-
दान में न्यायोपार्जित धन एवं उपयोगी सामग्री बहुमान पूर्वक दें।
-
विवेक पूर्वक उपयोगिता एवं पात्रादि का निर्णय करके देखें।
-
धनादि देने के साथ-साथ आत्मीयता से उचित सलाह अवश्य देवें।
-
दान हेतु धन तो दें ही, स्वयं विनम्र होकर, आहारादि क्रियाओं में सहभागी भी होवें।
-
बच्चों को भी दान एवं दया के सम्यक् संस्कार दें । पात्र दान और सेवा कार्य उन्हें देखने भी दें और उन्हें सहभागी भी बनायें। स्वयं करने के लिए निर्देश एवं प्रोत्साहन दें। उनके नाम से अलग-अलग प्रसंगों पर अलग-अलग रसीद बनवायें। बड़ों के नाम से भी दान करें और रसीद उन्हें अवश्य दिखायें, जिससे संतोष हो कि घर में उनका भी सम्मान है।
-
स्वयं के व्यक्तिगत फण्ड भी बनायें, जिससे गुप्त दान भी किये जा सकें।
-
त्यागीजनों को श्रद्धा, भक्ति एवं यथायोग्य आदर सहित आवास, शिक्षा, धार्मिक ज्ञानाभ्यास, प्रासुक चिकित्सा एवं अन्य व्यवस्थाओं में उदारता एवं निष्पृहता पूर्वक सहयोग करें; जिससे वे जीवन में भी निश्चिंत एवं स्वस्थ रहकर, स्वयं आराधना कर सकें और समाज को भी उनका लाभ मिल सके।
-
दान के नाम पर अनावश्यक प्रदर्शन कदापि न करें। महँगे कपड़े या शीघ्र खराब हो जाने वाली घड़ी, टार्च, टेप आदि; हल्की गुणवत्ता की मेवा; बिना मौसम के फल; हल्की पेंसिलें, मंहगी डायरियाँ, बैग आदि न दें।
-
अभिमान पूर्वक प्रदर्शन न करें। स्वागत, सत्कार, माल्यार्पण न करायें, दृढ़ता पूर्वक इनका निषेध करें।
-
बार-बार न कहलवायें । स्वयं धन्यवाद दें एवं आभार मानें तथा कहें कि भविष्य में भी इसीप्रकार अवसर देते रहें।
-
ध्यान रखें - भावुकता या अभिमान के कारण आप पात्र दान से वंचित हो जायेंगे; कार्य तो होंगे ही।
-
समाजोन्नति, साधर्मीजनों का व्यक्तिगत सहयोग एवं लोकोपकारी कार्य भी विवेक एवं उदारता पूर्वक करें ।
-
कमजोर वर्ग के लिए निर्दोष शिक्षा, चिकित्सा एवं आजीविका योजनाबद्ध ढंग से करें एवं करायें।
-
दान देने पर भी, यदि सदुपयोग होता न देखें तो भी निंदा न करें, पछतावा न करें। योग्यता का विचार करते हुए, माध्यस्थ भाव से विरक्त हो जावें।
-
कान के कच्चे न बनें, परस्थिति समझे। शंका होने पर अधिकृत जानकारी करके, निर्णय करें। हो सकता है कि किन्हीं कारणों, सरकारी उलझनों या अनुभव न होने से अधिक धन लग गया हो। किसी के सीधेपन से या अनजाने कोई भूल हो गई हो। अन्यथा आरोप न करें।
-
शिकायतें न करते हुए सुझाव एवं सहयोग करने की प्रवृत्ति बनायें।
-
अच्छे कार्यकर्ताओं का अपवाद करके, न उन्हें हतोत्साहित करें, न स्वयं तीव्र पाप कर्मों का बंध करें ।
-
किसी विशेष दान का हठ न करते हुए, जहाँ जो आवश्यक दिखे, वह करें। जैसे - मंदिर, मूर्ति, वेदी पहले से हो तो पाठशाला, पुस्तकालय, वाचनालय, साधर्मी निवास में उपकरणादि दें। बड़ी-बड़ी रचनाओं एवं योजनाओं को मुख्य न करके, छोटी-छोटी सादगीपूर्ण उपयोगी योजनाओं को मुख्य करें।
