श्रीमद् वादीभसिंह सूरी विरचित
क्षत्रचूडामणिः
(जीवंधर चरित्र)
प्रथमो लम्बः
श्रीपतिर्भगवान्पुष्याद् भक्तानां वः समीहितम्।
यद्भक्तिः शुल्कतामेति मुक्तिकन्याकरग्रहे॥१॥
अन्वयार्थ- (श्रीपतिः) अन्तरंग-बहिरंग लक्ष्मी के स्वामी (भगवान्) श्री जिनेन्द्रदेव (वः) आप (भक्तानां) भक्तों के (समीहितं) इच्छित कार्य को (पुष्यात्) पूर्ण करें। (यद् भक्तिः) जिन जिनेन्द्रदेव की भक्ति (मुक्तिकन्या-करग्रहे) मुक्तिरूपी कन्या के पाणिग्रहण में (शुल्कतां) मूल्यपने को (एति) प्राप्त होती है/धन की तरह सहायक होती है।
संक्षेपेण प्रवक्ष्यामि चरितं जीवकोद्भवम्।
पीयूषं न हि निःशेषं पिबन्नेव सुखायते॥२॥
अन्वयार्थ- {अहं} मैं वादीभसिंहसूरि (जीवकोद्भवं) जीवन्धर- स्वामी से उत्पन्न (चरितं) चरित्र को (संक्षेपेण) संक्षेपरूप से (प्रवक्ष्यामि) कहूँगा।
[अत्र नीतिः] (हि) क्योंकि (निःशेषं) सम्पूर्ण (पीयूषं) अमृत को (पिबन्) पीनेवाला (एव) पुरुष ही (सुखायते) सुखी होता हो (इति न) ऐसा नहीं है; किन्तु {स्वल्पं अपि पिबन् सुखायते} थोड़ा अमृत पीनेवाला पुरुष भी सुखी होता है।
श्रेणिक प्रश्नमुद्दिश्य सुधर्मो गणनायकः।
यथोवाच मयाप्येतदुच्यते मोक्षलिप्सया॥३॥
अन्वयार्थ- (सुधर्मः) सुधर्म नाम के (गणनायकः) गणधरदेव ने (श्रेणिकप्रश्नं) श्रेणिक राजा के प्रश्न का (उद्दिश्य) निमित्त पाकर (यथा) जैसा (उवाच) कहा है, (तथा मया अपि) वैसा मैं भी (मोक्ष-लिप्सया) मोक्ष की वांछा से इस चरित्र को (उच्यते) कहता हूँ।
इहास्ति भारते खण्डे जम्बूद्वीपस्य मण्डने।
मण्डलं हेमकोशाभं हेमाङ्गदसमाह्वयम्॥४॥
अन्वयार्थ- (इह) इस मध्यलोक में (जम्बूद्वीपस्य) जम्बूद्वीप के (मण्डने) भूषणस्वरूप (भारते) भरत (खण्डे) खण्ड में (हेमकोशाभं) स्वर्ण के खजाने के समान है आभा जिसकी ऐसा (हेमाङ्गदसमाह्वयं) हेमांगद नाम का (मण्डलं) देश (अस्ति) है।
तत्र राजपुरी नाम राजधानी विराजते।
राजराजपुरी-सृष्टौ स्रष्टुर्या मातृकायते॥५॥
अन्वयार्थ- (तत्र) उस देश में (राजपुरी नाम) राजपुरी नाम की (राजधानी) राजा की प्रधान नगरी (विराजते) सुशोभित है; (या) जो (स्रष्टुः) ब्रह्मा के (राजराजपुरीसृष्टौ) कुबेर की नगरी (अलकापुरी) की रचना में (मातृकायते) माता के सदृश आचरण करती है।
तस्यां सत्यन्धरो नाम राजाभूत्सत्यवाङ्मयः।
वृद्धसेवी विशेषज्ञो नित्योद्योगी निराग्रहः॥६॥
अन्वयार्थ- (तस्यां) उस नगरी में (सत्यवाङ्मयः) सच बोलनेवाले (वृद्धसेवी) वृद्धों की सेवा करनेवाले (विशेषज्ञः) विशेष कार्यों को जाननेवाले (नित्योद्योगी) निरन्तर उद्योग करनेवाले (निराग्रहः) हठ न करनेवाले (सत्यन्धरः नाम) सत्यन्धर नाम के (राजा) राजा (अभूत्) थे।
महिता महिषी तस्य विश्रुता विजयाख्यया।
विजयाद्विश्वनारीणां पातिव्रत्यादिभिर्गुणैः॥७॥
अन्वयार्थ- (तस्य) उन सत्यन्धर राजा की (महिता) बड़ी (महिषी) प्रसिद्ध पटरानी (विश्वनारीणां) सम्पूर्ण स्त्रियों को (पातिव्रत्यादिभिः) पातिव्रत्यादि (गुणैः) गुणों के द्वारा (विजयात्) जीतने से (विजयाख्यया) विजया नाम से (विश्रुता) प्रसिद्ध {आसीत्} थी।
सत्यप्यन्तःपुरस्त्रीणां समाजे राजवल्लभा।
सैवासीन्नापरा काचित् सौभाग्यं हि सुदुर्लभम्॥८॥
अन्वयार्थ- (अन्तःपुरस्त्रीणां) अन्तः पुर की स्त्रियों के (समाजे) समुदाय में अनेक रानियाँ (सति) होने पर (अपि) भी (सा) वह (एव) ही (राजवल्लभा) राजा की प्यारी (आसीत्) थी (अपरा) दूसरी (काचित्) कोई (न) नहीं।
[अत्र नीतिः] (हि) निश्चय से (सौभाग्यं) अच्छा भाग्य अर्थात् पतिप्रियत्व (सुदुर्लभं) बड़ा दुर्लभ है।
निष्कंटकाधिराज्योऽयं राजा राज्ञीमनारतम्।
रमयन्नान्यदज्ञासीत्प्राज्ञप्राग्रहरोऽपि सन्॥९॥
अन्वयार्थ- (निष्कंटकाधिराज्यः) निष्कंटक है राज्य जिनका ऐसे (अयं राजा) यह राजा (प्राज्ञप्राग्रहरः) विद्वानों में अग्रसर (सन् अपि) होते हुए भी (अनारतं) निरन्तर (राज्ञीं) रानी के साथ (रमयन्) रमण करते हुए (अन्यत्) अन्य कुछ (न) नहीं (अज्ञासीत्) जानते थे।
विषयासक्तचित्तानां गुणः को वा न नश्यति।
न वैदुष्यं न मानुष्यं नाभिजात्यं न सत्यवाक्॥१०॥
अन्वयार्थ- [अत्र नीतिः] (विषयासक्तचित्तानां) विषयों में है आसक्त चित्त जिनका ऐसे पुरुषों के (को वा) कौन से (गुणः) गुण (न) नहीं (नश्यति) नष्ट होते हैं? (तेषु) उनमें (न वैदुष्यं) न पण्डितपना (न मानुष्यं) न मनुष्यपना (न अभिजात्यं) न कुलीनता (न सत्यवाक्) न सच्चाई रहती है।
पराराधनजाद् दैन्यात्पैशून्यात्परिवादतः।
पराभवात्किमन्येभ्यो न विभेति हि कामुकः॥११॥
अन्वयार्थ- [अत्र नीतिः] (कामुकः) कामी पुरुष (पराराधनजात्) दूसरों की सेवा से उत्पन्न (दैन्यात्) दीनता से (पैशून्यात्) चुगलीपन से (परिवादतः) निन्दा से और (पराभवात्) तिरस्कार से (न) नहीं (विभेति) डरता है। (अन्येभ्यः) वह और कामों से (किं) क्या {भेष्यति} डरेगा?
पाकं त्यागं विवेकं च वैभवं मानितामपि।
कामार्ताः खलु मुञ्चन्ति किमन्यैः स्वञ्च जीवितम्॥१२॥
अन्वयार्थ- [अत्र नीतिः] (कामार्ताः) काम से पीड़ित पुरुष (पाकं) भोजन (त्यागं) दान (विवेकं) विवेक (वैभवं) सम्पत्ति (च) और (मानितां) पूज्यता (अपि) भी (खलु) निश्चय से (मुञ्चन्ति) छोड़ देते हैं (च अन्यैः किं) और तो क्या (स्वं जीवितं) अपने जीवन को (अपि) भी (मुञ्चन्ति) छोड़ देते हैं।
पुनरैच्छदयं दातुं काष्ठाङ्गाराय काश्यपीम्।
अविचारितरम्यं हि रागान्धानां विचेष्टितम्॥१३॥
अन्वयार्थ- (पुनः) पश्चात् (अयं) राजा सत्यन्धर ने (काष्ठाङ्गाराय) काष्ठांगार के लिए (काश्यपीं) राज्य (दातुं) देने की (ऐच्छत्) इच्छा की।
[अत्र नीतिः] (हि) निश्चय से (रागान्धानां) राग से अन्धे पुरुषों की (विचेष्टितं) चेष्टाएँ (अविचारितरम्यं) बिना विचार के ही सुन्दर लगती हैं।
तावता तं समभ्येत्य मन्त्रिमुख्या अबूबुधन्।
देव देवैरपि ज्ञातं विज्ञाप्यं श्रूयतामिदम्॥१४॥
अन्वयार्थ- (तावता) उसीसमय (मन्त्रिमुख्याः) प्रधानमन्त्री ने (तं) उन राजा के (समभ्येत्य) समीप आकर (अबूबुधन्) समझाते हुए कहा-(देव) हे राजन! (देवैः) यद्यपि आपके द्वारा (ज्ञातं) जानी हुई (अपि) भी (इदं विज्ञाप्यं) इस जानने योग्य विज्ञप्ति को (श्रूयतां) आप ध्यान से सुनें।
हृदयं च न विश्वास्यं राजभिः किं परो नरः।
किन्तु विश्वस्तवद्दृश्यो नटायन्ते हि भूभुजः॥१५॥
अन्वयार्थ- (राजभिः) राजा लोग (हृदयं) अपने हृदय का (च) भी (न विश्वास्यं) विश्वास नहीं करते हैं (परः नरः किं विश्वास्यः) दूसरे मनुष्य का तो क्या विश्वास करेंगे; (किन्तु) किन्तु (परः नरः) दूसरे मनुष्य को (विश्वस्तवत्) विश्वस्त की तरह (दृश्यः) दिखते हैं।
[अत्र नीतिः] (हि) निश्चय से (भूभुजः) राजा लोग (नटायन्ते) नट के समान आचरण करते हैं।
परस्पराविरोधेन त्रिवर्गो यदि सेव्यते।
अनर्गलमतः सौख्यं अपवर्गोप्यनुक्रमात्॥१६॥
अन्वयार्थ- [अत्र नीतिः] (यदि) अगर (परस्पराविरोधेन) एक-दूसरे के विरोध के बिना (त्रिवर्गः) धर्म, अर्थ, काम इन तीन वर्गों का (सेव्यते) सेवन किया जाए (अतः) तो (अनर्गलं) बिना रुकावट के (सौख्यं) सुख और (अनक्रमात्) अनुक्रम से (अपवर्गः) मोक्ष (अपि) भी {भवति} होता है।
ततस्त्याज्यौ न धर्मार्थौ राजभिः सुखकाम्यया।
अदः काम्यति देवश्चेदमूलस्य कुतः सुखम्॥१७॥
अन्वयार्थ- (ततः) इसलिए (राजभिः) राजाओं को (सुख-काम्यया) सुख प्राप्त करने की वांछा से (धर्मार्थौ) धर्म और अर्थ को (न) नहीं (त्याज्यौ) छोड़ना चाहिए। (चेत् देवः) यदि आप (अदः) काम/सुख की (काम्यति) इच्छा करते हैं तो आपको भी धर्म व अर्थ को नहीं छोड़ना चाहिए।
[अत्र नीतिः] (अमूलस्य कुतः सुखं) बिना कारण के सुख कैसे हो सकता है?
