बारहमासा (राजुल का)
(राग मरहरी झड़ी)
मैं लूँगी श्री अरहन्त, सिद्ध भगवन्त;
साधु, सिद्धान्त चार का शरना।
निर्नेम नेम बिन हमें जगत क्या करना॥टेक।।
आसाढ़ मास
(झड़ी)
सखि आया असाढ़ घनघोर भोर चहुँ ओर;
मचा रहे शोर, इन्हें समझावो ।
मेरे प्रीतम की तुम, पवन परीक्षा लावो॥
है कहाँ मेरे भरतार, कहाँ गिरनार;
महाव्रत धार, बसे किस वन में।
क्यों बांध मोड़ दिया तोड़ क्या सोची मन में॥
(झर्वटें)
तू जा रे पपैया जा रे, प्रीतम को दे समझा रे।
रही नौ भव सङ्ग तुम्हारे, क्यों छोड़ दई मझधारे।।
(झड़ी)
क्यों बिना दोष, भये रोष, नहीं सन्तोष;
यही अफसोस, बात नहीं बुझी।
दिये जादों छप्पन कोड छोड़ क्या सूझी।॥
मोहि राखो चरण मंझार, मेरे भरतार;
करो उद्धार, क्यों दे गये झुरना॥
निर्नेम नेम बिन हमें जगत क्या करना ।।मैं लूंगी.॥
श्रावण मास
(झड़ी)
सखि श्रावण संवर करे, समन्दर भरे;
दिगम्बर धरे, जतन क्या करिये।
मेरे जी में ऐसी आवे महाव्रत धरिये॥
सब तजूं हार सिंगार, तजूं संसार ;
क्यों भव-मंझार मैं जी भर माऊ।
फिर पराधीन तिरिया का जन्म नहीं पाऊं।।
(झर्वटें)
सब सुन लो राज दुलारी, दु:ख पड़ गया हम पर भारी।
तुम तज दो प्रीति हमारी, कर दो संयम को त्यारी।।
(झड़ी)
अब आ गया पावस काल, करो मत टाल;
भरे सब ताल महा जल बरसे।
बिन परसे श्री भगवान मेरा जी तरसे॥
मैं तज दई तीज सलोन, पलट गई पौन;
मेरा है कौन मुझे जग तरना।
निर्नेम नेम बिन हमें जगत क्या करना ।।मैं लूंगी.॥
भादों मास
(झड़ी)
सखि भादों भरे तलाब मेरे, चित्त चाव;
करूंगी उछाव से सोलह कारण।
करूं दस लक्षण से व्रत के पाप निवारण॥
करूं रोट तीज उपवास, पंचमी अकास;
अष्टमी खास निशल्य मनाऊँ।
तप कर सुगन्ध दशमी कूं कर्म जराऊँ ॥
(झर्वटें)
उन केवलज्ञान उपाया, जग का अन्धेर मिटाया।
जिसमें सब विश्व समाया, तन-धन सब अथिर बताया॥
(झड़ी)
है अस्थिर जगत सम्बन्ध, अरि मति मन्द;
जगत का धन्ध है धुन्ध पसारा।
मेरे प्रीतम ने सत जानके जगत बिसारा ॥
मैं उनके चरण की चेरी, तू आज्ञा दे री;
सुनले मां मेरी, है एक दिन मरना।
निर्नेम नेम बिन हमें जगत क्या करना ।।मैं लूंगी.
