बहु पुण्य उदय मम आयो, सुन्दर जिन-भवन लखायो। |
भव्यों को सुख का कारण, करता भवताप निवारण ।।१।।
जो समवशरण सम राजै, जिनसम जिनचैत्य विराजै।
जहाँ गंधकुटी सम वेदी, सिंहासन छत्र सफेदी ।।२।।
शशि द्युति से अधिक उजाले, जहाँ यक्ष चमर बहु ढोरें।
अति उन्नत शिखर बनी है, जिस पर शुभ ध्वजा लगी है ।।३।।
फहरे दे शुभ सन्देशा, यहाँ दु:ख का नहीं अन्देशा।
हे सुख इच्छुक ! यहाँ आओ, दु:ख कारण पाप भगाओ ।।४।।
यहाँ खुद ही भाव बदलते, सब बहुविधि पुण्य सु-करते।।
सुन्दर स्तोत्र उचारें, ध्वनि गगन माँहिं गुंजारें ।।५।।
कोई शुभ पूजन करिके, कोई ध्यान प्रभु का धरिके।
जग की सब सुधि बुधि खोते, निज सुख में मग्न सु होते ।।६।।
जहाँ शास्त्र सभा है होती, जिससे मिथ्या मति भगती।
कोई लीन धर्म चर्चा में, देखत उठती शुभ लहरें ।।७।।
मधि मारवाड़ संसार, यह वृक्ष है छायादार।
भववन में पथिक भटकते, अकुलाते धैर्य न धरते ।।८।।
उन सबको आश्रय दाता, जिनमन्दिर जग में त्राता।
प्रभु हर्ष प्रसंग महा है, जिनमन्दिर दर्श मिला है॥९॥
सत् देव-शास्त्र-गुरु पाये, रोमांच काय में आये।
शुभभाव हृदय में जागा, अज्ञान प्रमाद सु भागा ।।१०||
अब मैं चाहूँ जगदीश, निज चैत्य बनाऊँ ईश।
परिणति करूं मैं मन्दिर, ध्रुव ज्ञान चैत्य उस अन्दर ।।११।।
अरु करूँ प्रतिष्ठा भारी, मेटूँ आरति संसारी।
प्रभु भेदभक्ति को त्यागूँ, अरु निज अभेद में पागूँ ॥१२॥
Artist - ब्र.श्री रवीन्द्र जी ‘आत्मन्’