(प्रवचनसार-१)
सुर-असुर-इन्द्र-नरेन्द्र-वंदित, कर्ममल निर्मल करन I
वृषतीर्थ के करतार श्री, वर्द्धमान जिन शत-शत नमन ॥१॥
(मोक्षपाहुड-१०४)
अरहंत सिद्धाचार्य पाठक, साधु हैं परमेष्ठि पण I
सब आतमा की अवस्थाएँ, आतमा ही है शरण ॥२॥
(मोक्षपाहुड-१०५)
सम्यक् सुदर्शन ज्ञान तप, समभाव सम्यक् आचरण I
सब आतमा की अवस्थाएँ, आतमा ही है शरण ॥३॥
(नियमसार-४४)
निर्ग्रन्थ है नीराग है, नि:शल्य है निर्दोष है I
निर्मान-मद यह आतमा, निष्काम है निष्क्रोध है ॥४॥
(नियमसार-४३)
निर्दण्ड है निर्द्वन्द्व है, यह निरालम्बी आतमा I
निर्देह है निर्मूढ है, निर्भयी निर्मम आतमा ॥५॥
(समयसार-३८)
मैं एक दर्शन-ज्ञानमय, नित शुद्ध हूँ रूपी नहीं I
ये अन्य सब परद्रव्य, किंचित् मात्र भी मेरे नहीं ॥६॥
(समयसार-४९)
चैतन्य गुणमय आतमा, अव्यक्त अरस अरूप है I
जानो अलिंगग्रहण इसे, यह अनिर्दिष्ट अशब्द है ॥७॥
(समयसार-२९६)
जिस भाँति प्रज्ञाछैनी से, पर से विभक्त किया इसे I
उस भाँति प्रज्ञाछैनी से ही, अरे ग्रहण करो इसे ॥८॥
(समयसार-२८६)
जो जानता मैं शुद्ध हूँ, वह शुद्धता को प्राप्त हो I
जो जानता अविशुद्ध वह, अविशुद्धता को प्राप्त हो ॥९॥
(प्रवचनसार-२३)
यह आत्म ज्ञानप्रमाण है, अर ज्ञान ज्ञेयप्रमाण है I
हैं ज्ञेय लोकालोक इस विधि, सर्वगत यह ज्ञान है ॥१०॥
(समयसार-१६)
चारित्र दर्शन ज्ञान को, सब साधुजन सेवें सदा I
ये तीन ही हैं आतमा, बस कहे निश्चयनय सदा ॥११॥
(समयसार-१७)
‘यह नृपति है’ यह जानकर, अर्थार्थिजन श्रद्धा करें I
अनुचरण उसका ही करें, अति प्रीति से सेवा करें ॥१२॥
(समयसार-१८)
यदि मोक्ष की है कामना, तो जीवनृप को जानिए I
अति प्रीति से अनुचरण करिये, प्रीति से पहिचानिए ॥१३॥
(अष्टपाहुड-२६)
जो भव्यजन संसार-सागर, पार होना चाहते I
वे कर्मईंधन-दहन निज, शुद्धातमा को ध्यावते ॥१४॥
(समयसार-४१२)
मोक्षपथ में थाप निज को, चेतकर निज ध्यान धर I
निज में ही नित्य विहार कर, पर द्रव्य में न विहार कर ॥१५॥
(समयसार-१५५)
जीवादि का श्रद्धान सम्यक्, ज्ञान सम्यग्ज्ञान है I
रागादि का परिहार चारित, यही मुक्तिमार्ग है ॥१६॥
(मोक्षपाहुड-३८)
तत्त्वरुचि सम्यक्त्व है, तत्ग्रहण सम्यग्ज्ञान है I
जिनदेव ने ऐसा कहा, परिहार ही चारित्र है ॥१७॥
(मोक्षपाहुड-३७)
जानना ही ज्ञान है, अरु देखना दर्शन कहा I
पुण्य-पाप का परिहार चारित्र, यही जिनवर ने कहा ॥१८॥
(शीलपाहुड-५)
दर्शन रहित यदि वेष हो, चारित्र विरहित ज्ञान हो I
संयम रहित तप निरर्थक, आकाश-कुसुम समान हो ॥१९॥
(शीलपाहुड-६)
दर्शन सहित हो वेष चारित्र, शुद्ध सम्यग्ज्ञान हो I
संयम सहित तप अल्प भी हो, तदपि सुफल महान हो ॥२०॥
(समयसार-१५२)
परमार्थ से हों दूर पर, तप करें व्रत धारण करें I
