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आयोजन आवश्यक होने पर ही किये जावें।
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आयोजन मैत्रीभाव, दया, प्रमोदादि भावना सहित सरल एवं समर्पण भाव पूर्वक करें।
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नानाप्रकार से दबाव पूर्वक चन्दा करके धन संग्रह उचित नहीं है।
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धनार्जन के लिए न धार्मिक क्रियाओं को विकृत या गौण करें और न शिथिलाचार का पोषण करें।
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अन्याय, हिंसात्मक, अयोग्य व्यापार एवं भ्रष्टाचार से उपार्जित धन से बचें।
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नीति एवं धर्म से विरूद्ध व्यक्तियों को प्रमुखता न दें। उनका सम्मान तो कदापि न करें।
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तत्त्वज्ञान एवं धर्माचरण से रहित व्यक्तियों को भी धर्म मार्ग में लगाने की पवित्र भावना से ग्लानि एवं तिरस्कार न करते हुए, यथायोग्य रीति से सम्मिलित करना अलग बात है।
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अभिमान के वशीभूत होकर आडम्बरपूर्ण कार्य या धर्म विरुद्ध रात्रिभोजनादि न करें।
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आवश्यकतानुसार विद्यालय, छात्रावास, चिकित्सालय, शुद्ध भोजनालय, समाजोपयोगी उद्योग केन्द्र आदि बनायें।
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सादगी, मितव्यता, यत्नाचार, अहिंसा, शील की मर्यादाओं, वेशभूषा, जैन संस्कृति संरक्षण का विशेष ध्यान रखें।
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कार्यक्रमों में फिल्मी तर्ज पर संगीत, वेशभूषा, नृत्य, अभिनय आदि का मर्यादा के विरुद्ध प्रदर्शन न करें।
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कार्यक्रम से अधिक से अधिक जैन लोगों को आजीविका मिले और जैन समाज आर्थिक रूप से भी सम्पन्न बने, ऐसा प्रयत्न करें।
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जैन शिल्पकार, मूर्तिकार, टेन्ट, टेलर, गाडियाँ, ठेकेदार, डेकोरेशन, भोजन स्टाफ आदि तैयार करें।
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आयोजन समितियां, ट्रस्ट- इनके लिये पूर्व से ही जैनों को प्रेरित करें एवं आर्थिक सहयोग जुटावें। कहीं ऐसा न हो कि हमारे समाज से इन कार्यक्रमों के माध्यम से पैसा निकलता जाऐ और समाज का मध्यम वर्ग आर्थिक दृष्टि से कमजोर होता जाऐ।
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समाज के कमजोर वर्ग को आजीविका देने का दायित्व समाज के प्रमुख लोग सम्हालें। इसके लिये जैन बैंक, फाइनेंस कम्पनी, लघु-उद्योग केन्द्र, चिकित्सालय, विद्यालयों की राष्ट्रव्यापी शाखायें उनका सरकारी प्रारूप, जैसे-संचालन की व्यवस्थायें बनाने में धनी लोगों को प्रेरित एवं नियोजित करें।
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जैन संस्थाओं में साम्प्रदायिक भावना से योग्य व्यक्तियों की उपेक्षा न करते हुए भी जैन ईमानदार एवं सदाचारी लोगों को प्रमुखता दें।
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अनुष्ठानात्मक आयोजनों की अपेक्षा ज्ञान प्रधान आयोजन अधिक करें, जिससे समाज का बौद्धिक स्तर ऊँचा हो।
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धार्मिक, नैतिक, चिकित्सा, योग, शिक्षा, व्यापार, सर्विस एवं अन्य समस्याओं के निराकरण हेतु सलाह प्रकोष्ठ बनायें।
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जैनों की सामाजिक प्रतिष्ठा की वृद्धि के लिए लोकोपकारी कार्य भी करें। हमारी पहिचान बने कि जैन भ्रष्टाचारी नहीं होते।व्यापार, सर्विस, मिशन आदि में ईमानदारी, कर्तव्यनिष्ठा, त्याग, सेवा के आदर्श स्थापित करें, जिनसे प्रभावित होकर दूसरे लोग जैनधर्म के प्रति हृदय से आकर्षित हों।
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शोषण, अन्याय, रूढ़ियों एवं कुरीतियों के विरुद्ध अभियान चलायें।
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जो वास्तव में आराधना एवं साधना में लगे हैं, उनकी अनुमोदना एवं सर्वप्रकार से सहयोग करें, उन्हें बाह्य आरम्भपूर्ण व्यवस्थाओं में न उलझायें। उनकी भूमिका के योग्य उचित विकल्पों की पूर्ति के लिए स्वयं दायित्व सम्हालें एवं अनुचित विकल्पों का विनय पूर्वक दृढ़ता से निषेध करें और न कर सकें तो कम से कम मध्यस्थ तो अवश्य रहें।