अगहन मास
(झड़ी)
सखि अगहन ऐसी घड़ी उदय में पड़ी;
मैं रह गई खड़ी दरस नहीं पाये।
मैंने सुकृत के दिन विरथा यों ही गँवाये॥
नहिं मिले हमारे पिया, न जप तप किया;
न संयम लिया अटक रही गज में।
पड़ी काल-अनादि से पा की बेड़ी पग में ॥
(झर्वटें )
मत भरियो मांग हमारी, मेरे शील को लागे गारी।
मत डारो अंजन प्यारी, मैं योगिन तुम संसारी॥
हुये कन्त हमारे जती, मैं उनकी सती;
पलट गई रती तो धर्म न खण्डू।
मैं अपने पिता के वंश को कैसे भण्डू॥
मैं महाशील सिंगार, अरी नथ तार;
गये भर्तार के सङ्ग आभरना।
निर्नेम नेम बिन हमें जगत क्या करना॥में लूंगी. ॥
पौस मास
(झड़ी)
सखि लगा महीना पौस, ये माया मोह,
जगत से द्रोह अरु प्रीत करावै।
हरे ज्ञानावरणी ज्ञान अदर्शन छावै॥
पर द्रव्य से ममता हरे, तो पूरी परै,
जु संवर करै तो अन्तर टूटै।
अरु उँच नीच कुल नाम की संज्ञा छूटै॥
(झर्वटें)
क्यों ओछी उमर धरावै, क्यों सम्पति को बिलखावैं ।
क्यों पराधीन दुःख पावै, जो संयम में चित लावै॥
(झड़ी)
सखि क्यों कहलावे दीन, क्यों हो छवि छीन;
क्यों विद्या हीन मलीन कहावै।
क्यों नारी नपुंसक जन्म में कर्म नचावै॥
वे तजै शील शृङ्गार, रुलै संसार;
जिन्हें दरकार नरक में पड़ना।
निर्नेम नाम बिन हमें जगत क्या करना।में लूंगी.
माघ मास
(झड़ी)
सखि आ गया मास बसन्त, हमारे कन्त;
भये अरहंत वो केवल ज्ञानी।
उन महिमा शील कुशील की ऐसी बखानी॥
दिये सेठ सुदर्शन शूल, भई मखतूल;
वहाँ बरसे फूल हुई जयवाणी ।
वे मुक्ति गये अरु भई कलंकित राणी॥
(झर्वटें)
कीचक ने मन ललचाया, द्रोपदी पर भाव धराया।
उसे भीम ने मार गिराया, उन किया तैसा फल पाया॥
(झड़ी)
फिर गह्या दुर्योधन चीर, हुई दिलगीर;
जुड़ गई भीर लाज अति आवै।
गये पाण्डु जुये में हार न पार बसावै॥
भये परगट शासन वीर, हरी सब पीर;
बधाई धीर पकर लिये चरना।
निर्नेम नेम बिन हमें जगत क्या करना ॥ मैं लूंगी. ॥
फाल्गुन मास
(झड़ी)
सखि आया फाग बड़ भाग, तो होरी त्याग;
अठाई लाग के मैना सुन्दर ।
हरा श्रीपाल का कुष्ट कठोर उदम्बर ॥
दिया धवल सेठ ने डार, उदधि की धार;
तो हो गये पार वे उस ही पल में।
अरे जा परणी गुणमाल न डूबे जल में॥
(झर्वटें)
मिली रैन मंजूषा प्यारी, जिन ध्वजा शील की धारी।
परी सेठ पै मार करारी, गया नर्क में पापाचारी॥
(झड़ी)
तुम लेखा द्रौपदी सती, दोष नहिं रती;
कहे दुर्मती पद्म के बंधन ।
हुआ धातकी खंड जरूर शील इस खंडन॥
उन फूटे घड़े मंझार, दिया जल डार;
तो वे आधार थमा जल झरना।
निर्नेम नेम बिन हमें जगत क्या करने ।।में लूंगी.।।
चैत्र मास
(झड़ी)