सब बालतप है बालव्रत, वृषभादि सब जिनवर कहें ॥२१॥
(समयसार-१५३)
व्रत नियम सब धारण करें, तप शील भी पालन करें I
पर दूर हों परमार्थ से ना, मुक्ति की प्राप्ति करें ॥२२॥
(दर्शनपाहुड-२२)
जो शक्य हो वह करें, और अशक्य की श्रद्धा करें I
श्रद्धान ही सम्यक्त्व है, इस भांति सब जिनवर कहें ॥२३॥
(दर्शनपाहुड-२०)
जीवादि का श्रद्धान ही, व्यवहार से सम्यक्त्व है I
पर नियत नय से आत्म का, श्रद्धान ही सम्यक्त्व है ॥२४॥
(मोक्षपाहुड-१४)
नियम से निज द्रव्य में, रत श्रमण सम्यकवंत हैं I
सम्यक्त्व-परिणत श्रमण ही, क्षय करें करमानन्त हैं ॥२५॥
(मोक्षपाहुड-८८)
मुक्ति गये या जायेंगे, माहात्म्य है सम्यक्त्व का I
यह जान लो हे भव्यजन, इससे अधिक अब कहें क्या ॥२६॥
(मोक्षपाहुड-८१)
वे धन्य हैं सुकृतार्थ हैं, वे शूर नर पण्डित वही I
दुःस्वप्न में सम्यक्त्व को, जिनने मलीन किया नहीं ॥२७॥
(समयसार-१३)
चिदचिदास्रव पाप-पुण्य, शिव बंध संवर निर्जरा I
तत्वार्थ ये भूतार्थ से, जाने हुए सम्यक्त्व हैं ॥२८॥
(समयसार-११)
शुद्धनय भूतार्थ है, अभूतार्थ है व्यवहारनय I
भूतार्थ की ही शरण गह, यह आतमा सम्यक् लहे ॥२९॥
(समयसार-८)
अनार्य भाषा के बिना, समझा सके न अनार्य को I
बस त्योंहि समझा सके ना, व्यवहार बिन परमार्थ को ॥३०॥
(समयसार-२७)
देह-चेतन एक हैं, यह वचन है व्यवहार का I
ये एक हो सकते नहीं, यह कथन है परमार्थ का ॥३१॥
(समयसार-७)
दृग ज्ञान चारित जीव के हैं, यह कहा व्यवहार से I
ना ज्ञान दर्शन चरण ज्ञायक, शुद्ध है परमार्थ से ॥३२॥
(मोक्षपाहुड-३१)
जो सो रहा व्यवहार में, वह जागता निज कार्य में I
जो जागता व्यवहार में, वह सो रहा निज कार्य में ॥३३॥
(समयसार-२७२)
इस ही तरह परमार्थ से, कर नास्ति इस व्यवहार की I
निश्चयनयाश्रित श्रमणजन, प्राप्ति करें निर्वाण की ॥३४॥
(दर्शनपाहुड-४२)
सद्धर्म का है मूल दर्शन, जिनवरेन्द्रों नें कहा I
हे कानवालों सुनों, दर्शन-हीन वंदन योग्य ना ॥३५॥
(दर्शनपाहुड-८)
जो ज्ञान-दर्शन-भ्रष्ट हैं, चारित्र से भी भ्रष्ट हैं I
वे भ्रष्ट करते अन्य को, वे भ्रष्ट से भी भ्रष्ट हैं ॥३६॥
(दर्शनपाहुड-३)
दृग-भ्रष्ट हैं वे भ्रष्ट हैं, उनको कभी निर्वाण ना I
हों सिद्ध चारित्र-भ्रष्ट पर, दृग-भ्रष्ट को निर्वाण ना ॥३७॥
(दर्शनपाहुड-१३)
जो लाज गारव और भयवश, पूजते दृग-भ्रष्ट को I
की पाप की अनुमोदना, ना बोधि उनको प्राप्त हो ॥३८॥
(दर्शनपाहुड-१२)
चाहें नमन दृगवंत से, पर स्वयं दर्शनहीन हों I
है बोधिदुर्लभ उन्हें भी, वे भी वचन-पग हीन हों ॥३९॥
(दर्शनपाहुड-५)
यद्यपि करें वे उग्र तप, शत-सहस-कोटी वर्ष तक I
पर रतनत्रय पावें नहीं, सम्यक्त्व-विरहित साधु सब ॥४०॥
(दर्शनपाहुड-१०)
