जानें रहस्य 'दशलक्षण' का | Know the mystery of 'Daslakshan'

दुनिया में ऐसा कौन व्यक्ति होगा जो जैनधर्म में मान्य जीवन के अन्तस्तत्त्व में सदाकाल विद्यमान अपने क्षमा आदि स्वभाव से अपरिचित रहने की घोषणा करता हुआ स्वयं को अज्ञानता का प्रमाण-पत्र प्रदान कराना चाहेगा?

तात्पर्य यह हुआ कि हमें क्षमा माँगना और करना आना चाहिए; इस बात से आज कोई भी अपरिचित नहीं है और सबसे बड़ी विशेषता तो यह है कि क्षमा स्वभाव, प्राणीमात्र के अंदर विद्यमान है; वह कहीं से लाया या प्राप्त नहीं किया जाता।

गजब की बात तो यह है कि ऐसा स्वभाव सबके अंदर विद्यमान रहने पर भी अज्ञानी प्राणियों को इसकी खबर नहीं और इसी से अनजान जीव अत्यन्त दुःखी हो रहे हैं।

यद्यपि क्षमा आदि आत्मा के स्वभाव हैं और उनकी व्यक्तता, उनकी पहिचान से ही होगी। वे जहाँ विद्यमान हैं, वहाँ खोजने से ही होगी तथा उन्हें जानने और समझने का अवसर अनादि से सभी जीवों को प्राप्त होता रहा है, जिन्हें पर्व संज्ञा देकर, उन्हें किसी न किसी रूप में मनाकर, जान कर, समझकर अन्तस्तत्त्व में छिपे उन स्वभावों की पहिचान हो सके।

खास बात तो यह है कि इन्हें पर्व संज्ञा देकर किसी सम्प्रदाय विशेष में सीमित नहीं किया, बल्कि उनके अभेदरूप जन-जन का पर्व दशलक्षण महापर्व कह दिया।

यह पर्व न तो किसी व्यक्ति विशेष से संबंधित है और न किसी घटना विशेष से। यही कारण है कि इसमें किसी विशेष साम्प्रदायिकता की गंध भी नहीं आती; क्योंकि जहाँ व्यक्तिवाद खड़ा होता है, वहाँ बँटवारा शुरू हो जाता है और जहाँ किसी विशेष घटना का उल्लेख होता है, वहाँ विवादों की दुर्घटनाएँ सुघटित होने लगती हैं।

यह पर्व तो त्रैकालिक है, तात्कालिक नहीं; जन-जन का है, मात्र जैनों का नहीं; आत्मस्वभाव का है, बाह्याडंबर का नहीं। जो भी जीव, इन्हें जाने, पहिचाने उस प्रत्येक प्राणी का कल्याण होगा।

यद्यपि यह पर्व अनादि-निधन शाश्वत है; तथापि इसमें भी यत्किंचित् घटना विशेष का समावेश किया है, किन्तु वह घटना भी किसी जाति या सम्प्रदाय विशेष को आमंत्रित नहीं करती, परन्तु वह एक स्वाभाविक व प्राकृतिक सृष्टि के ह्रास और उसके संवर्धन के पक्ष का ही विहंगम दृश्य प्रस्तुत करती है।

सृष्टि के आरंभ और अंत पक्ष को लगभग सभी ने स्वीकार किया है। जैनागमानुसार भी भरत और ऐरावत क्षेत्र में इसी तरह की व्यवस्था स्वीकार की गई है।

जैन शास्त्रानुसार 20 कोड़ाकोड़ी सागरोपम का एक कल्पकाल होता है। उसके दो भेद हैं - एक उत्सर्पिणी और एक अवसर्पिणी। दोनों का काल 10-10 कोड़ाकोड़ी सागरोपम कहा है। इन दस-दस कोड़ाकोड़ी सागरोपम काल को भी छह-छह कालों में विभक्त किया है।