-
दान के प्रभाव का सदुपयोग प्रदर्शन एवं अनावश्यक स्टेशनरी एवं अन्य खर्ची को रोकने में करें।
-
भवन निर्माण में सादगी के निर्देश दें। साज सज्जा पर अधिक खर्च एवं प्रोत्साहन न करें। साधर्मी एवं दीन दुखियों के उपकार हेतु शिविर, धार्मिक, नैतिक एवं चिकित्सा शिविरों एवं संस्थानों में वात्सल्य भोज दें एवं अन्य प्रकार सहयोग दें।
-
विशेष धनी दातार एक मीटिंग करके धर्म प्रभावना एवं समाजोत्थान की प्रतिष्ठापूर्ण राष्ट्रव्यापी योजनायें बनायें।
-
दान के नाम वाले पाटिया पहले तो लगायें ही नहीं और यदि लगायें तो गुरुजनों के नाम को उर्ध्व रखें। भाषा अत्यंत संक्षिप्त एवं विनयपूर्ण रहे।
-
छोटी-छोटी राशियों की नाम-सूचि से भरे पाटिया, धर्मायतनों में अत्यंत अशोभनीय लगते हैं। दातारों को नाम का लोभ संवरण कर, स्वयं निषेध करना ही योग्य है। पाटियों पर तो स्तुतियाँ, पाठ, सूक्तियाँ लिखवाना ही श्रेयस्कर है।
23. स्वास्थ्य
-
प्रात: शीघ्र उठे । इष्ट स्मरण, तत्त्वविचारादि के पश्चात् दिन भर के विशेष कार्य के सम्बन्ध में भी विचार कर लें। रात्रि में देर तक न जागें।
-
विश्राम, व्यायाम, प्राणायाम का भी ध्यान रखें।
-
तपश्चरण, जप, संयमादि, अपने पाप कर्मों की निर्जरा हेतु एवं परिणामों की विशुद्धि हेतु अवश्य करें।
-
तले हुए व्यंजन, मिठाई, नमकीन आदि न खायें।
-
रिफाइन्ड तेल, शक्कर, बिना मौसम के फल, इन्जेक्शन या घोल आदि से पके फल न खायें। इन्जेक्शन से निकाला दूध न पियें।
-
उपवास और लंघन के पहले तथा बाद में ठोस एवं पूर्ण आहार न करें।
-
रोग-अवस्था में भोजन का आग्रह न करें, आवश्यक होने पर पेय-आदि चिकित्सक की सलाह से लें।
-
संतुलित भोजन के भी सुपाचन हेतु पर्याप्त शारीरिक श्रम आवश्यक है। संतोषी एवं सादा जीवन का सूत्र अपनाते हुए विचारों की निर्मलता, प्रसन्नता एवं निश्चिंतता का विशेष ध्यान रखें।
-
विषयों में आसक्त न हों।
-
धर्म के नाम पर भी अविवेक पूर्वक ऊँची-नीची क्रियाएँ एवं नियम न करें। प्रयोजन पर दृष्टि रखते हुए, योग्य चर्या पालें, जिससे स्वयं या अन्य को आकुलता न हो और परिणाम निर्मल रहें।
-
चिकित्सक के उचित परामर्श पर ध्यान देते हुए, उसे सहयोग करें; अन्यथा अयोग्य व्यवस्थाओं में फंसकर समस्त नियमादि टूटेगें।
-
चलने-बैठने-लेटने एवं काम करने के सही तरीके अपनायें। कपड़े आदि भी ऋतु आदि के अनुकूल उचित तरीके से पहनें।
-
शरीर पर अति भारारोपण किसी तरह न करें। न अधिक भोजन, न अधिक काम और न प्रमादी और विलासी बनाएं।
-
सभी के प्रति सद्भावना एवं सद्-व्यवहार रखें।
-
समस्या को उलझायें नहीं । विवेक एवं त्याग पूर्वक समाधान निकालें ।
-