जिस तरह द्रुम परिवार की, वृद्धि न हो जड़ के बिना I
बस उसतरह ना मुक्ति हो, जिनमार्ग में दर्शन बिना ॥४१॥
(दर्शनपाहुड-२६)
असंयमी न वन्द्य है, दृगहीन वस्त्रविहीन भी I
दोनों ही एक समान हैं, दोनों ही संयत हैं नहीं ॥४२॥
(दर्शनपाहुड-२७)
ना वंदना हो देह की, कुल की नहीं ना जाति की I
कोई करे क्यों वंदना, गुण-हीन श्रावक-साधु की ॥४३॥
(समयसार-१९)
मैं कर्म हूँ नोकर्म हूँ, या हैं हमारे ये सभी I
यह मान्यता जब तक रहे, अज्ञानी हैं तब तक सभी ॥४४॥
(समयसार-७५)
करम के परिणाम को, नोकरम के परिणाम को I
जो ना करे बस मात्र जाने, प्राप्त हो सद्ज्ञान को ॥४५॥
(समयसार-२४७)
मैं मारता हूँ अन्य को, या मुझे मारें अन्यजन
यह मान्यता अज्ञान है, जिनवर कहें हे भव्यजन ॥४६॥
(समयसार-२४८)
निज आयुक्षय से मरण हो, यह बात जिनवर ने कही I
तुम मार कैसे सकोगे जब, आयु हर सकते नहीं? ॥४७॥
(समयसार-२४९)
निज आयुक्षय से मरण हो, यह बात जिनवर ने कही I
वे मरण कैसे करें तब जब, आयु हर सकते नहीं? ॥४८॥
(समयसार-२५०)
मैं हूँ बचाता अन्य को, मुझको बचावे अन्यजन I
यह मान्यता अज्ञान है, जिनवर कहें हे भव्यजन ॥४९॥
(समयसार-२५१)
सब आयु से जीवित रहें, यह बात जिनवर ने कही I
जीवित रखोगे किस तरह, जब आयु दे सकते नहीं? ॥५०॥
(समयसार-२५२)
सब आयु से जीवित रहें, यह बात जिनवर ने कही I
कैसे बचावे वे तुझे, जब आयु दे सकते नहीं? ॥५१॥
(समयसार-२५३)
मैं सुखी करता दुःखी करता, हूँ जगत में अन्य को I
यह मान्यता अज्ञान है, क्यों ज्ञानियों को मान्य हो? ॥५२॥
(समयसार-२६२)
मारो न मारो जीव को, हो बंध अध्यवसान से I
यह बंध का संक्षेप है, तुम जान लो परमार्थ से ॥५३॥
(प्रवचनसार-२१७)
प्राणी मरें या न मरें, हिंसा अयत्नाचार से I
तब बंध होता है नहीं, जब रहें यत्नाचार से ॥५४॥
(पंचास्तिकाय-१०)
उत्पाद-व्यय-ध्रुवयुक्त सत्, सत् द्रव्य का लक्षण कहा I
पर्याय-गुणमय द्रव्य है, यह वचन जिनवर ने कहा ॥५५॥
(पंचास्तिकाय-१२)
पर्याय बिन ना द्रव्य हो, ना द्रव्य बिन पर्याय ही I
दोनों अनन्य रहे सदा, यह बात श्रमणों ने कही ॥५६॥
(पंचास्तिकाय-१३)
द्रव्य बिन गुण हों नहीं, गुण बिना द्रव्य नहीं बने I
गुण द्रव्य अव्यतिरिक्त हैं, यह कहा जिनवर देव ने ॥५७॥
(पंचास्तिकाय-१५)
उत्पाद हो न अभाव का, ना नाश हो सद्भाव में I
उत्पाद-व्यय करते रहें, सब द्रव्य गुण-पर्याय में ॥५८॥
(प्रवचनसार-३७)
असद्भूत हों सद्भूत हों, सब द्रव्य की पर्याय सब I
सद्ज्ञान में वर्तमानवत ही, हैं सदा वर्तमान सब ॥५९॥
(प्रवचनसार-३८)
पर्याय जो अनुत्पन्न हैं, या नष्ट जो हो गई हैं I
असद्भावी वे सभी, पर्याय ज्ञान प्रत्यक्ष हैं ॥६०॥
(प्रवचनसार-३९)
पर्याय जो अनुत्पन्न हैं, या हो गई हैं नष्ट जो I