नाशिनं भाविनं प्राप्यं प्राप्ते च फलसन्ततिम्।
विचार्य्यैव विधातव्यमनुतापोऽन्यथा भवेत्॥१८॥
अन्वयार्थ- [अत्र नीतिः] (प्राप्यं) प्राप्त करने योग्य वस्तु (नाशिनं) नाश होनेवाली है अथवा (भाविनं) उपलब्ध रहनेवाली है (च) और (प्राप्ते) प्राप्त होने पर (फलसन्ततिं) फलों की परम्परा का (विचार्य्य) विचार करके (एव) ही (विधातव्यं) कोई काम करना चाहिए, (अन्यथा) इसके विपरीत करने से (अनुतापः) पश्चात्ताप (भवेत्) करना पड़ता है।
इति प्रबोधितोऽप्येष धुरि राज्ञां न्यवेशयत्।
काष्ठाङ्गारमहोमोहात् बुद्धिः कर्मानुसारिणी॥१९॥
अन्वयार्थ- (इति) इसप्रकार (प्रबोधितः) उपदेशित (अपि) भी (एषः) इस राजा ने (अहो) खेद है कि (मोहात्) मोह से (काष्ठाङ्गारं) काष्ठांगार को (राज्ञां धुरि) राज्य के प्रमुख पद पर (न्यवेशयत्) बिठाया है।
[अत्र नीतिः] (बुद्धिः) बुद्धि (कर्मानुसारिणी) कर्म के अनुसार {भवति} होती है।
विषयान्धविचारेण विरक्तानां नृपस्य तु।
प्रकृष्यमाणरागेण कालो विलयमीयिवान्॥२०॥
अन्वयार्थ- (विरक्तानां) विषयों से विरक्त पुरुषों का (कालः) समय (विषयान्धविचारेण) विषयान्धता से अर्थात् विषयों से विरक्त रहकर (विलयं) व्यतीत (ईयिवान्) होता था (तु) और (नृपस्य) राजा का (कालः) समय (प्रकृष्यमाणरागेण) विषयों में बढ़ते हुए राग से (विलयं ईयिवान्) बीतता था।
सा तु निद्रावती स्वप्नमद्राक्षीत्क्षणदाक्षये।
अस्वप्नपूर्वं हि जीवानां न हि जातु शुभाशुभम्॥२१॥
अन्वयार्थ- (तु) इसके अनन्तर (निद्रावती सा) नींद में सोई हुई उस विजया रानी ने (क्षणदाक्षये) रात्रि के अन्तिम समय में (स्वप्नं) स्वप्न (अद्राक्षीत्) देखा।
[अत्र नीतिः] (हि) निश्चय से (जीवानां) मनुष्यों के (अस्वप्नपूर्वं) बिना स्वप्न के (जातु) कभी भी (शुभाशुभं) शुभ और अशुभ कार्यों का प्रादुर्भाव (न) नहीं {भवति} होता है।
वैभातिकविधेरन्ते विभोरन्तिकमीयुषी।
अर्धासननिविष्टेयमभाषिष्ट च भूभुजः॥२२॥
अन्वयार्थ- (वैभातिकविधेः) प्रातःकाल सम्बन्धी शौचादि कार्य के (अन्ते) अनन्तर (इयं) यह रानी (विभोः) अपने पति के (अन्तिकं) समीप (ईयुषी) आकर (अर्धासननिविष्टा) आधे आसन पर बैठकर (भूभुजः) राजा से अपने देखे हुए स्वप्नों के बारे में (अभाषिष्ट) बोली।
श्रुत्वा स्वप्नत्रयं राजा ज्ञात्वा च फलमक्रमात्।
प्रतिवक्तुमुपादत्त किञ्चिन्न्यञ्चन्मना भवन्॥२३॥
अन्वयार्थ- (राजा) राजा सत्यन्धर (स्वप्नत्रयं) तीनों स्वप्नों को (श्रुत्वा) सुनकर (च) और (फलं) फल को (ज्ञात्वा) जानकर (अक्रमात्) क्रम भंग करके (किंञ्चिन्न्यञ्चन्मना भवन्) दुःखित मन से (प्रतिवक्तुं) उत्तर (उपादत्त) देते हैं।
पुत्रमित्रकलत्रादौ सत्यामपि च सम्पदि।
आत्मीयापायशङ्का हि शङ्कु प्राणभृतां हृदि॥२४॥
अन्वयार्थ- [अत्र नीतिः] (हि) निश्चय से (पुत्रमित्रकलत्रादौ) पुत्र, मित्र, स्त्री आदिक (च) और (सम्पदि) धनादिक सम्पत्ति के (सत्यां) रहने पर (अपि) भी (आत्मीयापायशङ्का) अपने विनाश की शंका (प्राणभृतां) प्राणधारियों के (हृदि) हृदय में (शङ्कु) कील की तरह सदा {दुःखं ददाति} दुःख देती है।
देवि! दृष्टस्त्वया स्वप्ने बालाशोकः समौलिकः।
आचष्टे सोदयं सूनुमष्टमालास्तु तद्वधूः॥२५॥
अन्वयार्थ- (देवि) हे देवी! (त्वया) तुम्हारे द्वारा (स्वप्ने) स्वप्न में (दृष्टः) देखा हुआ (समौलिकः) मुकुट सहित (बालाशोकः) छोटा अशोक वृक्ष (सोदयं) पुण्यशाली (सूनुं) पुत्र को (आचष्टे) कहता है (तु) और (अष्टमालाः) स्वप्न में देखी हुई आठ मालाएँ (तद्वधूः) पुत्र की आठ स्त्रियाँ होंगी-ऐसा कथन करती हैं।
आर्यपुत्र ततः पूर्वं दृष्टनष्टस्य किं फलम्।
कङ्केलेरिति चेद्देवि कथयत्येष किञ्चन॥२६॥
अन्वयार्थ- (आर्यपुत्र) हे आर्यपुत्र! (ततः पूर्वं) इससे पहले (दृष्टनष्टस्य) दिखा और फिर नष्ट हो गया-ऐसे (कङ्केलेः) अशोक वृक्ष का (किं) क्या (फलं) फल है? (देवि) हे देवी! (इति चेत्) यदि ऐसा पूछती हो तो (एष) यह स्वप्न भी (किञ्चन) इसका ही कुछ (कथयति) कहता है, ऐसा समझो।
इतीशवाक्यं शुश्रूषी महिषी भुवि पेतुषी।
मूर्च्छिता तन्मुखग्लानेर्वक्त्रं वक्ति हि मानसम्॥२७॥
अन्वयार्थ- (इति) इसप्रकार (ईशवाक्यं) स्वामी का वाक्य (शुश्रूषी) सुनकर (महिषी) पटरानी (तन्मुखग्लानेः) उनके मुख की मलिनता देखने से (भुवि) पृथ्वी पर (पेतुषी) गिरकर (मूर्च्छिता) मूर्च्छित {आसीत्} हो गई।
[अत्र नीतिः] (हि) निश्चय से (वक्त्रं) मुख (मानसं) मन के भावों को (वक्ति) कह देता है।
तन्मोहान्मोहितो राजा तामेवायमबूबुधत्।
सत्यामप्यभिषङ्गार्तौ जागर्त्येव हि पौरुषम्॥२८॥
अन्वयार्थ- (तन्मोहात्) रानी के मोह से (मोहितः) मोहित (अयं) राजा (तां एव) उसको ही (अबूबुधत्) सचेत करता है।
[अत्र नीतिः] (हि) निश्चय से (अभिषङ्गार्तौ) अकस्मात् दैवादिजन्य पीड़ा (सत्यां अपि) होने पर भी (पौरुषं) पुरुषार्थ (जागर्ति) जागता (एव) ही है।
स्वप्नदृष्टकृते सद्यो नष्टासुं किं तनोषि माम्।
न हि रक्षितुमिच्छन्तो निर्दहन्ति फलद्रुमम्॥२९॥
अन्वयार्थ- हे देवी! (स्वप्नदृष्टकृते) स्वप्न देखने से (किं) क्यों (मां) मुझको (सद्यः) तत्काल (नष्टासुं) मरा हुआ (तनोषि) समझती हो?