मानसिक घुटन (टेंशन), ईर्ष्या, तृष्णा, क्रोध, मान, भय, प्रमादादि दुर्भाव स्वास्थ्य के अंतरंग शत्रु हैं, इन्हें समझ पूर्वक अवश्य छोड़ें।
-
अन्य निर्देशिकाओं का पालन करें।
-
रोग की प्रथम अवस्था में ही योग्य चिकित्सक के अनुसार पथ्य-कुपथ्य, निर्दोष औषधि एवं चर्या का ध्यान रखें।
24. भोजन निर्देश
-
स्वास्थ्यकारक, सात्त्विक भोजन बनाना सीखें। समझे - कब, कितना, कैसा भोजन किसे एवं कैसे करना चाहिए।
-
बाजारों में बिकने वाली अशुद्ध, हानिकारक, मंहगी खाद्य सामग्री से दूर रहें।
-
अभक्ष्य पदार्थों को त्यागें।
-
भोजन से चिकित्सा को समझें। भोजन के औषधीय गुणों का यथार्थ ज्ञान करके उनका प्रयोग करें, जिससे रोग उत्पन्न ही न हों।
-
मिथ्यानुकरण करते हुए अपनी भोजन-संस्कृति को विकृत ना करें।
-
भोजन के समय प्रसन्नता एवं निश्चिंतता रखें । विचारें - यह भोजन संयम का निमित्त बने और कब अनाहारी दशा होवे।
-
बिना हाथ धोये किसीप्रकार की भोजन सामग्री न खावें।
-
भोजन धीरे-धीरे चबाते हुए करें। पानी भी घुट-घुट पियें।
-
भोजन के समय दुश्चिंतन, विकथा, शोरगुल, तीव्र कर्कश स्वर में बोलना वर्जित रहे।
-
भोजन टी.वी. या कम्प्यूटर पर बैठे-बैठे न करें । उस समय मोबाइल बंद रखें। भोजन में उतावलापन न करें।
-
खड़े-खड़े, जूते पहने, जूठे हाथों से उठाते हुए, प्रदर्शन पूर्वक भोजन न करें।
-
भोजन हाथ-पैर धोकर, वस्त्र शुद्धि पूर्वक करें । तदुपरांत वज्रासन से बैठकर कायोत्सर्ग करें। धीरे-धीरे चलें । बायीं करवट थोड़ी देर लेटें । न सोयें, न दौड़े, न बैठकर निरंतर कार्य करते रहें। शरीर का उचित हलन-चलन पाचन के लिए आवश्यक है। थोड़ी देर बाद आवश्यकतानुसार हरड़, लौंग, इलायची, सौंफ आदि चूसते हुए पानी पी लें। पेट साफ रखने का निरंतर प्रयत्न रखें।
-
अल्पाहारी बने, आसक्त होकर गरिष्ठ, तामसिक भोजन तो करें ही नहीं, योग्य भोजन भी अधिक और जल्दी न करें।
-
चिकित्सक के परामर्श बिना एक ही पदार्थ दूध, फल, सब्जी आदि अत्यधिक मात्रा में सेवन न करें। भोजन में सभी विटामिन एवं खनिजादि पोषक तत्त्वों का समावेश एवं संतुलन रखें।
-
देशी बीज के खाद्यान्न एवं सब्जियाँ खरीदने का प्रयत्न करें, जिनमें जहरीले, कीटनाशक एवं वृद्धिकारक रसायनों का प्रयोग न हो।
-
चावल, दालें आदि भी बिना पॉलिश की खरीदें।
-
समस्त सामग्री - खाद्यान्न, मसाले, सब्जियाँ आदि धोकर ही उपयोग करें।
-
एल्यूमीनियम के कुकर, बर्तन आदि का प्रयोग रसोई में न करें । लोहे की एक कढ़ाई का प्रयोग रसोई में नित्य ही करें।
-
भोजन में एक साथ अनेक पदार्थ न खावें । तली हुई वस्तुएँ मात्र स्वाद के लिए अधिक न खावें।
-
बेसन, मेंदा एवं मिठाईयों से बचें।
-
मौसम के अच्छे फल उचित मात्रा में ( अधिक नहीं) लेवें। भलीप्रकार से दो या तीन बार धोकर ही लें।