फिर ज्ञान की क्या दिव्यता, यदि ज्ञात होवे नहीं वो? ॥६१॥
(सूत्रपाहुड-१)
अरहंत-भासित ग्रथित-गणधर, सूत्र से ही श्रमणजन I
परमार्थ का साधन करें, अध्ययन करो हे भव्यजन ॥६२॥
(सूत्रपाहुड-३)
डोरा सहित सुइ नहीं खोती, गिरे चाहे वन भवन I
संसार-सागर पार हों, जिनसूत्र के ज्ञायक श्रमण ॥६३॥
(प्रवचनसार-८६)
तत्वार्थ को जो जानते, प्रत्यक्ष या जिनशास्त्र से I
दृगमोह क्षय हो इसलिए, स्वाध्याय करना चाहिए ॥६४॥
(प्रवचनसार-२३५)
जिन-आगमों से सिद्ध हों, सब अर्थ गुण-पर्यय सहित I
जिन-आगमों से ही श्रमणजन, जानकर साधें स्वहित ॥६५॥
(प्रवचनसार-२३२)
स्वाध्याय से जो जानकर, निज अर्थ में एकाग्र हैं I
भूतार्थ से वे ही श्रमण, स्वाध्याय ही बस श्रेष्ठ है ॥६६॥
(प्रवचनसार-२३३)
जो श्रमण आगमहीन हैं, वे स्वपर को नहिं जानते I
वे कर्मक्षय कैसे करें जो, स्वपर को नहिं जानते? ॥६७॥
(प्रवचनसार-८३)
व्रत सहित पूजा आदि सब, जिन धर्म में सत्कर्म हैं I
दृगमोह-क्षोभ विहीन निज, परिणाम आतमधर्म हैं ॥६८॥
(प्रवचनसार-७)
चारित्र ही बस धर्म है, वह धर्म समताभाव है I
दृगमोह - क्षोभ विहीन निज, परिणाम समताभाव है ॥६९॥
(प्रवचनसार-११)
प्राप्त करते मोक्षसुख, शुद्धोपयोगी आतमा I
पर प्राप्त करते स्वर्गसुख, हि शुभोपयोगी आतमा ॥७०॥
(प्रवचनसार-२४५)
शुभोपयोगी श्रमण हैं, शुद्धोपयोगी भी श्रमण I
शुद्धोपयोगी निरास्रव हैं, आस्रवी हैं शेष सब ॥७१॥
(प्रवचनसार-२४१)
कांच-कंचन बन्धु-अरि, सुख-दुःख प्रशंसा-निन्द में I
शुद्धोपयोगी श्रमण का, समभाव जीवन-मरण में ॥७२॥
(भावपाहुड-१२७)
भावलिंगी सुखी होते, द्रव्यलिंगी दुःख लहें I
गुण-दोष को पहिचान कर सब, भाव से मुनि पद गहें ॥७३॥
(भावपाहुड-७३)
मिथ्यात्व का परित्याग कर, हो नग्न पहले भाव से I
आज्ञा यही जिनदेव की, फिर नग्न होवे द्रव्य से ॥७४॥
(भावपाहुड-६८)
जिन भावना से रहित मुनि, भव में भ्रमें चिरकाल तक I
हों नगन पर हों बोधि-विरहित, दुःख लहें चिरकाल तक ॥७५॥
(भावपाहुड-४) वस्त्रादि सब परित्याग कोड़ा, कोडि वर्षों तप करें I
पर भाव बिन ना सिद्धि हो, सत्यार्थ यह जिनवर कहें ॥७६॥
(भावपाहुड-६७)
नारकी तिर्यंच आदिक, देह से सब नग्न हैं I
सच्चे श्रमण तो हैं वही, जो भाव से भी नग्न हैं ॥७७॥
(सूत्रपाहुड-१८)
जन्मते शिशुवत अकिंचन, नहीं तिलतुष हाथ में I
किंचित् परिग्रह साथ हो तो, श्रमण जाँय निगोद में ॥७८॥
(लिंगपाहुड-५)
जो आर्त होते जोड़ते, रखते रखाते यत्न से I
वे पाप मोहितमती हैं, वे श्रमण नहिं तिर्यंच हैं ॥७९॥
(लिंगपाहुड-१७)
राग करते नारियों से, दूसरों को दोष दें I
सद्ज्ञान-दर्शन रहित हैं, वे श्रमण नहिं तिर्यंच हैं ॥८०॥
(लिंगपाहुड-२)
श्रावकों में शिष्यगण में, नेह रखते श्रमण जो I
हीन विनयाचार से, वे श्रमण नहिं तिर्यंच हैं ॥८१॥