[अत्र नीतिः] (हि) निश्चय से (फलद्रुमं) फलवाले वृक्ष की (रक्षितुं इच्छन्तः) रक्षा करने की इच्छावाले पुरुष (तं) उसको (न निर्दहन्ति) नहीं जलाते हैं।
विपदः परिहाराय शोकः किं कल्पते नृणाम्।
पावके न हि पातः स्यादातपक्लेशशान्तये॥३०॥
अन्वयार्थ- [अत्र नीतिः] (विपदः) विपत्तियों को (परिहाराय) दूर करने के लिए (नृणां) मनुष्यों का (शोकः) शोक (किं) क्या (कल्पते) उचित है? (हि) निश्चय से (आतपक्लेशशान्तये) गर्मी के क्लेश की शान्ति के लिए (किं) क्या (पावके) अग्नि में (पातः स्यात्) गिरा जाता है? {अपि तु न स्यात्} नहीं, ऐसा नहीं किया जाता।
ततो व्यापत्प्रतीकारं धर्ममेव विनिश्चिनु।
प्रदीपैर्दीपिते देशे न ह्यस्ति तमसो गतिः॥३१॥
अन्वयार्थ- [अत्र नीतिः] (किं) क्या (ततः) इसलिए निश्चय से (व्यापत्प्रतीकारं) आपत्ति के नाश का उपाय (धर्मं एव) धर्म ही है (विनिश्चिनु) तू ऐसा निश्चय कर; (हि) क्योंकि (प्रदीपैः दीपिते) दीपकों से प्रकाशित (देशे) देश में (तमसः) अन्धकार की (गतिः) स्थिति (न अस्ति) नहीं होता।
इत्यादि स्वामिवाक्येन लब्धाश्वासा यथापुरम्।
पत्या साकमसौ रेमे दुःखचिन्ता हि तत्क्षणे॥३२॥
अन्वयार्थ- (इत्यादिस्वामिवाक्येन) इसप्रकार स्वामी के वचनों से (लब्धाश्वासा) प्राप्त हुआ है विश्वास जिसको ऐसी (असौ) यह रानी (पत्या साकं) पति के साथ (यथापुरं) पहले की तरह (रेमे) रमण करने लगी।
[अत्र नीतिः] (हि) निश्चय से (तत्क्षणे) दुःख के समय ही (दुःखचिन्ता) दुःख की चिन्ता {भवति} होती है।
अथ प्रबोधितं स्वप्नादप्रबुद्धममुं पुनः।
बोधयन्तीव पत्नीयमन्तर्वत्नीधुरां दधौ॥३३॥
अन्वयार्थ- (अथ) इसके पश्चात् (स्वप्नात्) स्वप्न से (प्रबोधितं) सचेत किया हुआ (पुनः अप्रबुद्धं) और फिर अचेत (अमुं) इस राजा को (बोधयन्ती) ज्ञान कराने के लिए ही (इव) मानो (इयं पत्नी) रानी विजया (अन्तर्वत्नीधुरां) गर्भ के भार को (दधौ) धारण करती है।
सदोहलामिमां वीक्ष्य दुःस्वप्नफलनिश्चयात्।
अनुशेते स्म राजायमात्मरक्षापरायणः॥३४॥
अन्वयार्थ- (आत्मरक्षापरायणः) अपनी रक्षा में तत्पर (अयं राजा) यह राजा (सदोहलां) गर्भ के लक्षणों सहित (इमां) रानी को (वीक्ष्य) देखकर (दुःस्वप्नफलनिश्चयात्) खोटे स्वप्नों के फल के निश्चय से (अनुशेते स्म) पश्चात्ताप करने लगे।
मन्त्रिणां लङिघतं वाक्यमभाग्येन मया मुधा।
विपाके हि सतां वाक्यं विश्वसन्त्यविवेकिनः॥३५॥
अन्वयार्थ- (अभाग्येन) अभाग्य से (मया) मैंने (मन्त्रिणां) मन्त्रियों के (वाक्य) वचनों का (मुधा) वृथा (लङ्घितं) उल्लंघन किया।
[अत्र नीतिः] (हि) निश्चय से (अविवेकिनः) विवेकरहित पुरुष (विपाके) अन्त समय में अर्थात् दुःख मिलने पर (सतां) सज्जनों के (वाक्यं) वाक्यों का (विश्वसन्ति) विश्वास करते हैं।
न ह्यकालकृता वाञ्छा सम्पुष्णाति समीहितम्।
किं पुष्पावचयः शक्यः फलकाले समागते॥३६॥
अन्वयार्थ- [अत्र नीतिः] (हि) निश्चय से (अकालकृता) असमय में की गई (वाञ्छा) इच्छा (समीहितं) इच्छित कार्य को (न सम्पुष्णाति) पूर्ण नहीं करती है। जैसे (फलकाले समागते) फल लगने का समय आ जाने पर (किं) क्या (पुष्पावचयः शक्यः) फूलों का ढेर इकट्ठा किया जा सकता है? {अपि तु न शक्यः} बिलकुल नहीं किया जा सकता।
इत्यार्तो वंशरक्षार्थं केकियन्त्रमचीकरत्।
आस्था सतां यशःकाये न ह्यस्थायिशरीरके॥३७॥
अन्वयार्थ- [अत्र नीतिः] (इति) इसप्रकार (आर्तः) दुःख से पीड़ित राजा ने (वंशरक्षार्थं) वंश की रक्षा के लिए (केकियन्त्रं) मयूराकृति यन्त्र (अचीकरत्) बनाया।
(हि) निश्चय से (सतां आस्था) सज्जनों की आस्था (यशः काये) यशरूपी शरीर में ही {भवति} होती है। (अस्थायिशरीरके) नाशवान पुरुषाकार जड़ शरीर में {न भवति} नहीं होती।
आक्रीडे दोहदक्रीडामनुभोक्तुं विशाम्पतिः।
व्यजीहरच्च यन्त्रस्थां पत्नीं वर्त्मनि वार्मुचाम्॥३८॥
अन्वयार्थ- (च) फिर (विशाम्पतिः) राजा (दोहदक्रीडां) दोहल क्रीड़ाओं का (अनुभोक्तुं) अनुभव कराने के लिए (आक्रीडे) क्रीड़ोद्याने में (यन्त्रस्थां) मयूर यन्त्र में बैठी हुई (पत्नी) विजया रानी को (वार्मुचां) मेघों के (वर्त्मनि) मार्ग अर्थात् आकाश में (व्यजीहरत्) विहार कराने लगे।
तावतैव कृतघ्नाख्यां राजघाख्यां च साधयन्।
स्वविधेयां भुवं चेति काष्ठाङ्गारो व्यचीचरत्॥३९॥
अन्वयार्थ- (तावता एव) उससमय ही (कृतघ्नाख्यां) कृतघ्नता (च) और (राजघाख्यां) ‘राज-घातक’ की संज्ञा को (साधयन्) सिद्ध करता हुआ (च) और (भुवं) पृथ्वी को (स्वविधेयां) अपने आधीन करने की (इच्छन्) इच्छा से (काष्ठाङ्गारः) काष्ठांगार ने (इति) यह (व्यचीचरत्) विचार किया।
जीवितात्तु पराधीनाज्जीवानां मरणं वरम्।
मृगेन्द्रस्य मृगेन्द्रत्वं वितीर्णं केन कानने॥४०॥
अन्वयार्थ- [अत्र नीतिः] (पराधीनात्) पराधीन (जीवितात् तु) जीवन से तो (जीवानां) प्राणियों का (मरणं) मरण (वरं) श्रेष्ठ है।
(कानने) वन में (मृगेन्द्रस्य) सिंह को (मृगेन्द्रत्वं) सिंहपना (वन के पशुओं का स्वामित्व) (केन) किसने (वितीर्णं) दिया है? {स्वपुरुषार्थेन एव सम्पादितं} अपने पुरुषार्थ से ही उसने प्राप्त किया है।
अचीकथच्च मन्त्रिभ्यो राजद्रोहो विधीयताम्।
इति राजद्रुहा नित्यं दैवतेनाभिधीयते॥४१॥
अन्वयार्थ- (राजद्रोहः विधीयतां) राजा के साथ द्रोह करो, ऐसा (राजद्रुहा) राजा से द्रोह करनेवाला (दैवतेन) देवता (नित्यं) नित्य ही मुझसे (अभिधीयते) कहता है। (इति) इसप्रकार (सः) उसने (मन्त्रिभ्यः) मन्त्रियों से (अचीकथत्) कहा।
स्वन्तं किं नु दुरन्तं वा किमुदर्कं वितर्क्यताम्।
अतर्कितमिदं वृत्तं तर्करूढं हि निश्चलम्॥४२॥
अन्वयार्थ- (स्वन्तं) इसका अन्त अच्छा है (किं नु) अथवा (दुरन्तं) बुरा है? (किं उदर्कं) इसका क्या परिणाम होगा? (वितर्क्यतां) इस विषय का तुम विचार करो। (इदं वृत्तं) यह वृत्तान्त अभी तक (अतर्कितं) बिना विचार किया हुआ है।
[अत्र नीतिः] जब यह विचार (हि) निश्चय से (तर्करूढं) तर्क पर चढ़ेगा, तब ही (निश्चलं) स्थिर/निश्चित (भवेत्) हो जाएगा।
जिह्रेमि वक्तुमप्येतदुक्तिर्दैवभयादिति।
मनस्यन्यद्वचस्यन्यत्कर्मण्यन्यद्धि पापिनाम्॥४३॥