वहाँ अवसर्पिणी (ह्रास का काल) के अंतिम छठवें काल के अंत में जब 49 दिन शेष बचते हैं, तब सात-सात दिन बर्फ, क्षारजल, विषजल, धूम्र, धूलि, वज्र और अग्नि की वर्षा होती है। इससे भरतक्षेत्र के आर्यखण्ड में पृथ्वी के ऊपर स्थित एक योजन वृद्धिंगत भूमि जलकर नष्ट हो जाती है और वहाँ स्थित सभी प्राणी मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं। इस समय दयालु देवों और विद्याधरों द्वारा कुल 72 युगलों को विजयार्ध पर्वत की श्रेणियों में सुरक्षित पहुँचा दिया जाता है।

इस तरह छठवें काल का अंत आषाढ़ी शुक्ल पूर्णिमा को होता है तथा नवीन युग का आरंभ उसके अगले दिन श्रावण कृष्णा प्रतिपदा से होता है और इस तिथि से 49 दिनों तक सुवृष्टियों के माध्यम से सृष्टि की रचना प्रारंभ होती है। तब सात-सात दिन तक पुष्कर, क्षीर, अमृत, रस, औषध व सुगंध जलादि की वर्षा होने से जली हुई भूमि शीतल हो जाती है। उन 49 दिनों की गणना भाद्रपद शुक्ला चतुर्थी को पूर्ण होती है।

तदनन्तर शीतल गंध को ग्रहण कर गुफाओं में छिपे हुए मनुष्य और तिर्यंच बाहर निकलने लगते हैं। यह दिन उनके आयु, तेज, बुद्धि, बाहुबल, क्षमा, धैर्य आदि के विकास का मांगलिक दिन माना जाता है। इसलिए सृष्टि का वृद्धिंगत सुखद प्रारंभ भाद्रपद शुक्ला पंचमी से होता है, जो कि चतुर्दशी तक माना गया है।

इसतरह प्राणी प्रलय काल के दुःखद अनुभव से विमुक्त होकर एक सुखद अनुभव की ओर बढ़ने तथा अपने पूर्वकृत पापकर्मों का विचार कर खेदखिन्न होते हुए मंदकषाय रूप प्रवर्तन से व्यवहार धर्मपने को प्राप्त होते हैं। इसलिए इसी काल की तिथियों को धर्माराधना की तिथि स्वीकार कर उत्तमक्षमादि दशलाक्षणी धर्म का शुभारंभ स्वीकार किया है।

इसप्रकार भाद्र शुक्ला पंचमी से चतुर्दशी तक यह पर्व धर्माराधना के रूप में मनाया जाता है। इन दिनों में लोग सांसारिक कार्यों का त्याग कर धर्माराधन रूप कार्यों में प्रवर्तते हैं।

वास्तव में धर्म तो एक ही है तथा एक समय में उत्पन्न होने वाली पर्याय है, किन्तु उसे क्रोधादि के अभावरूप निमित्तों का ज्ञान कराने हेतु दश प्रकार का कहा है तथा इन्हें समझने और समझाने के उद्देश्य से 10 दिनों में विभक्त कर दशलाक्षणी बना दिया गया है।

एक बात और ध्यान रखने योग्य है कि इस पर्व की पुनरावृत्ति वर्ष में दो बार और होती है। वे तिथियाँ निम्नानुसार हैं - 1. चैत्र शुक्ला पंचमी से चतुर्दशी तथा 2. माघ शुक्ला पंचमी से चतुर्दशी तक।

इसप्रकार इस महापर्व को वर्ष में तीन बार मनाकर उन दशलाक्षणी धर्मों को जीवन में उतारने का उद्यम करना सभी जीवों को श्रेयस्कर है।

विशेष - इन दिनों में सभी की प्रवृत्ति त्याग की ओर सहज होती है; तदनुसार व्रत, उपवास की ओर विशेष रुझान होता है और होना भी चाहिए; किन्तु ध्यान रहे उपवास मात्र पेट खाली रखने का नाम नहीं, किन्तु उसमें तीन विशेषताएँ होना अनिवार्य हैं - 1. कषाय त्याग, 2. पंचेन्द्रिय विषय त्याग और 3. भोजन त्याग। इन तीनों बातों का ध्यान रखकर ही उपवासरूप प्रवर्तन योग्य है।

ये दिवस अंतरंग क्रोधादि कषायों व रागादि के त्याग की प्रेरणा देने वाले तथा आत्मविशुद्धि की प्रेरणा देने वाले होने से हम सभी के लिए अनुकरणीय तथा अन्य सभी के लिए प्रेरणादायी हैं। दशलक्षण का संक्षेप सार -|

