40. समाधिमरण निर्देश
साधक निर्देश :-
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प्रयोजन परक स्वाध्याय करते हुए, आधि-व्याधि-उपाधियों से रहित सहज समाधि स्वरूप शुद्धात्मा को समझें एवं बारम्बार शुद्धात्म भावना भाएं।
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परिग्रह एवं पदों का त्याग कर दें।
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समस्त प्रकार के लौकिक व्यवहारों से विरक्त हों।
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विषयों से विरक्त होकर संयम धारण करें।
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लौकिक दृष्टि वाले जीवों की संगति से दूर रहें।
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साधर्मीजनों से सीमित चर्चा करें। विकथा को कदापि प्रोत्साहित न करें।
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तीर्थयात्रा, दानादि सम्बन्धी प्रशस्त विकल्पों से भी निवृत होकर निशल्य हो जायें। सर्वत्र राग एवं बैरादि का विसर्जन अनिवार्य है। सर्वप्रकार के हस्ताक्षरों, चाबी, जानकारी से मुक्त हो जायें।
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चिरपरिचितों के मध्य में सामान्यतः नहीं रहें।
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निर्यापक का चयन कर उसी के निर्देशन में रहें।
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वस्त्र, भोजनादि भी सीमित कर लें।
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देह छूटने के समय का आयुर्वेद एवं ज्योतिष सम्बन्धी लक्षणों से अनुमान करते हुए, विवेक पूर्वक समय सीमा सहित त्याग करते हुए, परिणामों में समता का विशेष ध्यान रखें।
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कोई असाध्य रोगादि होने पर भी कुशल चिकित्सकों के परामर्शानुसार विशेष संक्लेशकारी वेदना न हो पाये, ऐसे बाह्य संयम के अनुकूल उपचारों को सहजता से स्वीकार कर लें, हठ न करें।
परिचारक निर्देश :-
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उचित सेवा, योग्य संबोधन, अनुमोदन एवं स्वयं समाधि की भावना करते हुए, उत्साह पूर्वक समाधि करायें।
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साधक को सर्वथा अकेला न छोड़ें। इतने समीप ही दूसरा व्यक्ति बैठा रहे कि उसके इशारे से तुरन्त आ जाये। रात्रि में भी एक व्यक्ति जागता रहे।
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सामान्यतः भी चर्या के लिए सूक्ष्म उपयोग एवं सावधानी रखें। स्वयं ही यथा समय सहयोग करें। उसे कहना न पड़े।
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यदि कहीं जाना पड़े तो मात्र दूसरे से ही न कह जाऐं, साधक को भी कहकर जायें और दूसरे व्यक्ति को अपने सामने ही प्रशिक्षित करके जायें।
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भोजन, पानी, औषधि आदि के त्याग में शीघ्रता न करें, क्रमशः थोड़े-थोड़े समय के लिए ही करायें। ऊपरी योग्य उपचार करते रहें, जिससे तीव्र वेदना भी न हो पाये और कषाय का प्रसंग भी न बने।
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धर्म के और साधक के प्रतिकूल न तो वचन बोलें, न चेष्टा ही करें। मन में भी न विचारें क्योंकि मन के विचारों का निमित्त-नैमित्तिक रूप से प्रभाव देखने में आता है।
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साधक के समीप विकथा न करें और न प्रमाद सहित अयत्नाचार सहित प्रवृत्ति करें। स्वच्छता एवं व्यवस्था बनाये रखें।
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मोह के निमित्तों को दूर ही रखें।
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वैराग्य एवं भेदज्ञान पोषक ही पाठ एवं स्वाध्याय करें। स्वर्गों या भोग-श्रृंगार, युद्धादि के आगम प्रसंगों को भी न पढ़ें। यदि सुनकर निदानादिरूप परिणाम हो गये तो समाधि नहीं हो सकेगी।