-
रासायनिक घोल के पके केला, आम तथा बहुत बड़े फलों से बचें।
-
चाय, काफी की जगह आयुर्वेदिक पेय आवश्यकतानुसार पियें।
-
प्रात: खाली पेट दूध-आदि भारी नाश्ता न करें।
-
दलिया, खिचड़ी, सब्जी के साथ घी मिलाकर खाते रहें ।
-
चना, उड़द, मसूर, सेम आदि का प्रयोग भी आवश्यकता अनुसार करें।
-
आटा थोड़ा मोटा रखें।
-
दूध का प्रयोग भी अधिक नहीं, परन्तु पर्याप्त मात्रा में करें । छाछ भी आवश्यकतानुसार लें।
-
शक्कर के स्थान पर बिना केमिकल का गुड़, खांड़, मीठे फलादि का उपयोग करें।
-
भोजन, पानी नियम पूर्वक पियें, अनर्गल नहीं।
-
शारीरिक श्रम भी पर्याप्त करें। स्वावलम्बी चर्या रखें। मशीन एवं सेवकों के सर्वथा आधीन होकर आलसी न बनें।
-
किसी कार्य को अहसान या अभिमान की भावना से रहित होकर कर्तव्य एवं सौभाग्य समझते हुए करें। इससे प्रशंसनीय भी होंगे और प्रसन्नता भी रहेगी, तब स्वास्थ्य स्वयं ठीक रहेगा।
-
समय-समय पर यथाशक्ति उपवास, एकाशन, ऊनोदर आदि भी करें।
25. आश्रम, विद्यालय निर्देश
-
समस्त चयन अत्यन्त विवेक पूर्वक ही करें।
-
नियमावली का पालन सम्यक् प्रकार से करायें । समय-समय पर निरीक्षण आवश्यक है कि किसी नियम में शिथिलता तो नहीं हो रही।
-
प्रत्येक अधिकारी, कर्मचारी एवं सदस्य का संवैधानिक रूप से प्रामाणिक परिचय एवं उसकी सम्पत्ति और सामान की सूची रजिस्टर में रखें।
-
समस्त गतिविधियों पर सूक्ष्मता से नजर रखें।
-
समय-समय पर मीटिंग आवश्यक है।
-
विशिष्ट समागम अवश्य करवायें । शिविर एवं गोष्ठियाँ करायें।
-
अधिष्ठाता एवं अध्यापक विद्यार्थियों से पुत्र-पुत्रीवत् व्यवहार करें । उनके सर्वांगीण विकास एवं श्रेष्ठ संस्कारों के लिए तुच्छ स्वार्थ, प्रमादादि को त्यागें । पाठ्य पुस्तकों का मनोयोग पूर्वक अध्ययन करायें।
-
नियमों का पालन करने के लिये संकल्पित करें।
-
व्यसन, नकल, ईर्ष्या आदि का त्याग करायें।
-
स्वच्छता, मितव्ययता, विनम्रता, सरलता, सौहार्द आदि मानवीय गुणों के प्रति निष्ठावान बनायें।
-
साधक एवं विद्यार्थी गुरुजनों का यथायोग्य सम्मान एवं सेवा करें। अनुशासन पालें। अधिक से अधिक लाभ लेते हुए अपनी योग्यता बढ़ावें ।
-
पंक्तिबद्ध व्यवस्थित बैठने, धीरे चलने, खड़े-खड़े बातें न करने की आदत डालें।
-
कार्य के पश्चात् सामान ढंग (उचित तरीके) से यथास्थान रखे जाने के बाद ही अध्यापक या व्यवस्थापक वहाँ से जावें। अतिआवश्यक होने पर अतिशीघ्र व्यवस्थित करें और करायें । व्यवस्था मात्र बच्चों पर कभी न छोड़े।
-
गंदी एवं हल्की आदतों को छोड़ने का संकल्प पूर्वक उग्र पुरुषार्थ करें । टोकने पर हल्केपन से न लें और न टालें।
26. छात्रावास, अधीक्षक निर्देश
-
छात्रों को पुत्रवत् समझते हुए, अंतरंग वात्सल्य पूर्ण व्यवहार करें।
-
