नव सौन्दर्य सुमन सौरभ सा, पा जीवन मतवाला ।
इठलाता सा घूम रहा है, पी यौवन की हाला।
वैभव का यह नशा, रूप की यह कैसी नादानी।
हाय! भूल क्यों रहा मौत की करुणाजनक कहानी ||१||
तनिक देख उस नील गगन में तारों का मुस्काना ।
दिन में या घनघोर घटा में चुपके से छिप जाना ।
लता गोद में झूल तनिक पाकर पराग इठलाया।
कल जो खिला आज वह ही है रो रोकर मुरझाया ॥ २ ॥
किसका कैसा गर्व अरे यह जीवन ही सपना है।
सर्वनाश के इस निवास में कौन कहाँ अपना है।
जुड़ा रहेगा सदा नहीं यह दीवानों का मेला ।
एक-एक का नाश करेगा सहसा काल अकेला ||३||
देखेगा वह नहीं, कौन है गोरा अथवा काला ।
धू-धू करके धधक उठेगी अरे! चिता की ज्वाला ।
यह तेरा अभिमान करेगा उसकी ही अगवानी ।
समय रेत पर उतर गया है बड़ों-बड़ों का पानी ॥४॥
- राजेन्द्रकुमार ‘कुमरेश’, बिलराम