अन्वयार्थ- काष्ठांगार कहता है कि (अहं) मैं तो (एतत् वक्तुं अपि) यह कहते हुए भी (जिह्रेमि) लज्जित हूँ; किन्तु (दैवभयात् इति उक्तिः) देवता के भय से मैंने यह कहा है।
[अत्र नीतिः] (हि) निश्चय से (पापिनां) पापियों के (मनसि) मन में (अन्यत्) कुछ होता है और (वचसि अन्यत्) वचन में कुछ होता है और (कर्मणि अन्यत्) कृति में कुछ अन्य ही होता हैं।
तद्वाक्याद्वाच्यतो वंश्या यमिनः प्राणिहिंसनात्।
क्षुद्रा दुर्भिक्षतश्चैवं सभ्याः सर्वे हि तत्रसुः॥४४॥
अन्वयार्थ- (तद् वाक्यात्) काष्ठांगार के इन वचनों से (वंश्यां) कुलीन पुरुष तो (वाच्यतः) निन्दा से (यमिनः) संयमी पुरुष (प्राणीहिंसनात्) जीवों की हिंसा से (क्षुद्राः) सामान्यजन (दुर्भिक्षतः) अकाल से (तत्रसुः) डर गए। (एवं) इसप्रकार काष्ठांगार के इस कुटिल व्यवहार से (सर्वे सभ्याः तत्रसुः) सम्पूर्ण सभ्य पुरुष भययुक्त हो गए।
आत्मघ्नीं धर्मदत्ताख्यः सचिवो वाचमूचिवान्।
गाढा हि स्वामिभक्तिः स्यादात्मप्राणानपेक्षिणी॥४५॥
अन्वयार्थ- उससमय (धर्मदत्त आख्यः) धर्मदत्त नाम के (सचिव) मन्त्री ने (आत्मघ्नीं) अपनी जान को जोखिम में डालनेवाली (वाचं) वाणी (ऊचिवान्) कही।
[अत्र नीतिः] (हि) निश्चय से (गाढा स्वामिभक्तिः) स्वामी की अतिशय भक्ति (आत्मप्राणानपेक्षिणी) अपने प्राणों की परवाह नहीं करनेवाली (स्यात्) होती है।
राजानः प्राणिनां प्राणास्तेषु सत्स्वेव जीवनात्।
तत्तत्र सदसत्कृत्यं लोक एव कृतं भवेत्॥४६॥
अन्वयार्थ- [अत्र नीतिः] उसने कहा (राजानः) राजा लोग (प्राणिनां) प्राणियों के (प्राणाः) प्राण हैं; क्योंकि (तेषु सत्सु एव) उनके रहने पर ही (जीवनात) प्राणियों का जीवन है। (तत्) इसलिए (तत्र) राजा पर किया हुआ (सदसत्कृत्यं) अच्छा-बुरा कर्म (लोकः एव कृतं भवेत्) प्रजा पर ही किया हुआ होता है।
एवं राजद्रुहां हन्त सर्वद्रोहित्व सम्भवे।
राजध्रुगेव किं न स्यात् पञ्चपातकभाजनम्॥४७॥
अन्वयार्थ- [अत्र नीतिः] (एवं) इसप्रकार (राजद्रुहां) राजद्रोही पुरुषों के द्रोह में (सर्वद्रोहित्वसम्भवे) सम्पूर्ण पुरुषों का द्रोहपना सम्भव होने पर (हन्त) खेद है (किं) क्या (राजध्रुग् एव) राजद्रोही ही (पञ्चपातक-भाजनं) पाँच महापापों का करनेवाला (न स्यात्) नहीं होता है? {किन्तु स्यादेव} किन्तु अवश्य ही होता है।
रक्षन्त्येवात्र राजानो देवान्देहभृतोऽपि च।
देवास्तु नात्मनोऽप्येवं राजा हि परदेवता॥४८॥
अन्वयार्थ- [अत्र नीतिः] (अत्र) इस लोक में (राजानः) राजा लोग (एव) ही (देवान्) देव (च) और (देहभृतोऽपि) अन्य प्राणियों की भी (रक्षन्ति) रक्षा करते हैं; परन्तु (देवाः) देवता (आत्मनोऽपि) अपनी भी (न रक्षन्ति) रक्षा नहीं करते हैं। (एवं) इसलिए (राजा हि परदेवता) राजा ही निश्चय से उत्कृष्ट देवता है।
किञ्चात्र दैवतं हन्ति दैवतद्रोहिणं जनम्।
राजा राजद्रुहां वंशं वंश्यानन्यच्च तत्क्षणे॥४९॥
अन्वयार्थ- [अत्र नीतिः] (किञ्च अत्र) और इस लोक में (दैवतं) देवता (दैवतद्रोहिणं जनं) अपने से द्रोह करनेवाले मनुष्य को (हन्ति) मारते है; परन्तु (राजा) राजा (राजद्रुहां) राजद्रोहियों के (वंशं) कुल और (वंश्यान्) वंश के मनुष्यों को (च) भी (अन्यत्) एवं उनकी धन सम्पत्ति आदि को भी (तत्क्षणे) उसी समय (हन्ति) नाश कर देता है।
अर्थिनां जीवनोपायमपायं चाभिभाविनाम्।
कुर्वन्तः खलु राजानः सेव्या हव्यवहा यथा॥५०॥
अन्वयार्थ- [अत्र नीतिः] (अर्थिनां) अर्थीजनों के (जीवनोपायं) जीवन की रक्षा (च) और (अभिभाविनां) प्रजा को दुःख देनेवाले शत्रुओं का (अपायं) नाश (कुर्वन्तः) करनेवाले (राजानः) राजा लोग (खलु) निश्चय से (हव्यवहा यथा) हवन की अग्नि की तरह (सेव्याः) आदर से सेवा करने योग्य हैं।
इति धर्मं वचोऽप्यासीन्मर्मभित्तीव्रकर्मणः।
पित्तज्वरवतः क्षीरं तिक्तमेव हि भासते॥५१॥
अन्वयार्थ- (तीव्रकर्मणः) दुष्टकर्मवाले काष्ठांगार को (इति) इसप्रकार (धर्मं वचः अपि) धर्मयुक्त वचन भी (मर्मभित्) मर्मछेदी/हृदयविदारक (आसीत्) लगे।
[अत्र नीतिः] (हि) निश्चय से (पित्तज्वरवतः) पित्तज्वरवाले मनुष्य को (क्षीरं) मधुर दुग्ध (तिक्तं) कड़वा (एव) ही (भासते) लगता है।
स कार्तघ्न्यादिदोषं च गुरुद्रोहं च किं परैः।
परिवादं च नाद्राक्षीत् दोषं नार्थी हि पश्यति॥५२॥
अन्वयार्थ- (सः) उसने (कार्तघ्न्यादिदोषं) कृतघ्नतादि दोषों को (च) और (गुरुद्रोहं) गुरुद्रोह को (न अद्राक्षीत्) नहीं देखा। (परैः किं) और तो क्या? (परिवादं च न अद्राक्षीत्) अपनी निन्दा का भी विचार नहीं किया।
[अत्र नीतिः] (हि) निश्चय से (अर्थी) स्वार्थी मनुष्य (दोषं) दोष को (न पश्यति) नहीं देखता।
मथनो नाम तत्स्यालस्तद्वाचं बह्वमन्यत।
तद्धि पाणौ कृतं दात्रं परिपन्थिविधायिनः॥५३॥
अन्वयार्थ- (मथनः नाम) मथन नाम के (तत्स्यालः) उसके साले ने (तद्वाचं) काष्ठांगार के वचनों की (बहु अमन्यत) अनुमोदना की। (हि) निश्चय से (तत्) मथन के वचन (परिपन्थिविधायिनः) शत्रुता करनेवाले काष्ठांगार के (पाणौकृतं) हाथ में आए हुए (दात्रं इव) दाँती की तरह (अभवत्) हुए।
प्राहैषीच्च बलं हन्तुं राजानं हन्त पापधीः।
पयोह्यास्यगतं शक्यं पाननिष्ठीवनद्वये॥५४॥
अन्वयार्थ- (हन्त) खेद है! (पापधीः) उस पापबुद्धिवाले काष्ठांगार ने (राजानं) राजा को (हन्तुं) मारने के लिए (बलं) सेना (प्राहैषीत्) भेजी।
[अत्र नीतिः] (हि) निश्चय से (आस्यगतं) मुख में गया हुआ (पयः) दुग्ध (पाननिष्ठीवनद्वये) पान और वमन इन दोनों क्रियाओं में (शक्यं) समर्थ {भवति} होता है।
दौवारिकमुखादेतदुपलभ्य रुषा नृपः।
उदतिष्ठत संग्रामे न हि तिष्ठति राजसम्॥५५॥
अन्वयार्थ- (नृपः) राजा (दौवारिकमुखात्) द्वारपाल के मुख से (एतत्) यह (उपलभ्य) जानकर (रुषा) क्रोध से (संग्रामे उदतिष्ठत) युद्ध के लिए उठा।
[अत्र नीतिः] (हि) निश्चय से (राजसं न तिष्ठति) राजसी भाव स्थिर नहीं रहता। (वह प्रगट हो ही जाता है।)
तावतार्धासनाद्भ्रष्टां नष्टासुं गर्भिणीं प्रियाम्।
दृष्ट्वा पुनर्न्यवर्तिष्ट स्त्रीष्ववज्ञा हि दुःसहा॥५६॥