उचित निर्देश एवं नियमावली, अभिप्राय एवं प्रयोग समझाते हुए कहें और उनको विचारने का अवसर दें।
-
नियमावली के बिन्दुओं पर अपने-अपने विचार अभिव्यक्त करने का अवसर प्रदान करने के लिए सभा करायें। जिससे नियमावली एवं उसकी उपयोगिता भलीप्रकार भासित हो जाये।
-
समझ पूर्वक ही स्थाई अनुशासन संभव है। अत: ध्यान रखें कि छात्र भयभीत न हो पायें।
-
भय का वातावरण न बने इसके लिए अनावश्यक अत्यधिक न डाँटे, जोर से न बोलें। कोई बात जल्दी में न कहे अथवा जल्दी-जल्दी अनेक निर्देश न दें । शारीरिक प्रताड़ना तो करें ही नहीं, कहने के बाद पूछ ले कि भलीप्रकार समझ में आया या नहीं।
-
दण्ड व्यवस्था ऐसी बनायें जिससे मानसिक विकास हो, भूल का एहसास हो अर्थात् दण्ड के रूप में अतिरिक्त अध्ययन, सफाई, पाठ जपादि करायें। धीठता करने पर सभी से सम्पर्क विच्छेद (अल्प समय के लिए) कर दें।
-
चित्रकला, लेखन, पठनादि करायें।
-
गलती एवं सही के नंबर (- एवं +) देते हुए कार्ड बनायें । पश्चात् मासिक, द्विमासिक दण्ड व्यवस्था करें।
-
पाक्षिक एवं मासिक कोर्स तैयार करें। उसे निर्धारित समय में पूरा कर, उसी के आधार से प्रश्न मंच एवं अन्य सांस्कृतिक कार्यक्रम करायें। ज्ञान एवं अभिव्यक्ति विकास के कार्यक्रम भी करायें।
-
भोजन एवं चर्या स्वास्थ्य के नियमों के अनुकूल रखें। किसी प्रसंग में असंतोष न बढ़ने दें।
-
किसी की शिकायत पर सीधे ही विश्वास न करें। पूर्ण जानकारी लेकर, दोनों पक्षों को सुनकर योग्य निर्णय लें। समस्या को सुनने एवं सुलझाने की सहज प्रक्रिया अपनायें।
-
परस्पर में विश्वास एवं वात्सल्य पूर्ण वातावरण बनायें, जिससे कोई दोष होने पर छात्र निशंकता से कह सके।
-
छात्र की परेशानी मुद्रा से समझ में आने पर भी उसे सुलझाने की पहल स्वयं करें। उपेक्षा कदापि न करें।
-
सर्व विषयों सम्बन्धी सत्साहित्य पढ़ने की प्रेरणा, व्यवस्था एवं अवसर दें।
-
शारीरिक एवं मानसिक दोनों विकास का ध्यान रखें।
-
दोनों पक्ष (जैसे - दया की प्रेरणा एवं निरर्थक और अनुचित दया का निषेध) समझायें, जिससे छात्र भावुक न बनें अपितु विवेकी बनें।
-
कष्ट सहिष्णु बनने का अभ्यास करायें, जैसे - कभी एकान्त सेवन, कभी समूह में ही रहना, सोना, कभी देर से भोजन, कभी अव्यवस्थित भोजन, कभी अतिरिक्त कार्य, कभी खेल, कभी विश्राम आदि भी करायें।
-
तात्कालिक सूझबूझ विकास के लिए प्रयत्न करें।
-
दुर्घटनाओं से बचने के उपायों पर लेखन एवं भाषण करायें।
27. ट्रस्ट, समिति, संस्थान निर्देश
-
मोहवश अयोग्य परिवारी एवं रिश्तेदारों को सदस्य न बनाया जाये।
-
स्वाध्याय से जुड़े सक्रिय, विवेकी एवं गम्भीर कर्तव्यनिष्ठ साधर्मीजनों को निष्पक्ष रूप से प्रमुखता दें।
-
सदस्यों के स्थान अधिक समय रिक्त न रखें।
-
मीटिगें नियमानुसार समय-समय पर अवश्य होती रहें।
