(क्षमावाणी पर्व पर हुए व्याख्यान के कुछ बिन्दु एक सुधी श्रोता ने निकाल कर भेजे हैं। शायद आपके भी कुछ काम आ जायें)
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क्षमावाणी पर्व का सबसे बड़ा दुर्भाग्य यह है कि इसके साथ ‘वाणी’ शब्द जुड़ा है। ‘क्षमा’ अनुभूति है, ‘वाणी’ अभिव्यक्ति है। हमने कोरी ‘वाणी’ को ही पर्व समझ लिया।
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क्षमावाणी के द्वारा हम स्वयं के एवं सामने वाले के मन का बोझ उतार देते हैं, जिससे दोनों ही धर्ममार्ग में दृढ़ रहें। अतः क्षमावाणी एक ‘स्थितिकरण’ भी है।
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क्रोध चारित्र की विकृति है, बैर श्रद्धा की। बैर दीमक की तरह है, जो जीव को अंदर से खोखला और कमजोर कर देता है।
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वस्तुतः क्षमावाणी के लिए किसी तिथि का इंतजार करना मूर्खता है। यह तो नित्य दिनचर्या का अंग होना चाहिए। सबको क्षमा करके सोयें, सुबह होगी या नहीं, कौन जाने…
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कोरोना काल में हमने जिन्दगी को बहुत करीब से देखा है। पी.पी.टी किट में लिपटी हुई लाशों को देखकर भी यदि हम बैरभाव पालते हैं तो हमसे बड़ा अपात्र कोई नहीं है।
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सच्चे साधकों के लिए तो हरेक दिन क्षमावाणी है। समयानुसार गिरते हुए मानवीय मूल्यों के मद्देनजर हमारे पूर्वजों ने इस पर्व को विकसित किया ताकि कम-से-कम वर्ष में एक बार तो एक-दूसरे के सामने हाथ जोड़ें। कुछ तो अकड़ टूटे।
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जिसने अपने हृदय से सभी को क्षमा कर दिया हो उसे ही दूसरों से क्षमा मांगने का अधिकार है। मनोमालिन्य धोने की प्रक्रिया का प्रथम चरण यही है। क्षमा करने में हम जितने स्वाधीन हैं, मांगने में नहीं। हमारे अपराधों की सूची इतनी बड़ी है कि अनंतों जीवों को हमने मौत के घाट उतार दिया। वे जीवित ही नहीं हैं, तो क्षमा कैसे मांगें। अतः आगे के जीवन में सभी जीवों को अभयदान ही असली क्षमा है।
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अपनी जिन्दगी के पिछले वर्ष का बारीकी से निरीक्षण करें और देखें कि हमने किन-किन के प्रति अपराध किए हैं। उन सबसे उन अपराधों का उल्लेख कर-करके क्षमा मांगे। इसी में इस पर्व की सार्थकता है।