सखि चैत्र में चिन्ता करे, न कारज सरे;
शील से टरे कर्म की रेखा।
मैंने शील से भील को होत जगतगुरु देखा ॥
सखि शील से सुलसा तिरी, सुतारा फिरि;
खलासी करी श्री रघुनन्दन।
अरु मिली शील परताप पवन से अञ्जन॥
(झर्वटें)
रावण ने कुमत उपाई, फिर गया विभीषण भाई।
छिन में जा लङ्क ढहाई, कुछ भी नहीं पार बसाई ।
(झड़ी)
सीता सती अग्नि में पड़ी, तो उस ही घड़ी;
वह शीतल पड़ी, चढ़ी जल धारा।
खिल गये कमल भये गगन में जयजयकारा॥
पद पूजे इन्द्र धरेन्द्र भई शीतेन्द्र ;
श्री जैनेन्द्र ने ऐसे बरना।
निर्नेम नेम बिन हमें जगत क्या करना ॥ मैं दूंगा. ॥
बैसाख मास
(झड़ी)
सखि आई बैसाखी लेख, लई मैं देख;
ये ऊरध रेख पड़ी मेरे कर में।
मेरा हुआ जन्म यों उग्रसैन के घर में ॥
नहिं लिखा करम में भोग, पड़ा है जोग;
करो मत सोग जाऊँ गिरनारी।
है मात-पिता अरु भ्रात से क्षमा हमारी॥
(झर्वटें)
मैं पुण्य प्रताप तुम्हारे, घर भोगे-भोग अपारे ।
जो विधि के अंक हमारे, नहिं टरे किसी को टारे ॥
(झड़ी)
मेरी सखी सहेली वीर, न हो दिलगीर;
धरो चित धीर मैं क्षमा कराऊँ।
मैं कुल को तुम्हारे कबहूँ न दाग लगाऊँ॥
वह ले आज्ञा उठ खड़ी, थी मंगल घड़ी;
वन में जा पड़ी सुगुरु के चरना।
निर्नेम नेम बिन हमें जगत क्या करना ॥ मैं लूंगा. ॥
जेठ मास
(झड़ी)
अजी पड़े जेठ की धूप, खड़े सब भूप;
वह कन्या रूप सती बड़ भागन।
कर सिद्धों को प्रणाम किया जग त्यागन॥
अजि त्यागे सब सिंगार, चूड़ियां तार;
कमण्डल धार कै लई पिछौवी।
अरु पहर कै साड़ी श्वेत उपाड़ी चौटी।॥
(झर्वटें)
उन महा उग्र तप कीना, फिर अच्युतेन्द्र पद लीना।
है धन्य उन्हीं का जीना, नहीं विषयन में चित दीना॥
(झड़ी)
अजी त्रिया वेद मिट गया, पाप कट गया;
पुण्य चढ़ गया बढ़ा पुरुषारथ ।
करे धर्म अरथ फल भोग रुचे परमारथ।
वो स्वर्ग सम्पदा भुक्ति, जायगी मुक्ति;
जैन की उक्ति में निश्चिय धरना।
निर्नेम नेम बिन हमें जगत क्या करना ॥ मैं दूंगा. ॥
जो पढ़े इसे नर नारि, बढ़े परिवार;
सकल संसार में महिमा पावें।
सुन सतियन शील कथान विघ्न मिट जावैं ॥
नहिं रहे दुहागिन दुखी, होय सब सुखी;
मिटे बेरुखी, करें पति आदर ।
वे होय जगत में महा सतियों की चादर॥
(झर्वटें)
मैं मानुष कुल में आया, अरु जाति जती कहलाया।
है कर्म उदय की माया, बिन संयम जन्म गवाया ॥
(झड़ी)
है दिल्ली नगर सुवास, वतन है खास;
फाल्गुन मास अठाई आठैं ।
हों उनके नित कल्याण जो लिख-लिख बाटें।
अजी विक्रम शब्द उनीस, पै धर पैंतीस;
श्री जगदीश का ले लो शरणा।
कहैं दास नैन सुख दोष पै दृष्टि न करना॥
निर्नेम नाम बिन हमें जगत क्या करना ॥ मैं लूंगी. ॥