-
आध्यात्मिक संगोष्ठी, तत्त्वज्ञान प्रसार की प्रमुखता रहे।
-
कुरूढ़ि एवं व्यसनमुक्ति अभियान, नैतिक शिक्षा, चिकित्सा, योग-प्राणायाम आदि शिविर भी अवश्य लगायें ।
-
शिकायत की प्रवृत्ति छोड़कर, सहयोगात्मक एवं रचनात्मक विचार एवं वृत्ति बनाएँ।
-
वचन एवं व्यवस्था की प्रामाणिकता रखें।
-
जो राशि जिस कार्य हेतु आए, उसे यथासम्भव उसी कार्य में लगायें। परिवर्तन की स्थिति में दातार की स्वीकृति अवश्य लें। कार्य हो जाने पर भी दातार को सूचित करें ।
-
योग्य व्यक्तियों को तैयार करते जायें । भिन्न कार्यों हेतु प्रभारी एवं समितियां बनाकर, प्रशासन का विकेन्द्रीकरण करते जायें। पहले से जुड़े सक्रिय तत्त्वरुचि वाले लोगों को रिक्त स्थान की पूर्ति करते समय प्राथमिकता दें।
-
धन के लोभ से नये लोगों का शीघ्रता से अति विश्वास न करें। पद योग्य व्यक्ति का निर्णय, विवेक पूर्वक वर्तन के बाद ही करें।
28. व्यापार निर्देश
-
लेन-देन में अत्यन्त सावधानी वर्ते । उधार देने से भी बचते रहें। वचन का निर्वाह करें।
-
वचन के पक्के रहें, परन्तु वचन निर्वाह का टेंशन न करें। कोई मिथ्या अनुबन्ध हो जाने पर, गुरुजनों की मध्यस्थता में सुलझायें।
-
हिसाब (लेखा) साफ एवं स्पष्ट रखें, इसमें उपयोग सूक्ष्म रखें, विशेष रूप से देने के प्रसंग में स्वयं पहल करें।
-
भावावेश में कोई अनुबन्ध या व्यापार न करें।
-
अनावश्यक कर्ज न लें, कर्ज शीघ्र चुकाने की नियत एवं प्रयत्न रखें।
-
आवश्यकता, सामर्थ्य एवं पूँजी से अधिक व्यापार कदापि न करें।
-
निवृत्ति की भावना रखें एवं योजनाबद्ध ढंग से निवृत्ति की ओर बढ़े।
-
व्यापार के (प्रतिदिन) घण्टे भी स्थूल रूप से निश्चित करें, विशेष परिस्थिति में छूट। शेष समय सत्संगति, तीर्थयात्रा आदि सत्कार्यों में लगायें।
-
व्यापारादि के कारण चर्या को न बिगाड़े। नीति एवं सिद्धान्तों में शिथिलता न करें।
-
धर्मध्यान, स्वास्थ्य, पारिवारिक एवं सामाजिक दायित्वों का भी निष्ठापूर्वक निर्वाह करें।
-
असीमित व्यापार न बढ़ाते जायें। आय का निश्चित अंश, दान एवं परोपकार के कार्यों में अवश्य खर्च करें।
-
भावुकता पूर्वक अपनी आमदानी से अधिक खर्च न करें। मितव्ययी बने रहें।
-
सहायता भी अपनी शक्ति देखकर ही करें। कहीं ऐसा न हो कि बाद में अपनी उलझनें बढ़ जायें एवं व्यवहार बिगड़ जाये। मिथ्या उदारता कभी-कभी कंजूसी से भी अधिक कष्टप्रद हो जाती है।
-
लघुजनों को उदारता पूर्वक सहयोग करें। दूसरों को भी आजीविका प्रदान करें।
-
अपने से कमजोर लोगों का ध्यान रखें, आवश्यकतानुसार एडवांस भी दे देवें, अपने कारण उन्हें हानि न हो पाये। उनका उदारता एवं युक्ति पूर्वक सहयोग करें।
-
अन्याय एवं शोषण कदापि न करें।
-
दूसरों से ईर्ष्या न करें। उनकी हानि कभी न सोचें ।
