कहै सीताजी सुनो रामचन्द्र, संसार महादुखवृच्छकन्द ।। कहै. ।। पंचेन्द्री भोग भुजंग जानि, यह देह अपावन रोगखानि ॥ १ ॥
यह राज रजमयी पापमूल, परिगृह आरंभ में खिन न भूल ॥ २ ॥
आपद सम्पद घर बंधु गेह, सुत संकल फाँसी नारि नेह ॥ ३ ॥
जिय रुल्यो निगोद अनन्त काल, बिनु जानैं ऊर्ध्व मधि पाताल ॥४॥
तुम जानत करत न आप काज, अरु मोहि निषेधो क्यों न लाज ॥ ५ ॥
तब केश उपारि सबै खिमाय, दीक्षा धरि कीन्हों तप सुभाय ॥ ६ ॥
‘द्यानत’ ठारै दिन ले सन्यास, भयो इन्द्र सोलहैं सुरग बास ॥७॥
अर्थ: सीताजी श्री रामचन्द्रजी से कहती हैं कि हे रामचन्द्र ! सुनो, यह संसार अत्यन्त दुःखों का समूह है, पिंड है, वृक्ष है।
पाँचों इन्द्रियों के भोग सर्प के समान विषयुक्त हैं। यह देह रोगों की खान है, अपवित्र है।
यह राज्य मोह का, पाप का कारण (हेतु) है। इसके लिए किये जानेवाले आरम्भ में और परिग्रह में एक क्षण भी अपने आप को मत भूल।
संपत्ति, घर, बंधु-बांधव आदि सब आपदा हैं, कष्ट देने वाले हैं। पुत्र का प्रेम साँकल के समान बाँधने वाला है और नारी का/के लिए नेह फाँसी के समान है।
यह जीव ऊर्ध्वलोक, मध्यलोक व पाताललोक का ज्ञान न होने के कारण अनंतकाल तक निगोद में रुलता रहा।
तुम जानते हुए भी अपने करने योग्य कार्य नहीं करते हो! और मुझे अपने योग्य कार्य करने से रोकने में भी लजाते क्यों नहीं हो?
यह कहकर सबसे क्षमा माँगकर, केश-लुंचन करके सीताजी ने दीक्षा धारण की और तप किया।
द्यानतराय जी कहते हैं कि इस प्रकार सीताजी ने संन्यास ले लिया और फिर सोलहवें स्वर्ग में जाकर इन्द्र पद प्राप्त किया।
रचयिता: पंडित श्री द्यानतराय जी
सोर्स: द्यानत भजन सौरभ