जिनवाणी को अर्घ्य | Jinvani ko arghya

जिनवाणी को अर्घ्य

द्वादश अंग पूर्व चौदह से शोभित है श्री जिनवाणी ।
सूत्र चूलिका प्रकीर्णक परिकर्म विभूषित कल्याणी ||
है प्रथमानुयोग अति मनहर पाप-पुण्य फल कथा प्रधान ।
त्रेसठ महाशलाका पुरुषों का चारित्र जु श्रेष्ठ महान ।।
है करुणानुयोग अति पावन तीनलोक का सत्य स्वरूप ।
जीवों के परिणाम मार्गणा गुणस्थान का ज्ञान अनूप ॥
हैं चरणानुयोग में श्रावक मुनियों का आचरण महान ।
अंतरंग भावों के ही अनुसार बाह्य आचरण प्रधान ।।
है द्रव्यानुयोग में सच्चा उत्तम वस्तु स्वरूप कथन ।
छह द्रव्यों अरु सात तत्त्व अरु नवपदार्थ का है वर्णन ॥
सबके भेद-प्रभेद अनेकों जिनश्रुत महिमा अपरम्पार ।
माता जिनवाणी को वन्दन नमन करूँ मैं बारम्बार ||
सतत शान्ति की प्राप्ति हेतु मैं स्वाध्याय का नियम करूँ ।
वीतराग-विज्ञान किरण पा मिथ्याभ्रम का वमन करूँ ।

ॐ ह्रीं श्री जिनवाणीद्वादशांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

रचयिता: श्री राजमल जी पवैया

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