-
ऐसा व्यापार प्रारंभ ही न करें जिसका सीधा सम्बन्ध (कच्चा माल आदि) कत्लखानों आदि से प्राप्त होता हो।
-
ऐसा व्यापार न करें, जिससे अन्य बहुत से लोगों का व्यापार छिन जाये।
-
नकली या मिलावट पूर्ण ऐसी सामग्री न बेचें जिससे दूसरों को हानि हो।
-
लोभवश अनैतिक या अनिश्चितता पूर्ण (अत्यधिक उतार चढ़ाव वाले) व्यापार न करें । सिनेमा, नशा, मेडिकल, जुआ, सट्टा, लॉटरी, शेयरादि के व्यापारों का त्याग ही कर दें।
-
हिंसक एवं विलासिता की सामग्री न बेचें, दीपावली पर पटाखे आदि न बेचें। ईमानदारी, प्रामाणिकता एवं सौहार्दपूर्ण व्यवहार रखें।
-
वैभव का मिथ्या प्रदर्शन न करें। प्रदर्शन पूर्ण आयोजनों से भी दूर रहें। आमदनी अधिक होने पर भी आवास, वेशभूषा, खान-पान में विवेक पूर्वक सादगी एवं संतोष रखें।
-
राज्य के नियमों का पालन करें, टेक्स आदि भी उचित रीति से समय पर जमा करायें।
29. सर्विस निर्देश
30. अल्प बचत निर्देश
धन का सदुपयोग
31. विवाह निर्देश
32. शिशुपालन निर्देश
33. बाल एवं किशोर निर्देश
34. युवा निर्देश
35. बच्चों को छोटी उम्र में बाहर भेज देने के दुष्परिणाम
36. नारी निर्देश
37. प्रौढ़ एवं वृद्धजन निर्देश
38. सेवा निर्देश
-
सेवा करने से पहले सेवा का स्वरूप एवं प्रक्रिया अवश्य पढ़ें, सुनें एवं समझें।
-
सेवा निष्पृह भाव से, सौभाग्य मानते हुए करें, अंतरंग में वात्सल्य भाव रखें, किसी प्रसंग में अहसान न जतायें।
-
सेवा, विवेक और यत्नाचार पूर्वक ही करना चाहिए, सेवा करते समय विकथा या असावधानी कदापि न करें।
-
योग्य काल में धैर्य एवं साधना में सहयोगी उचित सेवा ही कार्यकारी है।
-
सेव्य की संतुष्टि का ध्यान रखें। जागृत उपयोग पूर्वक उसकी बात सुनें, प्रसन्न करने वाला योग्य उत्तर दें। अयोग्य इच्छा का भी निषेध इसप्रकार करें जिससे उसे क्षोभ न हो। तीव्र कर्मोदय में उसके द्वारा अयोग्य व्यवहार भी हो तो उसे शांति से सहन करते हुए, उसकी उपेक्षा कदापि न करें।
-
धार्मिक सम्बोधन भी कोमलता पूर्वक प्रसंग के अनुसार करें। भक्ति, पाठ, प्रवचन आदि की कैसिट, रुचि के अनुसार लगायें।
-
उसके संयम-नियम को मोह, मानादिवश मायाचार करते हुए बिगाड़ें नहीं। प्रत्येक परिचर्या उसके संयम के अनुकूल ही करें। जैसे - त्याज्य वस्तु खाने को औषधि में भी न दें। मर्यादा भंग न करें। कपड़े धोने हों तो अनछने पानी से अथवा अधिक साबुनादि लगाकर न धोवें या छिपाकर धोबी आदि से न धुलवायें।
-
उसके स्थान पर गंदगी न रखें । ग्लानि छोड़कर सफाई रखें। सभी कार्य समय पर करें। कार्य दूसरों से कह कर भूल न जायें, यह भी देखें कि कार्य हुआ है या नहीं। किसीप्रकार बहाने बनाते हुए बचने का प्रयत्न न करें।
-
मात्र इच्छापूर्ति में ही सहायक न हों, उसके धर्मध्यान में सहायक हों।