(लिंगपाहुड-१८)
पार्श्वस्थ से भी हीन जो, विश्वस्त महिला वर्ग में I
रत ज्ञान दर्शन चरण दें, वे नहीं पथ अपवर्ग में ॥८२॥
(लिंगपाहुड-२०)
धर्म से हो लिंग केवल, लिंग से न धर्म हो I
समभाव को पहिचानिये, द्रव्यलिंग से क्या कार्य हो? ॥८३॥
(समयसार-१५०)
विरक्त शिवरमणी वरें, अनुरक्त बाँधे कर्म को I
जिनदेव का उपदेश यह, मत कर्म में अनुरक्त हो ॥८४॥
(समयसार-१५४)
परमार्थ से हैं बाह्य, वे जो मोक्षमग नहीं जानते I
अज्ञान से भवगमन-कारण, पुण्य को हैं चाहते ॥८५॥
(समयसार-१४५)
सुशील है शुभकर्म और, अशुभ करम कुशील है I
संसार के हैं हेतु वे, कैसे कहें कि सुशील हैं? ॥८६॥
(समयसार-१४६)
ज्यों लोह बेड़ी बाँधती, त्यों स्वर्ण की भी बाँधती I
इस भांति ही शुभ-अशुभ दोनों, कर्म बेड़ी बाँधती ॥८७॥
(समयसार-१४७)
दु:शील के संसर्ग से, स्वाधीनता का नाश हो I
दु:शील से संसर्ग एवं, राग को तुम मत करो ॥८८॥
(प्रवचनसार-७७)
पुण्य-पाप में अन्तर नहीं है, जो न माने बात ये I
संसार-सागर में भ्रमे, मद-मोह से आच्छन्न वे ॥८९॥
(प्रवचनसार-७६)
इन्द्रियसुख सुख नहीं दुख है, विषम बाधा सहित है I
है बंध का कारण दुखद, परतंत्र है विच्छिन्न है ॥९०॥
(नियमसार-१२०)
शुभ-अशुभ रचना वचन वा, रागादिभाव निवारिके I
जो करें आतम ध्यान नर, उनके नियम से नियम है ॥९१॥
(नियमसार-३)
सद्-ज्ञान-दर्शन-चरित ही, है ‘नियम’ जानो नियम से I
विपरीत का परिहार होता, ‘सार’ इस शुभ वचन से ॥९२॥
(नियमसार-२)
जैन शासन में कहा, है मार्ग एवं मार्गफल I
है मार्ग मोक्ष-उपाय एवं, मोक्ष ही है मार्गफल ॥९३॥
(नियमसार-१५६)
है जीव नाना कर्म नाना, लब्धि नानाविध कही I
अतएव वर्जित वाद है, निज-पर समय के साथ भी ॥९४॥
(नियमसार-१५७)
ज्यों निधि पाकर निज वतन में, गुप्त रह जन भोगते I
त्यों ज्ञानिजन भी ज्ञाननिधि, परसंग तज के भोगते ॥९५॥
(नियमसार-१८६)
यदि कोई ईर्ष्याभाव से, निन्दा करे जिनमार्ग की I
छोड़ो न भक्ति वचन सुन, इस वीतरागी मार्ग की ॥९६॥
(नियमसार-१३६)
जो थाप निज को मुक्तिपथ, भक्ति निवृत्ती की करें I
वे जीव निज असहाय गुण, सम्पन्न आतम को वरें ॥९७॥
(नियमसार-१३५)
मुक्तिगत नरश्रेष्ठ की, भक्ति करें गुणभेद से I
वह परमभक्ति कही है, जिनसूत्र में व्यवहार से ॥९८॥
(प्रवचनसार-८०)
द्रव्य गुण पर्याय से, जो जानते अरहंत को I
वे जानते निज आतमा, दृगमोह उनका नाश हो ॥९९॥
(प्रवचनसार-८२)
सर्व ही अरहंत ने विधि, नष्ट कीने जिस विधी I
सबको बताई वही विधि, हो नमन उनको सब विधी ॥१००॥
(प्रवचनसार-२७४)
है ज्ञान दर्शन शुद्धता, निज शुद्धता श्रामण्य है I
हो शुद्ध को निर्वाण, शत-शत बार उनको नमन है ॥१०१॥
Artist- Shri Kundkund Acharya & Dr. Hukamchand Bharill