श्रुतपंचमी-पर्व की पद्यबद्ध प्राकृत- हिन्दी कथा
लेखक :-- प्रो. सुदीप कुमार जैन, नई दिल्ली
जयदु जय सुद-साधणा।।1।।
(जय हो जय हो, जय ही जय हो,
जयवंत हो श्रुतदेवता।
जय हो जय हो, जय ही जय हो,
जयवंत हो श्रुत-साधना।।)
चंदगुहम्मि एगदिवसे,
णिसाए चरिम-पहरे।
आयरिय-धरसेण-णामो,
संलीणो सुद-चिंतणे।।
जयदु जय…।।2।।
(चंद्रगुफा में एक दिन,
अंतिम-प्रहर में रात्रि के।
आचार्य श्री धरसेन नामक,
श्रुतचिंतन में लीन थे।।
जय हो जय हो…)
सासण-णायग-महावीरा,
पवट्टिदा सुद-परंपरा।
पमादादि-किद-दोसेहिं।
कमसो खीणत्तणं गदा।।
जयदु जय…।।3।।
(शासन-नायक महावीर से,
प्रवर्तित जो श्रुत-परम्परा।
प्रमादादि-कृत दोषों से वह,
क्रमशः क्षीण होती गयी।।
जय हो जय हो…)
अदो धरसेण-आयरियेण,
रक्खणत्थं चिंता किदा।
तह य जुग-पडिक्कमणे,
सूयणा एगा पेसिदा।।
जयदु जय…।।4।।
(इसीलिये धरसेनाचार्य को,
रक्षार्थ श्रुत-चिंता हुई।
और फिर युग-प्रतिक्रमण में,
एक सूचना भेज दी।।
जय हो जय हो…)
अंध-देसे महिम-णयरी,
वेणा-णदी-तीरे संठिदा।
तत्थ एदं पडिक्कमणं,
आसी खु आयोजिदं।।
जयदु जय…।।5।।
(आंध्र-देश की महिमानगरी,
वेण्या-नदी के तीर-स्थित।
वहीं यह युग-प्रतिक्रमण,
था जो आयोजित हुआ।।
जय हो जय हो…)
अरिहदबली आयरियो,
एत्थ पमुहत्तं गदा।
तेसिं समीवे सूयणा सा,
धरसेणायरियस्स सूचिदा।।
जयदु जय…।।6।।
(अर्हद्बलि-आचार्य-भगवन्,
उस सभा के प्रमुख थे।
उनकी सन्निधि में सूचना वह,
धरसेनाचार्य की कही गयी।।
जय हो जय हो…)
तेणायरियेण हि तक्खणं,
समागदा साहु-समिक्खिदा।
तेसु णरवाहण-सुबुद्धी ,
मुणिवरा जोग्गतमा ठिदा।।
जयदु जय…।।7।।
(उन आचार्य श्री ने तत्क्षण ही,
समागत-साधु हुये विचारित।
उनमें से नरवाहन औ’ सुबुद्धि,
दो मुनिवर तय हुये योग्यतम।।
जय हो जय हो…)
तक्खणं ते दुवे वि पेसिदा ,
धरसेणायरियस्स संणिहे।
सुह-तिहि-णक्खत्ते च ते,
दुवे तत्थ चंदगुहम्मि संपदा।।
जयदु जय…।।8।।
(वे दोनों ही तत्क्षण गये भेजे,
धरसेनाचार्य की सन्निधि में।
शुभ-तिथि अरु नक्षत्र में वे,
दोनों पहुँचे थे चंद्रगुफा में।।
जय हो जय हो…)
तओ पुव्वं आयरियेण हि,
सव्व-णादं सिविणये।
दो सेद-उण्णद-पुट्ठ-वसहा,
आगंतुआ हि सो दिट्ठा ।।
जयदु जय…।।9।।
(आचार्यवर ने पहले ही सब,
जान लिया था स्वप्न-माँहिं।
दो श्वेत, उन्नत-पृष्ठ-वृषभ,
आते हुये देखे थे उन्होंने।।
जय हो जय हो…)
तदो वि जिणसुद-परंपराए,
रक्खणत्थं आयरियेण।
मंत-दाण-विहि-परिक्खिदा,
ते दो वि णव-मुणिपुंगवा।।
जयदु जय…।।10।।
(फिर भी जिनश्रुत-परम्परा की,
रक्षा-हित उन आचार्यवर ने।
मंत्र देकर ली परीक्षा,
उन दोनों ही मुनिवरों की।।
जय हो जय हो…)
उत्तिण्ण-परिक्खा ते दो वि,