-
अनजान बने रहने का नाटक करते हुए कुतर्क न करें। किसी प्रकार कषाय के प्रसंग उपस्थित न होने दें। हर प्रकार से योग्य व्यवहार करते हुए, उसकी प्रतिभा एवं क्षमता का सदुपयोग करायें। अयोग्य व्यवहार से उसे थकायें नहीं। वातावरण अच्छा रखें।
-
सामने विनय और मिष्ट वचन बोलें, परन्तु पीछे निंदा करें यह ठीक नहीं है।
-
दूसरों के कहने मात्र से ही शंका करना कदापि उचित नहीं। स्वयं निर्णय करें।
-
अनावश्यक सेवा प्रमाद या अभिमान की पोषक होने से त्याज्य है।
-
सेवा पुण्य प्रमाण ही होती है,अधिक सेवा की चाह सर्वथा अनुचित है। सेवा को हस्तावलम्बन समझकर, शीघ्र ही स्वावलम्बी होना उचित है। सर्वथा पराश्रित हो जाना क्लेशकारक ही समझें।
-
सेवा कराने के लिए भी संतोष, क्षमा, सहनशीलता, विवेक, तत्त्वविचार आवश्यक है। क्षण-क्षण में झुंझलाने, चिल्लाने, टोंकने (विशेषत: दूसरों के सामने तिरस्कृत करने) से सेवा करने वाले में श्रद्धा एवं आदर भाव नहीं रह पायेगा, वह हतोत्साहित होकर हट जायेगा, आपका निंदक हो जायेगा।
-
व्यक्ति के समक्ष दूसरे की अत्यधिक प्रशंसा करते रहने से भी उसमें हीन भावना अथवा ईर्ष्याभाव जग जाता है, जिससे वह दूर हो जाता है।
39. रोगी सेवा निर्देश
-
रोगी से आन्तरिक स्नेहपूर्ण व्यवहार करें।
-
मृदुभाषा में अल्प बोलें।
-
शारीरिक एवं मानसिक विश्राम एवं सन्तुष्टि का विशेष ध्यान रखें।
-
रोगी को अनावश्यक अकेला न छोड़ें। उसकी परिचर्या उसके नियत समय के अनुसार ही करें। किसी प्रकार का छल या प्रमाद न करें।
-
सेवा का प्रदर्शन एवं कमरे में भीड़ या विकथा न होने दें।
-
रोगी के औदायिक भावों एवं चेष्टाओं को सहन भी करें, उपगूहन भी करें।
-
भोजन का न आग्रह करें, न अति करें। विवेक पूर्वक ही व्यवहार करें। धैर्य एवं सन्तुलन न खोयें।
-
पानी औषधि का विशेष ध्यान रखें। बर्तन वैसे ही न पड़े रहने दें। व्यवस्थित एवं साफ करके ही रखें।
-
थूकने, वमन, पट्टी आदि के बर्तन, कपड़े अलग रखें, उन्हें भी स्वच्छ रखें।
-
वस्त्र पहनने, बिछाने, ओढ़ने, पोंछने के स्वच्छ एवं छोटे बड़े सुविधानुसार रखें। पुराने कपड़े भी धुले हुए रखे रहें, जिससे पट्टी, पसीना पोंछने में परेशानी एवं अपव्यय न हो।
-
व्यवस्था दूसरों पर ही न छोड़ें और दूसरों से कहकर निश्चिंत तो कदापि न होवें । जानकारी अवश्य रखें।
-
चिकित्सा एवं सेवा योग्य वैद्य के परामर्शानुसार ही करें। चाहे किसी की सलाह-अनुसार, चाहे कुछ न करने लगे।
-
आयुर्वेद एवं प्राकृतिक चिकित्सा पद्धति को भलीप्रकार समझकर सुमेल रखें। कभी कुछ काढ़े आदि आयुर्वेदानुसार और कभी रस एवं फल प्राकृतिक अनुसार न दें। पट्टी, एनीमा आदि का प्रयोग भी चिकित्सक से पूछकर ही करें।
-
एक्यूप्रेशर, चुम्बकीयादि पद्धतियों का अवलम्बन विवेक पूर्वक लेवें।