अन्वयार्थ- परन्तु (तावता) उसी समय राजा के (अर्धासनात्) अर्धासन से (भ्रष्टां) गिरी हुई अतएव (नष्टासुं) गतप्राण की तरह (गर्भिणीं प्रियां) गर्भवती अपनी प्यारी स्त्री को (दृष्ट्वा) देखकर राजा (पुनः) फिर (न्यवर्तिष्ठ) लौट आए।
[अत्र नीतिः] (हि) निश्चय से (स्त्रीषु) स्त्रियों के विषय में (अवज्ञा) अनादर वा अपमान (दुःसहा) सहा नहीं जा सकता/दुःसह होता है।
अबोधयच्च तां पत्नीं लब्धबोधो महीपतिः।
तत्त्वज्ञानं हि जागर्ति विदुषामार्तिसम्भवे॥५७॥
अन्वयार्थ- (च लब्धबोधः) स्वयं सचेत होकर (महीपतिः) राजा ने (तां पत्नीं) अपनी पत्नी को (अबोधयत्) उपदेश दिया।
[अत्र नीतिः] (हि) निश्चय से (आर्तिसम्भवे) पीड़ा के होने पर/विपत्ति काल में (विदुषां) विद्वानों का (तत्त्वज्ञानं जागर्ति) तत्त्वज्ञान जागता ही है।
शोकेनालमपुण्यानां पापं किं न फलप्रदम्।
दीपनाशे तमोराशिः किमाह्वानमपेक्षते॥५८॥
अन्वयार्थ- राजा कहने लगे कि (शोकेन अलं) शोक नहीं करना चाहिए। (अपुण्यानां) पुण्य रहित पापी पुरुषों का (पापं) पाप (किं) क्या (फलप्रदं न) फल देनेवाला नहीं होता? फलदायी {स्यात् एव} होता ही है।
[अत्र नीतिः] (किं) क्या (दीपनाशे) दीपक के बुझ जाने पर (तमोराशिः) अन्धकार का समूह (आह्वानं) आमन्त्रण की (अपेक्षते) अपेक्षा करता है? {न अपेक्षते} अपेक्षा नहीं करता, स्वयं आ जाता है।
यौवनं च शरीरं च सम्पच्च व्येति नाद्भुतम्।
जलबुदबुद्नित्यत्वे चित्रीया न हि तत्क्षये॥५९॥
अन्वयार्थ- [अत्र नीतिः] (यौवनं) यौवन (च) और (शरीरं) शरीर (च) और (सम्पत्) धन-ये सब (व्येति) नाश को प्राप्त होते हैं; (अत्र अद्भुतं न) इसमें आश्चर्य नहीं। (जलबुदबुद्नित्यत्वे) पानी के बुलबुले के बहुत देर तक ठहरने में (चित्रीया) आश्चर्य है। (हि) निश्चय से (तत्क्षये चित्रीया न) उसके नाश होने में कोई आश्चर्य नहीं है।
संयुक्तानां वियोगश्च भविता हि नियोगतः।
किमन्यैरङ्गतोऽप्यङ्गी निःसङ्गो हि निवर्तते॥६०॥
अन्वयार्थ- [अत्र नीतिः] (संयुक्तानां) संयोगी पदार्थों का (नियोगतः) अवश्य ही (वियोगः) वियोग (भविता) होता है। (अन्यैः किं) और तो क्या? (अङ्गतः) इस शरीर से (अङ्गी अपि) आत्मा भी (निःसङ्गः हि निवर्तते) निःसंग होकर/छोड़कर चला जाता है।
अनादौ सति संसारे केन कस्य न बन्धुता।
सर्वथा शत्रुभावश्च सर्वमेतद्धि कल्पना॥६१॥
अन्वयार्थ- [अत्र नीतिः] (संसारे) संसार के (अनादौ सति) अनादि होने पर (कस्य) किसी की (केन) किसी के साथ (सर्वथा) सर्व- प्रकार से (बन्धुता शत्रुभावः च न) मित्रता और शत्रुता नहीं होती। (हि) निश्चय से (एतत् सर्वं कल्पना) यह सब कल्पना मात्र है।
इति धर्म्यं वचस्तस्या लेभे नैव पदं हृदि।
दग्धभूम्युप्तबीजस्य न ह्यङ्कुरसमर्थता॥६२॥
अन्वयार्थ- (इति) इसप्रकार (धर्म्यं वचः) नीतियुक्त वचनों ने (तस्याः) उस विजया रानी के (हृदि) हृदय में (पदं) स्थान (न एव) नहीं (लेभे) प्राप्त किया।
[अत्र नीतिः] (हि) निश्चय से (दग्धभूमि-उप्तबीजस्य) जली हुई पृथ्वी में बोए हुए बीज के अन्दर (अंकुरसमर्थता न भवति) अंकुर पैदा होने की शक्ति नहीं होती।
अयं त्वापन्नसत्त्वां तामारोप्य शिखियन्त्रकम्।
स्वयं तद्भ्रामयामास हन्त क्रूरतमो विधिः॥६३॥
अन्वयार्थ- (तु) तदनन्तर (अयं) राजा ने (आपन्नसत्त्वां तां) गर्भवती उस रानी को (शिखियन्त्रकं) मयूर यन्त्र में (आरोप्य) बिठा करके (स्वयं) अपने हाथ से (तद्) उसको (भ्रामयामास) घुमाया।
[अत्र नीतिः] (हन्त) खेद है कि (विधिः क्रूरतमः) पूर्वोपार्जित कर्म अत्यन्त कठोर होते हैं।
वियतास्मिन्गते योद्धुं स मोहादुपचक्रमे।
न ह्यङ्गुलिरसाहाय्या स्वयं शब्दायतेतराम्॥६४॥
अन्वयार्थ- (अस्मिन्) इस यन्त्र के (वियता गते) आकाशमार्ग से ऊपर चले जाने पर (सः) उस राजा ने (मोहात्) मोह के वश से (योद्धुं) लड़ना (उपचक्रमे) प्रारम्भ किया।
[अत्र नीतिः] (हि) निश्चय से (असाहाय्याङ्गुलिः स्वयं) अकेली अँगुली अपने आप (न शब्दायतेतरां) शब्द को नहीं करती है अर्थात् दो के बिना अकेले से लड़ाई नहीं होती है।
अथ युद्ध्वा चिरं योद्धा मुधा प्राणिवधेन किम्।
इत्यूहेन विरक्तोऽभूद् गत्यधीनं हि मानसम्॥६५॥
अन्वयार्थ- (अथ) तदनन्तर (योद्धा) योद्धा राजा (चिरं युद्ध्वा) बहुत कालपर्यन्त युद्ध करके (मुधा) निष्प्रयोजन (प्राणिवधेन) प्राणियों की हिंसा से (किं) क्या फल है? (इति ऊहेन) ऐसा विचार करके (विरक्तः अभूत्) लड़ाई से उदासीन हो गए।
[अत्र नीतिः] (हि) निश्चय से (गत्यधीनं मानसं) गति के अनुकूल ही मन के भाव होते हैं, अर्थात् जिसको जिस गति में जाना होता है, उसके मृत्यु के समय वैसे ही भाव हो जाते हैं।
विषयासङ्गदोषोऽयं त्वयैव विषयीकृतः।
साम्प्रतं वा विषप्रख्ये मुञ्चात्मन्विषये स्पृहाम्॥६६॥
अन्वयार्थ- (आत्मन्) हे आत्मा! (अयं) इस (विषयासङ्गदोषः) विषयासक्ति दोष को (त्वया एव) तूने ही (विषयीकृतः) प्रत्यक्ष कर लिया है। अतएव (साम्प्रतं वा) अब तो (विषप्रख्ये) विष के समान (विषये) इन्द्रियों के विषय में (स्पृहां) इच्छा को (मुञ्च) छोड़ दो।
भुक्तपूर्वमिदं सर्वं त्वयात्मन्भुज्यते ततः।
उच्छिष्टं त्यज्यतां राज्यमनन्ता ह्यसुभृद्भवाः॥६७॥
अन्वयार्थ- [अत्र नीतिः] (आत्मन्) हे आत्मन! (इदं सर्वं) इन सब (भुक्तपूर्वं) पूर्वजन्म में भोगे हुए को (त्वया) तू (भुज्यते) भोगता है। (अतः) इसलिए (उच्छिष्टं राज्यं) उच्छिष्ट राज्य को (त्यज्यतां) त्याग दे।
[अत्र नीतिः] (हि) निश्चय से (असुभृद्भवाः) जीवों के भव (अनन्ताः) अनन्त {सन्ति} होते हैं।
अवश्यं यदि नश्यन्ति स्थित्वापि विषयाश्चिरम्।
स्वयं त्याज्यास्तथा हि स्यान्मुक्तिः संसृतिरन्यथा॥६८॥
अन्वयार्थ- [अत्र नीतिः] (यदि) अगर (विषयाः) इन्द्रियों के विषय (चिरं) बहुतकाल तक (स्थित्वा अपि) स्थिर रहकर भी (अवश्यं) अवश्य (नश्यन्ति) नाश को प्राप्त हो जाते हैं तो (स्वयं) स्वयं ही (त्याज्याः) छोड़ देना चाहिए। (तथा हि) ऐसा करने पर (मुक्तिः स्यात्) आत्मा कर्मबन्धन से मुक्त होता है। (अन्यथा) इसके विपरीत करने से (संसृतिः एव स्यात्) संसार ही होता है।
त्यज्यते रज्यमानेन राज्येनान्येन वा जनः।