आयरिय-संमुहा उवत्थिदा।
एदम्हि वुत्तंते हि दोण्हं,
णव-अहिधाणेहिं संथुदा।।
जयदु जय…।।11।।
(परीक्षा उत्तीर्ण करके मुनि वे ,
पहुँच गये आचार्य-सम्मुख ।
इसी घटनाक्रम में दोनों ,
नये नामों से संस्तुत हुये।।
जय हो जय हो…)
पुप्फदंतो भूदबली च,
णाम-णव ते संपदा।
अदो दिव्व-जणेहिं ते,
सुत्त-रक्खत्थं संथुदा।।
जयदु जय…।।12।।
(पुष्पदंत अरु भूतबलि ये,
नये नाम पाये थे उन्होंने।
इसीलिये देवताओं से वे,
श्रुत-रक्षार्थ वे संस्तुत हुये।।
जय हो जय हो…)
अह आयरियेहिं दिक्खिदा,
सुदणाणस्स पदाणेण ते।
सुद-दाण पच्छा पेसिदा,
ते दो वि दूरादिदूरे मुणिवरा।।
जयदु जय…।।13।।
(तब आचार्य द्वारा दी गयी,
शुभ-दीक्षा श्रुतज्ञान की।
श्रुतदान पश्चात् प्रेषित हुये,
वे दोनों दूरातिदूर तक।।
जय हो जय हो…)
तत्तो गमिऊण ते मुणिवरा,
दो-दिणेसु पत्ता अंकलेसरे।
तत्थ तेहिं थाविदो सुह,
पाउसजोगो सुद-रक्खणे।।
जयदु जय…।।14।।
(वहाँ से करके विहार-चर्या,
अंकलेश्वर पहुँचे दो दिनों में ।
और वहाँ पर किया स्थापित,
शुभ-वर्षायोग श्रुत-रक्षणार्थ।।
जय हो जय हो…)
कालक्कमेण य तेहिं मुणीहिं,
लिपिकिदं अह सुद-रक्खिदं।
थोवं पुप्फदंतायरियेण लिहिदं,
पुण भूदबलिणा बहुसंखगं।।
जयदु जय जय…।।15।।
(कालक्रम से मुनिवरों ने,
लिपिबद्ध कर श्रुत रक्षितम्।
अल्प पुष्पदंताचार्यवर ने,
अधिक लिखा भूतबलि आर्य ने।।
जय हो जय हो…)
छक्खंडागम-णाम सुदं एसो,
संपुण्णिदो भवि-हिदगरो।
जेट्ठमासे सुक्क-पक्खे ,
सुह-पंचमीए तिहीए।।
जयदु जय जय …।।16।।
(‘षट्खंडागम’ नाम का यह श्रुत,
भवि-जन-हितकारी संपूर्ण हुआ।
ज्येष्ठ मास के शुक्लपक्ष की,
मंगलमय पंचमी की तिथि को।।
जय हो जय हो…)
सुद-रक्खिदो इम जाणिदूण य,
महुच्छवो सव्वेहिं आयोजिदो।
“जयदु सुददेवदा” घोसो तस्सिं ,
य गुंजिदो संपुण्णे णहमंडले।।
जयदु जय जय…।।17।।
(श्रुत हुआ रक्षित जानकर यह,
महोत्सव सबने आयोजित किया।
“श्रुतदेवता की जय हो” ऐसा ,
जयघोष नभमंडल में गुँजा दिया।।
जय हो जय हो…)
सुदपंचमीए एस पव्वो ,
लोगे पवट्टिदो य तदो पहुदी।
सव्वे वि सुदभत्ता अज्ज वि,
सुद-पूजयंति अस्सिं दिणे।।
जयदु जय जय…।।18।।
(श्रुतपंचमी की पर्व शुभ यह,
तभी से लोक में प्रवर्तित हुआ।
आज भी सब श्रुतभक्त मिलकर,
इस दिन श्रुत-महोत्सव करें।।
जय हो जय हो…)
प्रायः यह देखा जाता है कि प्राकृतभाषा में कितना ही सरल काव्य बनाया जाये, किन्तु आधुनिकजनों को उसके समानान्तर हिन्दीभाषा के रूप यदि नहीं दिये जायें, तो सरल होते हुये भी उन्हें समझने में कुछ लोगों को कठिनाई होती ही है। अतः मैंने इस प्राकृतभाषा निबद्ध गीति के साथ उसके समानान्तर हिन्दीभाषा की गीतिका भी कोष्ठक में प्रस्तुत की है।