जिन - स्तवन
कैसा अद्भुत शान्त स्वरूप, अक्षय मंगलमय जिनरूप ॥ टेक ॥
अहो परम मंगल के काज, हमने पहिचाने जिनराज |
जिन-समान ही आत्मस्वरूप ॥ कैसा अद्भुत शान्त… ॥१॥
कर्म कलंक हुए नि:शेष, अनन्त चतुष्टय भाव विशेष ।
निर्विकल्प चैतन्य स्वरूप ॥ कैसा अद्भुत शान्त… ॥२॥
अद्भुत महिमा मंडित देव, सब संक्लेश नशें स्वयमेव ।
तदपि अकर्ता ज्ञाता रूप ॥ कैसा अद्भुत शान्त… ॥३॥
सर्व कामना सहज नशावें, निजगुण निज में ही प्रगटावें ।
विलसे निज आनन्द स्वरूप ॥ कैसा अद्भुत शान्त…॥४॥
शरण में आये हे जिननाथ, दर्शन पाकर हुए सनाथ ।
प्रगट दिखाया ज्ञायक रूप ॥ कैसा अद्भुत शान्त……………….॥५॥
बाह्य सुखों की नहीं कामना, शिवसुख की हो रही भावना ।
ध्यावें ध्रुव शुद्धात्म स्वरूप ॥ कैसा अद्भुत शान्त… ॥६॥
भक्ति भाव से शीश नवावें, अन्तर्मुख हो प्रभु को पावें ।
प्रभु प्रभुता जग माँहिं अनूप ॥ कैसा अद्भुत शान्त.………॥७॥
धन्य हुए कृत-कृत्य हुए हैं, सर्व मनोरथ सिद्ध हुए हैं।
मानों हुए अभी शिव रूप ॥ कैसा अद्भुत शान्त…॥८॥
कैसा सुख अरु कैसा ज्ञान, वचनातीत अहो भगवान ।
सहज मुक्त परमात्म स्वरूप ॥ कैसा अद्भुत शान्त………………॥९
रचयिता - बाल ब्र. श्री रवींद्र जी आत्मन