45. कार्यक्रम उद्घाटन निर्देश
-
ज्ञानवृद्धि, परिणाम विशुद्धि, परस्पर वात्सल्य ही कार्यक्रम का प्रयोजन रखें।
-
निस्पृहता, अनुशासन एवं उत्साहपूर्वक कार्यक्रम संपन्न करें।
-
किसी प्रसंग में उत्तेजित, खिन्न और हतोत्साहित न हों।
-
अपने कार्य को निष्ठापूर्वक करते हुए, दूसरों के कार्य में भी सहयोग करें।
-
प्रतिकूल प्रसंगों में दूसरों पर दोषारोपण न करें। प्रतिष्ठा बिन्दु बनाकर कार्यक्रम में विघ्न न करें।
-
विशेष प्रतिकूलता आने पर भी माध्यस्थ ही रहें, परन्तु अंतरंग प्रीति पूर्वक परोक्षरूप से ऐसा सहयोग करें कि किसीप्रकार आयोजक को ठेस न पहुँचे एवं सामाजिक वातावरण विकृत न हो पावे।
-
किसी प्रसंग में स्वयं ही श्रेय, प्रशंसा एवं पुरस्कार लेने के लिए लालायित एवं अग्रसर न हों। दूसरों को अवसर दें।
-
नये सहयोगीजनों को उत्साहित करते हुए तैयार करें। उनका यथायोग्य सहयोग करें। दोषों का उपगूहन करें।
-
किसी की कमियों को कदापि न उछालें।
-
समस्त जानकारी प्रमाणिक रूप से संग्रह कर संक्षिप्त एवं स्पष्ट संचालन विनयपूर्वक करें। संचालन सफलता का प्रमुख कारण समझें।
-
अतिरिक्त प्रदर्शन किसी प्रसंग में न करें।
-
अनैतिक व्यक्तियों को सामाजिक सम्मान न दें, परन्तु तिरस्कार कदापि न करें। उन्हें भी जुड़ने एवं सुधरने का अवसर प्रदान करें।
-
त्यागियों एवं विद्वानों से, धनवानों एवं नेताओं का सम्मान न करवायें।
(table of contents)