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अपने को ध्रुव ज्ञानानंदमय आत्मा ही समझें।
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भयभीत कभी न हों, सावधान सदैव रहें।
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अपने समान ही सर्व जीवों को समझें और सबके प्रति वात्सल्यपूर्ण व्यवहार करें।
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मोह, क्रोध, मान, माया, लोभ, ईर्ष्या, काम, हास्यादि दुर्भावों के वश होकर दुर्वचन न बोलें। दुष्चेष्टाऐं न करें।
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प्रशंसा की चाह न रखते हुए भी सदैव प्रशंसनीय कार्य करें। निंदा की परवाह न करते हुए भी निंदनीय कार्य कभी न करें।
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सम्यक्त्व को कभी मलिन न होने दें।
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देव-शास्त्र-गुरु के प्रति निष्काम भक्ति एवं हेय-उपादेय के सांगोपांग विचार पूर्वक, अंतरंग एवं बाह्यप्रवृत्ति को निर्मल रखें।
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अर्जित विद्या का दैनिक जीवन एवं परोपकार में सदुपयोग करें। मूढ़ताओं एवं कषायों में न उलझें।
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जीवनपर्यन्त श्रेष्ठ साहित्य एवं धार्मिक ग्रन्थों के अध्ययनशील रहें। नवीन ज्ञान के लिए जिज्ञासु एवं प्रयत्नशील रहें।
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समय-समय पर होने वाली गोष्ठियों में सम्मिलित होवें और स्वयं भी ज्ञानवर्द्धक गोष्ठियों का आयोजन करें।
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भ्रष्टाचार में सहयोगी भी न बनें।
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अन्याय से धन न कमायें, आय का निश्चित अंश दान में अवश्य खर्च करें।
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शील की मर्यादाओं के पालन में सतर्क रहें।
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कर्तव्य का पालन ईमानदारी एवं निष्ठापूर्वक करें।
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निंद्य कार्यों - नशा, तामसिक भोजन, मांसाहारादि से सर्वथा दूर रहें।
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गुरुजनों का सम्मान रखें एवं योग्य सेवा व्यवहार करें।
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समाज एवं देश के हित में ही सोचें।
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किसी प्रसंग में उत्तेजित न हों। उत्तेजना में निर्णय तो कदापि न लें।
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कठोरता एवं क्रूरता पूर्वक दण्ड भी न दें।
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भौतिकता की चकाचौंध में फँसकर धर्म, सादगी एवं संतोष को कभी न छोड़ें।
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अपने दोष को सहजता से स्वीकार करें। कभी कुतर्कों के द्वारा अपने दोष छिपाने का प्रयत्न न करें।
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प्रत्येक कार्य विवेक, विनय, यत्नाचार एवं उत्साहपूर्वक करें । प्रमाद, अहंकार, कुतर्क सर्वत्र त्याज्य हैं।