कीजे हो भाईयनिसों प्यार। Keeje Ho Bhai yani so Pyar

कीजे हो भाईयनिसों प्यार ॥ टेक ॥
नारी सुत बहुतेरे मिल हैं, मिलैं नहीं मा जाये बार ॥ कीजे ॥
प्रथम लराई कीजे नाहीं, जो लड़िये तो नीति विचार ।
आप सलाह किधौं पंचनिमें, दुई चढ़िये ना हाकिम द्वार ॥ कीजे ॥ १ ॥

सोना रूपा बासन कपड़ा, घर हाटनकी कौन शुमार ।
भाई नाम वरन दो ऊपर, तन मन धन सब दीजे वार ॥ कीजे ॥ २ ॥

भाई बड़ा पिता परमेश्वर, सेवा कीजे तजि हंकार ।
छोटा पुत्र ताहि सब दीजे, वंश बेल विरधै अधिकार ॥ कीजे ॥ ३ ॥

घर दुख बाहिरसों नहिं टूटै, बाहिर दुख घरसों निरवार ।
गोत घाव नहिं चक्र करत है, अरि सब जीतनको भयकार ॥ कीजे. ।। ४ ।।

कोई कहै हनैं भाईको, राज काज नहिं दोष लगार ।
यह कलिकाल नरकको मारग, तुरकनिमें हममें न निहार ॥ कीजे ॥ ५ ॥

होहि हिसाबी तो गम खइये, नाहक झगडै़ कौन गँवार ।
हाकिम लूटैं पंच विगूचैं, मिलैं नहीं वे आंखैं चार ।। कीजे. ।। ६ ।।

पैसे कारन लडै़ं निखट्टू, जानैं नाहिं कमाई सार।
उद्यममें लछमीका वासा, ज्यों पंखेमें पवन चितार ॥ कीजे ॥ ७ ॥

भला न भाई भाव न जामें, भला पड़ौसी जो हितकार।
चतुर होय परन्याव चुकावै, शठ निज न्याय पराये द्वार ॥ कीजे ॥ ८ ॥

जस जीवन अपजस मरना है, धन जोवन बिजली उनहार।
‘द्यानत’ चतुर छमी सन्तोषी, धरमी ते बिरले संसार ॥ कीजे. ॥ ९ ।।

अर्थ: हे भाई अपने भाइयों से प्यार करो। स्त्री पुत्र आदि तो फिर मिल जाते हैं, पर माँ का जाया भाई / सहोदर (सहजतया, बार-बार) नहीं मिलता है।

सर्वप्रथम तो भाई से आपस में लड़ाई मत करना। अगर लड़ो भी तो नीति का विचार अवश्य करना। आप परस्पर में सलाह कर लें। फिर भी न हो तो पंचों की मध्यस्थता में विचार कर लेना। पर अदालत के दरवाजे मत जाना। सोना हो, रुपया हो, बर्तन हो या कपड़ा हो, घर हो या दुकान हो, इनकी कोई गिनती नहीं है। इन सबके ऊपर ‘भाई’ नाम के दो अक्षर हैं। उन पर तन, मन, धन, सब वार दीजिए, निछावर कर दीजिये ।

बड़ा भाई पिता के समान परमेश्वर होता है। सारा अहंकार छोड़कर उसकी सेवा कीजिए। छोटा भाई पुत्र के समान है आवश्यकता होने पर अपना भी उसे दे दीजिये । वंश की वृद्धि का अधिकार भी दे दीजिए।

घर का दुःख-दर्द बाहर से नहीं मिटाया जाता। इसके विपरीत बाहर का दुःख घर में विचार कर निपटाया जा सकता है, टाला जा सकता है, उसका समाधान किया जा सकता है, सामना किया जा सकता है। अरे, वह चक्र जो शत्रुओं को भयभीत कर देता है, उन्हें जीत लेता है, वह भी स्वगोत्री पर, अपने भाई पर नहीं चलता, वह भी स्वगोत्री का घात नहीं करता।

कोई यदि वह कहे कि राजकार्य के लिए भाई का वध करने में कोई हानि नहीं है, तो यह कलियुग की देन है, नरक का मार्ग है। यह विदेशों में, अन्य संस्कृतियों में होता है। यह हमारे देश की, हमारे धर्म की परम्परा नहीं है।

अगर भाई हिसाब रखनेवाले हों, तो गंभीरता रखो, गम खाओ, संतोष रखो । फिजूल में गँवारों की तरह मत लड़ो। लड़ाई में हाकिम लूटता है और पंचों के सामने सब बातें होती है। घर के भेद खुल जाते हैं। इससे समाज में आपस में एक-दूसरे से आँख मिलाकर बात करने की स्थिति भी नष्ट हो जाती है।

पैसे के कारण तो निखट्टू (खोटे व्यक्ति ही) लड़ते हैं वे कमाने का महत्त्व नहीं समझते। वे कमाई का सार/मूल नहीं समझते कि परिश्रम से, उद्यम से ही लक्ष्मी/धन सम्पदा आती है इसलिए परिश्रम करो, उद्यम करो तो उसमें लक्ष्मी का निवास होता है। जैसे पंखे के हिलाने (के परिश्रम) से पवन आती है। उस पंखे के झलने से अग्नि भी चेत जाती है।

जिस भाई में भाईपने का भाव भी न हो वह भला नहीं है, उससे तो वह पड़ोसी भला है जो हितकारी है। यदि भाई चतुर है तो वह पर का न्याय करता है और दुष्ट हो तो घर के न्याय के लिए दूसरों का दरवाजा खटखटाता है।

यश ही जीवन है, अपयश मृत्यु है। धन-यौवन तो बिजली की चमक की भाँति है। द्यानतराय जी कहते हैं कि संसार क्षमाशील, सन्तोषी व धर्माचरण में संलग्न कोई-कोई ही होता है/विरला ही होता है।

रचयिता: पंडित श्री द्यानतराय जी
सोर्स: द्यानत भजन सौरभ