भज्यते त्यज्यमानेन तत्त्यागोऽस्तु विवेकिनाम्॥६९॥
अन्वयार्थ- [अत्र नीतिः] (रज्यमानेन राज्येन अन्येन वा जनः) मनुष्य जिस राज्य या अन्य वस्तु पर रीझता है, वह वस्तु (त्यज्यते) उसे छोड़ देती है। (त्यज्यमानेन) तथा जिस वस्तु को त्यागता है, वह वस्तु (जनः) उस मनुष्य को (भज्यते) उपलब्ध होती है (ततः) इसलिए (विवेकिनां) विचारवान पुरुषों को जिसे उपलब्ध/प्राप्त करना हो (तत् त्यागः अस्तु) उससे राग कम करना चाहिए।
इति भावनया राजा वैराग्यं परमीयिवान्।
त्यक्त्वा सङ्गं निजाङ्गं च दिव्यां सम्पदमासदत्॥७०॥
अन्वयार्थ- (राजा) राजा ने (इति भावनया) इसप्रकार की भावना से (परं) उत्कृष्ट (वैराग्यं) वैराग्य (ईयिवान्) प्राप्त किया और फिर अन्त में (सङ्गं) परिग्रह (निजाङ्गं च) और अपने शरीर को (त्यक्त्वा) छोड़कर (दिव्यां सम्पदं) स्वर्गसम्बन्धी ऐश्वर्य को (आसदत्) पाया।
पौराः जानपदाः सर्वे निर्वेदं प्रतिपेदिरे।
पीडा ह्यभिनवा नृणां प्रायो वैराग्यकारणम्॥७१॥
अन्वयार्थ- उस समय (सर्वे पौराः) सारे पुरवासी (च) और (जानपदाः) देशवासी (निर्वेदं) उदास और विरक्तिपने को (प्रतिपेदिरे) प्राप्त हुए।
[अत्र नीतिः] (हि) निश्चय से (अभिनवा) वर्तमान की नई (पीडा) पीडा (नृणां) मनुष्यों को (प्रायः वैराग्यकारणं) प्रायः वैराग्य का कारण बनती है।
अधिस्त्रिरागः क्रूरोऽयं राज्यं प्राज्यमसूनपि।
तद्वञ्चिता हि मुञ्चन्ति किं न मुञ्चन्ति रागिणः॥७२॥
अन्वयार्थ- [अत्र नीतिः] (अयं) यह (अधिस्त्रिरागः) स्त्रीविषयक प्रेम (क्रूरः) बड़ा कठोर है (तद्वञ्चिताः) उससे ठगाए हुए मनुष्य (प्राज्यं राज्यं) बड़े भारी राज्य को और (असून्) प्राणों को (अपि) भी (मुञ्चन्ति) छोड़ देते हैं। सच है (रागिणः) रागी पुरुष (किं न) क्या-क्या नहीं (मुञ्चन्ति) छोड़ देते? मूल्यवान से मूल्यवान वस्तु भी छोड़ देते हैं।
नारीजघनरन्ध्रस्थ विण्मूत्रमय चर्मणा।
वराह इव विड्भक्षी हन्त मूढः सुखायते॥७३॥
अन्वयार्थ- [अत्र नीतिः] (हन्त) खेद है! (मूढः) मूर्ख जन (नारीजघनरन्ध्रस्थविण्मूत्रमयचर्मणा) स्त्रियों की जंघाओं के छिद्र में स्थित मलमूत्र से भरे हुए चमड़े से (विड्भक्षी) विष्टा खानेवाले (वराह इव) सूकर की तरह (सुखायते) सुखी होते हैं।
किं कीदृशं कियत्क्वेति विचारे सति दुःसहम्।
अविचारितरम्यं हि रामासम्पर्कजं सुखम्॥७४॥
अन्वयार्थ- [अत्र नीतिः] (रामासम्पर्कजं) स्त्री के संग से उत्पन्न (सुखं) सुख (किं) क्या है (कीदृशं) कैसा है (कियत्) कितना है (क्व)-कहाँ है (इति विचारे सति) ऐसा विचार करने पर (दुःसहं) दुस्सह हो जाता है; वह सुख (हि) निश्चय से (अविचारितरम्यं) बिना विचार के ही सुन्दर प्रतीत होता है।
निवारिताप्यकृत्ये स्यान्निष्फला दुष्फला च धीः।
कृत्ये तु नापि यत्नेन कोऽत्र हेतुर्निरूप्यताम्॥७५॥
अन्वयार्थ- [अत्र नीतिः] (अकृत्ये) बुरे काम में (निवारिता) निवारण किए जाने पर (अपि) भी (धीः) बुद्धि (निष्फला) फलरहित (च) और (दुष्फला) बुरे फलवाली (स्यात्) होती है; (तु) किन्तु (कृत्ये) अच्छे काम में (यत्नेन अपि) प्रयत्न से भी (न प्रवर्तते) प्रवृत्त नहीं होती है। (अत्र कः हेतुः निरूप्यतां) कहो, इसमें क्या हेतु है?
निश्चित्याप्यघहेतुत्वं दुश्चित्तानां निवारणे।
येनात्मन्निपुणो नासि तद्धि दुष्कर्मवैभवम्॥७६॥
अन्वयार्थ- [अत्र नीतिः] (आत्मन्) हे आत्मन्! (दुश्चित्तानां) बुरे मानसिक विचारों को (अघहेतुत्वं) पाप का कारण (निश्चित्य) निश्चित करके (अपि) भी (येन) जिस कारण से (त्वं) तू (निवारणे) निवारण करने में (निपुणः) समर्थ (न) नहीं (असि) होता है (हि) निश्चय से (तत् दुष्कर्मवैभवं) यह बुरे कर्मों का ही प्रभाव है।
हेये स्वयं सती बुद्धिर्यत्नेनाप्यसती शुभे।
तद्धेतुकर्म तद्वन्तमात्मानमपि साधयेत्॥७७॥
अन्वयार्थ- [अत्र नीतिः] (बुद्धिः) बुद्धि (हेये) बुरे कार्य में (स्वयं सती) अपने आप ही लग जाती है; किन्तु (शुभे यत्नेन अपि असती) अच्छे कार्यों में प्रयत्न करने पर भी प्रवृत्त नहीं होती; (तद् हेतुकर्म) इस प्रवृत्ति का कारण कर्म ही है जो (आत्मानं अपि) आत्मा को भी (तद्वन्तं साधयेत्) अपने समान ही कर देता है।
कोऽहं कीदृग्गुणः क्वत्यः किं प्राप्यः किं निमित्तकः।
इत्यूहः प्रत्यहं नो चेदस्थाने हि मतिर्भवेत्॥७८॥
अन्वयार्थ- (अहं कः) मैं कौन हूँ? (कीदृक् गुणः) मुझमें कौनसे एवं कैसे गुण हैं? (क्वत्यः) मैं कहाँ से आया हूँ? (किंप्राप्यः) मुझे क्या प्राप्त करने योग्य है? (किंनिमित्तकः) और उसमें क्या निमित्त है? (चेत्) यदि (इति ऊहः) इसप्रकार के विचार (प्रत्यहं न स्यात्) प्रतिदिन नहीं हों तो (हि) निश्चय से (मतिः) बुद्धि (अस्थाने भवेत्) अयोग्य स्थान में प्रवृत्त हो जाती है।
मुह्यन्ति देहिनो मोहान्मोहनीयेन कर्मणा।
निर्मितान्निर्मिताशेषकर्मणा धर्मवैरिणा॥७९॥
अन्वयार्थ- (निर्मिताशेषकर्मणा) सम्पूर्ण कर्मों का निर्माण करनेवाले (धर्मवैरिणा) धर्म के शत्रु (मोहनीयेन कर्मणा) मोहनीय कर्म से (निर्मितात्) उत्पन्न (मोहात्) मोह से (देहिनः) प्राणी (मुह्यन्ति) अविवेक को प्राप्त होते हैं।
किं नु कर्तुं त्वयारब्धं किं नु वा क्रियतेऽधुना।
आत्मन्नारब्धमुत्सृज्य हन्त बाह्येन मुह्यसि॥८०॥
अन्वयार्थ- [अत्र नीतिः] (आत्मन्) हे आत्मन! (त्वया) तूने (किं नु कर्तुं आरब्धं) कार्य का प्रारम्भ किस पावन उद्देश्य से किया था और (अधुना किं नु क्रियते) अब तू ऐसे मोह के कार्य करके यह क्या कर रहा है? (हन्त) बड़े खेद की बात है कि (आरब्धं उत्सृज्य) प्रारम्भ किए हुए आत्महित के कार्य को छोड़कर (बाह्येन) बाह्य पदार्थों से (मुह्यसि) मोह को प्राप्त हो रहा है।
इदमिष्टमनिष्टं वेत्यात्मन्सङ्कल्पयन्मुधा।
किं नु मोमुह्यसे बाह्ये स्वस्वान्तं स्ववशी कुरु॥८१॥
अन्वयार्थ- (आत्मन्) हे आत्मन्! (इदं इष्टं वा अनिष्टं) यह इष्ट है अथवा अनिष्ट है (इति) इसप्रकार (मुधा) असत्य (सङ्कल्पयन्) संकल्प करता हुआ (त्वं) तू (बाह्ये) बाह्य पदार्थों में (किं नु) क्यों (मुह्यसे) मुग्ध हो रहा है? (स्वस्वान्तं स्ववशी कुरु) तू तो अपने मन को अपने वश में कर!