  1. दशलक्षण के नाम - उत्तम क्षमा, उत्तम मार्दव, उत्तम आर्जव, उत्तम शौच, उत्तम सत्य, उत्तम संयम, उत्तम तप, उत्तम त्याग, उत्तम आकिंचन्य तथा उत्तम ब्रह्मचर्य।

  2. दशलक्षणों के पूर्व लगा ‘उत्तम’ शब्द सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञान का सूचक है। साथ ही उत्तम विशेषण का प्रयोग ख्याति व पूजादि की भावना की निवृत्ति हेतु है। - (चारित्रसार, 57/1)

  3. दशलक्षण का सामान्य भाव - 1. क्रोध का अभाव क्षमा, 2. मान का अभाव मार्दव, 3. माया का अभाव आर्जव, 4. लोभ का अभाव शौच, 5. ‘सत्’ स्वभाव में स्थिरता व असत्य का अभाव सत्य, 6. स्वरूप में संयमित होना संयम, 7. इच्छा का निरोध व स्वरूप में प्रतपन तप, 8. राग-द्वेष से निवृत्ति त्याग, 9. सर्वपरिग्रह से निवृत्ति आकिंचन्य तथा 10. आत्मस्वरूप में रमण ब्रह्मचर्य है।

  4. ये सभी दशलक्षण धर्म निश्चय व व्यवहार दो रूप हैं, उनमें निश्चय धर्म तो स्वाभाविक परिणमनस्वरूप तथा कषाय व राग-द्वेषरहित वीतरागरूप होने से मोक्षस्वरूप व मोक्ष के कारणरूप हैं और व्यवहारधर्म मंदकषायरूप बंध का कारणरूप होने से संसारमय है।

  5. ये धर्म चौथे व पाँचवें गुणस्थान वाले के क्रोधादि की निवृत्तिरूप यथासंभव होते हैं तथा मुनियों के प्रधानता से होते हैं (रा.वा.9/6) किन्तु अज्ञानी मिथ्यादृष्टि के नहीं होते।

  6. ये धर्म चतुर्थ गुणस्थान से प्रारंभ होकर यथायोग्य कषायों के अभावपूर्वक वृद्धिंगत होते हुए सर्वकर्मविमुक्त सिद्धावस्था में पूर्णता को प्राप्त होते हैं।

  7. संयमधर्म, षट्कायिक जीवों की हिंसा व इन्द्रिय-मन के विषयों से निवृत्ति रूप स्वरूप स्थिरता है तथा तप धर्म, इच्छाओं के निरोधपूर्वक स्वरूप स्थिरता है।

  8. धर्म तो वास्तव में एक ही है; किन्तु क्रोधादि के अभावात्मक निमित्त की ओर से उसके दश भेद कहे जाते हैं।

  9. धर्म के सभी लक्षण एक साथ व एक समय की पर्याय में प्रगट होते हैं, अतः उनमें मूल में तो कोई क्रम नहीं; किन्तु क्रम संबंधी दो परंपराओं में जहाँ चौथे नंबर पर शौचधर्म है, वह क्रोधादि के त्याग में चौथी लोभ कषाय के अभावरूप क्रम में है तथा जहाँ चौथे पर सत्य व पाँचवें क्रम पर शौच रखा, वहाँ सत् स्वभाव में परिपूर्ण स्थिरतारूप सत्य धर्म के बाद उत्तम शौचरूप पवित्रता प्रगट होती है - ऐसा विवक्षावश कथन जानना चाहिए।

ये सभी धर्म के लक्षण मोक्षस्वरूप व मोक्ष के मार्ग हैं, इन्हें प्रकट करना अत्यन्त सरल है; क्योंकि ये आत्मा के स्वयं के स्वभावभाव हैं।

उन्हें पहचानना, जानना व उनमें रमने से ये पर्याय में प्रकट होते हैं व सुखमय मोक्षदशा की प्राप्ति में कारण बनते हैं।

इन्हें हम पर्याय में भी प्रकट करें - ऐसी भावना है।

Source: जैनपर्व चर्चा, डॉ. प्रवीणकुमार जी शास्त्री

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