क्षमा भाव सुखकारी, निज स्वभाव अविकारी ।
वस्तु स्वरूप विचार, नहीं अनिष्ट चितारो ।।१।।
हो परिणमन स्वतंत्र, क्यों होकर परतंत्र ?
क्रोध अग्नि में जलते, नहीं स्वरूप समझते ।।२।।
एक कार्य में होते, अनेक कारण भाई ।
तत्व दृष्टि से देखो, दोषदृष्टि दु:खदाई ।।३।।
कर्मों के हैं प्रेरे, जग में जीव घनेरे ।
नहीं क्षोभ तुम करना, दया भाव उर धरना ।।४।।
यदि नहीं माने तो भी, मध्यस्थ ही रहना ।
उपसर्ग और परीषह, साम्यभाव से सहना ॥५॥
भिन्न ज्ञेय हैं सब ही, तुम ज्ञाता भगवान ।
रहो सहज ही ज्ञाता, बन जाओ भगवान ॥६॥
रचयिता-: बा.ब्र. श्री रवींद्र जी 'आत्मन्
Source: बाल काव्य तरंगिणी