लोकद्वयाहितोत्पादि हन्त स्वान्तमशान्तिमत्।
न द्वेक्षि द्वेक्षि ते मौढ्यादन्यं सङ्कल्प्य विद्विषम्॥८२॥
अन्वयार्थ- [अत्र नीतिः] (हन्त) बड़े खेद की बात है! (त्वं) तू (लोकद्वयाहितोत्पादि) इस लोक और परलोक में अहित को उत्पन्न करनेवाले (अशान्तिमत्) अशान्तिमय (ते स्वान्तं) अपने मन से (न द्वेक्षि) द्वेष नहीं करता है; किन्तु (मौढ्यात्) मूर्खता से (अन्यं) दूसरों को (विद्विषं सङ्कल्प्य) शत्रु समझकर (द्वेक्षि) द्वेष करता है।
अन्यदीयमिवात्मीयमपि दोषं प्रपश्यता।
कः समः खलु मुक्तोऽयं युक्तः कायेन चेदपि॥८३॥
अन्वयार्थ- [अत्र नीतिः] (अन्यदीयं दोषं इव) दूसरों के दोषों के सदृश (आत्मीयं) अपने (दोषं अपि प्रपश्यता) दोषों को भी देखनेवाला पुरुष (कः समः) किसके समान है? (अयं) अरे! यह तो (खलु) निश्चय से (कायेन युक्तः चेत्) शरीर से युक्त होता हुआ (अपि) भी (मुक्तः) मुक्त ही है।
इत्याद्यूहपरे लोके केकी तु वियता गतः।
पातयामास राज्ञीं तां तत्पुरप्रेतवेश्मनि॥८४॥
अन्वयार्थ- (लोके) वहाँ के लोगों के उससमय (इत्याद्यूहपरे) इसप्रकार के विचारों में मग्न होने पर (वियता गतः) आकाश में गए हुए (केकी) मयूराकृतिवाले यन्त्र ने (तां राज्ञीं) उस विजया रानी को (तत्पुरप्रेतवेश्मनि) उस नगर की श्मशान भूमि में (पातयामास) गिरा दिया/उतार दिया।
जीवानां पापवैचित्रीं श्रुतवन्तः श्रुतौ पुरा।
पश्येयुरधुनेतीव श्रीकल्पाभूदकिञ्चना॥८५॥
अन्वयार्थ- (पुरा) पूर्व से (श्रुतौ) शास्त्रों में (जीवानां पाप-वैचित्रीं) जीवों के पापों की विचित्रता को (श्रुतवन्तः) सुननेवाले पुरुष (अधुना) इस समय (पश्येयुः) प्रत्यक्ष देख लें कि (इतीव हेतोः) पापोदय के कारण (श्रीकल्पा) लक्ष्मी के समान विजया रानी (अकिञ्चना अभूत्) जन-धन से शून्य हो गई है।
क्षणनश्वरमैश्वर्यमित्यर्थं सर्वथा जनः।
निरणैषीदिमां दृष्ट्वा दृष्टान्ते हि स्फुटा मतिः॥८६॥
अन्वयार्थ- (जनः) लोगों ने (इमां दृष्ट्वा) रानी को देखकर (ऐश्वर्यं क्षणनश्वरं) राज-सम्पत्ति क्षण में नष्ट हो जाती है (इत्यर्थं) इस अर्थ को (सर्वथा) सर्वप्रकार से (निरणैषीत्) निर्णय किया।
[अत्र नीतिः] (हि) क्योंकि (दृष्टान्ते) दृष्टान्त मिलने पर (मतिः) बुद्धि (स्फुटा भवेत्) निर्मल हो जाती है।
पूर्वाह्णे पूजिता राज्ञी राज्ञा सैवापराह्णके।
परेतभूशरण्याभूत्पापात् बिभ्यतु पण्डिताः॥८७॥
अन्वयार्थ- {या} (राज्ञी) जो रानी (पूर्वाह्णे) प्रातःकाल (राज्ञा) राजा से (पूजिता) सम्मानित थी, (सा एव) उसी रानी ने (अपराह्णके) मध्याह्न काल में (परेतभूशरण्याभूत्) श्मशानभूमि की शरण ली।
[अत्र नीतिः] इसी कारण (पापात्) पाप से (पण्डिताः बिभ्यतु) पण्डित लोग डरें।
सा तु मूर्छा पराधीना सूतिपीडामजानती।
मासि वैजनने सूनुं सुषुवे हन्त तद्दिने॥८८॥
अन्वयार्थ- (तु) तदनन्तर (हन्त) खेद है (तद् दिने) उसी दिन (वैजनने मासि) प्रसव मास में (मूर्छा पराधीना सा) मूर्छा के आधीन उस रानी ने (सूतिपीडां) प्रसूति की पीड़ा (अजानती) नहीं जानती हुई (सूनुं सुषुवे) पुत्र को जन्म दिया।
तावता देवता काचिद्धात्रीवेषेण संन्यधात्।
तत्रैव पुत्रपुण्येन पुण्ये किं वा दुरासदम्॥८९॥
अन्वयार्थ- (तावता) उसीसमय (तत्रैव) वहाँ पर (पुत्रपुण्येन) पुत्र के पुण्य से (काचिद् देवता) कोई देवी (धात्रीवेषेण) धाय का वेष धारण कर (संन्यधात्) आई।
[अत्र नीतिः] (पुण्ये किं) पुण्य के उदय में क्या (दुरासदं) दुर्लभ है? {न किमपि} कुछ भी दुष्प्राप्य या दुर्लभ नहीं होता है।
तां पश्यन्त्या अभूत्तस्या उद्वेलः शोकसागरः।
सन्निधौ हि स्वबन्धूनां दुःखमुन्मस्तकं भवेत्॥९०॥
अन्वयार्थ- (तां) उसको (पश्यन्त्याः) देखकर (तस्याः) रानी का (शोकसागरः) शोकरूपी सागर (उद्वेलः अभूत्) उमड़ पड़ा और बढ़ गया।
[अत्र नीतिः] (हि) निश्चय से (स्वबन्धूनां) अपने बन्धुओं के (सन्निधौ) निकट होने पर (दुःखं) दुःख (उन्मस्तकं भवेत्) पूर्व से अत्यन्त अधिक हो जाता है।
देवता तु समाश्वास्य जातमाहात्म्यवर्णनैः।
ऊर्णादिदर्शनोद्भूतैर्देवीं तामित्यवोचयत्॥९१॥
अन्वयार्थ- (तु) तदनन्तर (देवता) उस देवी ने (ऊर्णादिदर्शनोद्भूतैः) भौं के मध्य बालों के ऊपर भौंरी इत्यादिक अनेक चिह्न दिखाकर (जातमाहात्म्यवर्णनैः) बालक का माहात्म्य वर्णन करके (तां देवीं समाश्वास्य) उस रानी को विश्वास दिलाकर (इति अवोचयत्) इसप्रकार कहा।
पुत्राभिवर्धनोपाये देवि! चिन्ता निवर्त्यताम्।
क्षत्रपुत्रोचितं कश्चिदेनं संवर्धयिष्यति॥९२॥
अन्वयार्थ- (देवि) हे देवी! तुम (पुत्राभिवर्धनोपाये) पुत्र की वृद्धि के उपाय में (चिन्ता निवर्त्यतां) चिन्ता मत करो (कश्चित्) कोई (क्षत्रपुत्रोचितं) क्षत्रियों के पुत्रों के योग्य (एनं) इसका (संवर्धयिष्यति) पालन-पोषण करेगा।
इत्युक्ते कोऽपि दृष्टोऽभूद्विसृष्टप्रेतसूनुकः।
सूनुं सूनृतयोगीन्द्रवाक्यात्तत्र गवेषयन्॥९३॥
अन्वयार्थ- (इत्युक्ते) ऐसा कहते ही (विसृष्टप्रेतसूनुकः) रखा है मरे हुए पुत्र को जिसने ऐसा और (सूनृतयोगीन्द्रवाक्यात्) सत्यार्थ मुनिराज के वचन से (तत्र सूनुं गवेषयन्) वहाँ पर जीवित पुत्र को ढूँढ़ता हुआ (कः अपि दृष्टः अभूत्) कोई दिखाई दिया।
तद्दर्शनेन तद्वाक्यं प्रमाणं निर्णिनाय सा।
निश्चलादविसंवादाद्वस्तुनो हि विनिश्चयः॥९४॥
अन्वयार्थ- (सा) उस विजया रानी ने (तद्दर्शनेन) उस सेठ को देखने से (तद्वाक्यं) देवी के वचनों को (प्रमाणं निर्णिनाय) प्रमाण/सत्य समझा।
[अत्र नीतिः] (हि) निश्चय से (निश्चलात्) निश्चल/स्थिर (अविसंवादात्) और विसंवाद रहित वचन से (वस्तुनः) वस्तु का (विनिश्चयः) निश्चय होता है।
ततो गत्यन्तराभावाद्देवताप्रेरणाच्च सा।
पित्रीयमुद्रयोपेतमाशास्यान्तर्धात्सुतम्॥९५॥
अन्वयार्थ- (ततः) तदनन्तर (सा) वह रानी (गत्यन्तराभावात्) और कोई उपाय न देखकर (च) एवं (देवताप्रेरणात्) उस देवी की प्रेरणा से (पित्रीयमुद्रयोपेतं) पिता की मुद्रा से युक्त (सुतं) पुत्र को (आशास्य) आशीर्वाद देकर (अन्तर्धात्) छिप गई।
गन्धोत्कटोऽपि तं पश्यन्नातृपद्वैश्यनायकः।
एधोन्वेषिजनैर्दृष्टः किं वा न प्रीतये मणिः॥९६॥
अन्वयार्थ- (वैश्यनायकः) वैश्यों के मुखिया (गन्धोत्कटः अपि) गन्धोत्कट भी (तं) उस बालक को (पश्यन्) देखकर देखते ही रहे, (न अतृपत्) तृप्त नहीं हुए।
[अत्र नीतिः] (एधोन्वेषिजनैः) ईन्धन ढूँढ़नेवाले मनुष्यों द्वारा (दृष्टः) देखी गई (मणिः) मणि (किं वा) क्या (प्रीतये न भवति) प्रीति के लिए नहीं होती है? किन्तु अवश्य ही प्रीति के लिए होती है।
हर्षकण्टकिताङ्गोऽयमादधानस्तमङ्गजम्।
जीवेत्याशिषमाकर्ण्य तन्नाम समकल्पयत्॥९७॥
अन्वयार्थ- (हर्षकण्टकिताङ्गः) हर्ष से रोमाञ्चित है अंग जिसका ऐसे (अयं) इसे गन्धोत्कट ने (तं अङ्गजं) उस पुत्र को (आदधानः) उठाकर (जीव) जीव (इति आशिषं) ऐसा आशीर्वाद (आकर्ण्य) सुनकर (तन्नाम समकल्पयत्) उसका नाम जीवक वा जीवन्धर रखा।
अमृतं सूनुमज्ञानात्संस्थितं कथमभ्यधाः।
इति क्रुध्यन्स्वभार्यायै सानन्दोऽयमदात्सुतम्॥९८॥
अन्वयार्थ- इसके पश्चात् घर जाकर (स्वभार्यायै) अपनी स्त्री/पत्नी पर (क्रुध्यन्) क्रोध करते हुए (सानन्दः अयं) आनन्द सहित गन्धोत्कट ने (सुतं अदात्) पुत्र को सौंप दिया और पत्नी से कहा-(अमृतं) नहीं मरे हुए (सुनूं) बालक को (अज्ञानात्) अज्ञान से तुमने (संस्थितं) मरा हुआ (कथं) कैसे (अभ्यधाः) कह दिया?
