसु णायव्वो ॥73॥
अर्थ- आभरण, सोना, रत्न और वस्त्र आदि मेरे हैं, ऐसा कथन विजाति द्रव्यों में उपचरित असद्भूत व्यवहारनय है।
उहयत्थे उपयरिओ होई असब्भूयववहारो ॥74॥
अर्थ- जो देश की तरह राज्य, दुर्ग, आदि अन्य मिश्र सजाति-विजाति द्रव्यों को अपना कहता है उसका यह कथन सजाति-विजाति उपचरित असद्भूत व्यवहारनय है।
तं तह वयणेयंते इदि बुज्झइ सियअणेयंतं ॥75॥
अर्थ- निरपेक्ष एकान्तवाद में अनेक भाव रुप द्रव्य की सिद्धि नहीं होती। इसी तरह एकान्त निरपेक्ष अनेकान्तवाद में भी तत्त्व निर्णय नहीं होता है इसलिए कथंचित् अनेकान्तवाद को जानना चाहिए।
तह्मा कर तं गउणं सहावमाराहणाकाले ॥76॥
अर्थ- व्यवहार से बन्ध होता है और स्वभाव में लीन होने से मोक्ष होता है इसलिए स्वभाव की आराधना के समय व्यवहार को गौण करना चाहिए।
तह णय सिद्धो जोई अप्पा अणुहवउ अणवरयं ॥77॥
अर्थ- जैसे रस सिद्ध वैध पारदादि के योग से स्वर्ण बनाकर भोगों का अनुभव करता है, उसी प्रकार नय सिद्ध (नय निपुण) योगी निरन्तर आत्म-अनुभव करता है।
वट्टइ तं जइवग्गे अणवरयं भावणालीणे ॥78॥
अर्थ- चारित्र से युक्त जीव में परम सौख्य रूप मोक्ष पाया जाता है और वह चारित्र निरन्तर भावना में लीन मुनि समुदाय में पाया जाता है।
जो संवेयणगाही सोहं णादा हवे आदा ॥79॥
अर्थ- रागादि भावकर्म मेरे स्वभाव नहीं है क्योंकि वे तो कर्मजन्य है। मैं तो ज्ञाता आत्मा हूँ जो स्वसंवेदन के द्वारा जाना जाता हूँ। अर्थात् इस प्रकार भावना निरन्तर भाने वाले मुनियों में चारित्र पाया जाता है।
जो संवेयणगाही सोहं णादा हवे आदा ॥80॥
अर्थ- जो परभाव से सर्वथा रहित सम्पूर्ण स्वभाव वाला है, वही मैं ज्ञाता आत्मा हूँ तथा स्वसंवेदन से जिसका ग्रहण होता है।
जो संवेयणगाही सोहं णादा हवे आदा ॥81॥
अर्थ- मेरा जड़ स्वभाव नहीं है क्योंकि जड़ स्वभाव तो अचेतन द्रव्य में कहा है। मैं तो वही ज्ञाता आत्मा हूँ जो स्वसंवेदन के द्वारा ग्रहण किया जाता है।
जो संवेयणगाही सोहं णादा हवे आदा ॥82॥
अर्थ- मेरा स्वभाव ज्ञान, दर्शन, चारित्र है कोई भी आवरण मेरा स्वभाव नहीं है। इस प्रकार मैं वही ज्ञाता आत्मा हूँ जो स्वसंवेदन के द्वारा ग्रहण किया जाता है।
जो संवेयणगाही सोहं णादा हवे आदा ॥83॥
अर्थ- घातिया चतुष्क को नष्ट करके परम पारिणामिक स्वभाव को प्राप्त मैं वही ज्ञाता आत्मा हूँ जो स्वसंवेदन के द्वारा ग्रहण किया जाता है।
जइया तइया कीलइ अप्पा अवियप्पभावेण ॥84॥
अर्थ- जब आत्मा निर्विकल्प भाव से परिणमन करता है तब योगी के निज ज्ञान से उत्पन्न श्रेष्ठ आत्मानंद होता है।
सम्भाविसुयं मिच्छा जीवाणं सुणयमग्गरहियाणं ॥85॥
अर्थ- जैसे लवण सब व्यंजनों को शुद्ध कर देता है- सुस्वाद बना देता है वैसे ही समस्त शास्त्रों की शुद्धि के कर्त्ता इस नयचक्र को कहा है। सुनय के ज्ञान से रहित जीवों के लिए सम्यक् श्रुत भी मिथ्या हो जाता है।
तो णादुं कुणह मइं णयचक्के दुणयतिमिरमत्तण्डे ॥86॥
अर्थ- यदि लीला मात्र से अज्ञान रुपी समुद्र को पार करने की इच्छा है तो दुर्नयरुपी अन्धकार के लिए सूर्य के समान नयचक्र को जानने में अपनी बुद्धि लगाओ।