अभ्यनन्दीत्सुनन्दापि नन्दनस्यावलोकनात्।
प्राणवत्प्रीतये पुत्रा मृतोत्पन्नास्तु किं पुनः॥९९॥
**अन्वयार्थ- (**सुनन्दा अपि) सेठ की स्त्री सुनन्दा भी (नन्दनस्य) पुत्र को (अवलोकनात्) देखने से (अभ्यनन्दीत्) अत्यन्त आनन्दित हो गई।
[अत्र नीतिः] (हि) निश्चय से (पुत्राः) पुत्र (प्राणवत्) सहज ही प्राणों की तरह (प्रीतये भवन्ति) प्रीति के कारण होते हैं (तु) फिर जो (मृतोत्पन्नाः किं पुनः) पुत्र मरकर पुनः जीवित हो जाए तो उसका कहना ही क्या है?
देवता जननीमस्य बन्धुवेश्मपराङ्मुखीम्।
दण्डकारण्यमध्यस्थमनैषीत्तापसाश्रमम्॥१००॥
अन्वयार्थ- (देवता) वह देवी (बन्धुवेश्मपराङ्मुखीं) बन्धुओं के घर जाने से विमुख (अस्य जननीं) इन जीवन्धर की माता को (दण्डकारण्यमध्यस्थं) दण्डकवन के मध्य में स्थित (तापसाश्रमं) तपस्वियों के आश्रम में (अनैषीत्) ले जाती है।
कृत्वा च तां तपस्यन्तीं सतोषा सा मिषादगात्।
समीहितार्थसंसिद्धौ मनः कस्य न तुष्यति॥१०१॥
अन्वयार्थ- इसके पश्चात् (तां) उस रानी को (तपस्यन्तीं) तपश्चरण क्रिया में (कृत्वा) लगा करके (सतोषा सा) सन्तुष्ट वह देवी किसी (मिषात्) बहाने से (अगात्) चली गई।
[अत्र नीतिः] (समीहितार्थसंसिद्धौ) मनोभिलषित अर्थ के सिद्ध हो जाने पर (कस्य मनः) किसका मन (न तुष्यति) सन्तुष्ट नहीं होता है? अर्थात् सबका मन सन्तुष्ट होता ही है
अवात्सीद्राजपत्नी च वत्सं निजमनोगृहे।
जिनपादाम्बुजं चैव ध्यायन्ती हन्त तापसी॥१०२॥
अन्वयार्थ- (हन्त) खेद की बात है! (तापसी) तपस्विनी (राजपत्नी) राजा की स्त्री पटरानी विजया (निजमनोगृहे) अपने मनरूपी घर में (वत्सं) पुत्र जीवन्धरकुमार का (जिनपादाम्बुजं) जिनेन्द्र के चरण कमलों का (चैव) भी (ध्यायन्ती अवात्सीत्) ध्यान करती हुई निवास कराती है।
अनल्पतूलतल्पस्थ सवृन्तप्रसवादपि।
निर्भरं हन्त सीदन्त्यै दर्भशय्याप्यरोचत॥१०३॥
अन्वयार्थ- और (हन्त) बड़े खेद की बात है! (अनल्पतूलतल्पस्थ- सवृन्तप्रसवाद् अपि) बहुत-सी रुई के बिछे हुए हैं गद्दे जिस पर-ऐसी शय्या के ऊपर पड़े हुए डण्ठल सहित पुष्पों से भी (निर्भरं सीदन्त्यै) अत्यन्त क्लेश माननेवाली रानी के लिए (दर्भ- शय्या अपि) डाभ की चटाई भी (अरोचत) रुचिकर लगने लगी।
स्वहस्तलूननीवारोऽप्याहारोऽस्याः परेण किम्।
अवश्यं ह्यनुभोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम्॥१०४॥
अन्वयार्थ- (परेण किं) और तो क्या? (स्वहस्तलूननीवारः अपि) अपने हाथ से कटा हुआ नीवार धान्य भी (अस्याः) इसका (आहारः) {अजनि} आहार हुआ।
[अत्र नीतिः] (पूर्वकृतं) पूर्व में किया हुआ (शुभाशुभं कर्म) शुभ और अशुभ कर्म का फल (अवश्यं अनुभोक्तव्यं) अवश्य ही भोगना पड़ता है।
अथ गन्धोत्कटायार्थमर्भकार्थं महोत्सवम्।
आत्मार्थं गणयन्मूढः काष्ठाङ्गारोऽप्यदान्मुदा॥१०५॥
अन्वयार्थ- (अथ) तदनन्तर (मूढः) मूढ़ (काष्ठाङ्गारः) काष्ठांगार ने (अर्भकार्थं महोत्सव) बालक के जन्म के महोत्सव को (आत्मार्थं) अपनी राज्य-प्राप्ति के उपलक्ष्य में (गणयन्) समझकर उस (गन्धोत्कटाय) गन्धोत्कट सेठ को (मुदा) हर्ष से (अर्थं) धन (अदात्) प्रदान किया।
तत्क्षणे तत्पुरे जातान्जातानपि तदाज्ञया।
लब्ध्वा वैश्यपतिः पुत्रं मित्रैः सार्धमवर्धयत्॥१०६॥
अन्वयार्थ- (वैश्यपतिः) वैश्यों में प्रधान गन्धोत्कट (तत्क्षणे) उस दिन (तत्पुरे जातान्) उस नगर में उत्पन्न हुए (जातान्) बालकों को (तदाज्ञया) काष्ठांगार की आज्ञा से (लब्ध्वा) प्राप्त करके (मित्रैः सार्धं) उन मित्रों के साथ (पुत्रं अवर्धयत्) पुत्र का पालन-पोषण करने लगे।
अथ जातः सुनन्दायाः नन्दाढ्यो नाम नन्दनः।
तेन जीवन्धरो रेजे सौभ्रात्रं हि दुरासदम्॥१०७॥
अन्वयार्थ- (अथ) तदनन्तर (सुनन्दायाः) गन्धोत्कट की स्त्री सुनन्दा के (नन्दाढ्यः नाम नन्दनः) नन्दाढ्य नाम का पुत्र (जातः) उत्पन्न हुआ। (तेन) उस पुत्र से (जीवन्धरः) जीवन्धरकुमार (रेजे) और शोभित होते हैं।
[अत्र नीतिः] (हि) निश्चय से (सौभ्रात्रं दुरासदं) अच्छे भाई का मिलना बड़ा कठिन है।
एवं सद्बन्धुमित्रोऽयमेधमानो दिने दिने।
अतिशेते स्म शीतांशुमकलङ्काङ्गभावतः॥१०८॥
अन्वयार्थ- (एवं) इसप्रकार (सद्बन्धुमित्रः अयं) श्रेष्ठ बन्धु और मित्र हैं जिसके ऐसे इन जीवन्धरकुमार ने (दिने दिने) दिन- प्रतिदिन (एधमानः) बढ़ते हुए (अकलङ्काङ्गभावतः) निर्दोष शरीर की कान्ति से (शीतांशुं) चन्द्रमा को (अतिशेते स्म) जीत लिया।
ततः शैशवसम्भूष्णु-सर्वव्यसनदूरगः।
पञ्चमं च वयो भेजे भाग्ये जाग्रति का व्यथा॥१०९॥
अन्वयार्थ- (ततः) तदनन्तर (शैशवसम्भूष्णु-सर्वव्यसनदूरगः) बालक अवस्था में होने वाले सम्पूर्ण संकटों से रहित होते हुए जीवन्धरकुमार ने (पञ्चमं वयो भेजे) पाँचवें वर्ष की अवस्था प्राप्त की।
[अत्र नीतिः] (भाग्ये) भाग्य के (जाग्रति सति) जागृत रहने पर (का व्यथा) कौन-सी पीड़ा हो सकती है? कोई भी नहीं हो सकती।
अथानर्थकमव्यक्तमतिहृद्यं च वाङ्गमयम्।
मुक्त्वातिव्यक्तगीरासीत्स्वयं वृण्वन्ति हि स्त्रियः॥११०॥
अन्वयार्थ- (अथ) तदनन्तर (अनर्थकं) अर्थशून्य (अव्यक्तं) अस्पष्ट शब्दवाली (च) और (अतिहृद्यं) बाल सुलभ मनोहर (वाङ्गमयं) बालक अवस्था की तोतली भाषा को (मुक्त्वा) छोड़कर जीवन्धरकुमार (अतिव्यक्तगीः आसीत्) अत्यन्त स्पष्टभाषी हुए।
[अत्र नीतिः] (हि) निश्चय से (स्त्रियः स्वयं वृण्वन्ति) स्त्रियाँ अच्छे पति को स्वयं वर लेती हैं अर्थात् स्पष्ट सुसंस्कृत वाणी ने जीवन्धरकुमार का आश्रय लिया।
आचार्यकवपुः कश्चिदार्यनन्दीति कीर्तितः।
आसीदस्य गुरुः पुण्याद्गुरुरेव हि देवता॥१११॥
अन्वयार्थ- (अस्य पुण्यात्) इन जीवन्धरकुमार के पुण्य से उस समय (कश्चिद् आचार्यकवपुः) कोई आचार्य की पदवी को प्राप्त और (आर्यनन्दीति कीर्तितः) आर्यनन्दी नाम से प्रसिद्ध (गुरुः आसीत्) गुरु प्राप्त हो गए।
[अत्र नीतिः] (हि) निश्चय से (गुरुः एव देवता) गुरु ही देवता है।
निष्प्रत्यूहेष्टसिद्ध्यर्थं सिद्धपूजादिपूर्वकम्।
सिद्धमातृकया सिद्धामथ लेभे सरस्वतीम्॥११२॥
अन्वयार्थ- (अथ) तदनन्तर जीवन्धरकुमार ने (निष्प्रत्यूहेष्टसिद्ध्यर्थं) निर्विघ्न इष्ट सिद्धि के लिए (सिद्धपूजादिपूर्वकं) सिद्धपरमेष्ठी की पूजा करके (सिद्धमातृकया सिद्धां) अनादि स्वर, व्यंजन, मात्राओं से प्रसिद्ध (सरस्वतीं) सरस्वती को (लेभे) प्राप्त किया।