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जिनमंदिर आवश्यक होने पर ही बनायें।
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स्थान का चयन अत्यंत विचार पूर्वक करें, जहाँ का वातावरण शान्त हो एवं श्रावकों के समीप हो । स्थान विवादास्पद न हो,जबरन कब्जा न करें।
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शक्ति अनुसार स्थान अत्यन्त बड़ा लें, जिससे वहाँ मंदिर, कॉलोनी, बाल-वृद्ध-महिला आश्रम, धर्मशाला, छात्रावास, मुमुक्षु निवास, अतिथिगृह आदि बनाये जा सकें। साधनों के अभाव में अस्थाई व्यवस्था बना लेवें।
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व्यवस्था एवं सुरक्षा की दृष्टि से मंदिरजी से जुड़ी एक संस्था अत्यन्त आवश्यक है, जहाँ दो चार साधर्मी रह सकें। आवास व्यवस्थित एवं स्वच्छ बनायें।
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नक्शा ऐसा बनायें, जिससे स्वाध्याय, पाठशाला, पूजन विधान निराकुलता से हो सके।
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सांस्कृतिक कार्यक्रम, सामूहिक बैठक (मीटिंग) आदि के लिए अलग स्थान हो। स्नान, पूजन-सामग्री, धोती-दुपट्टा आदि का स्थान ऐसा हो जो वेदी, प्रवचन लांघकर न निकलना पड़े।
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वेदी पूरी तरह से बंद हो, जिससे छिपकली, चूहे आदि जीव जन्तु श्री जी को स्पर्श न कर सकें, वहाँ गंदगी न कर सकें।
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मंदिर जी की दीवाल से लगाकर बाथरूम, लेटरिन या इनसे सहित कमरे न बनायें।
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त्यागी, विद्वानों हेतु मंदिर से हटकर कक्ष बनावें।
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पुजारी, माली आदि कर्मचारी-सदाचारी हों, यदि मंदिर परिसर में उनके निवास हों तो ध्यान रखें वह बीड़ी, जर्दा, गुटखा, आलू-प्याज आदि अभक्ष्य पदार्थों का सेवन न करते हों और न ही टी. व्ही. आदि की आवाजों से वहाँ का वातावरण दूषित करते हों।
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धोती-दुपट्टा सुखाने का स्थान सुरक्षित छायादार हो।
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वाहन खड़े करने एवं जूता-चप्पल उतारने हेतु पर्याप्त सुरक्षित स्थान हो।
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ऐसी मजबूत व्यवस्था करें कि मंदिरजी में चिड़िया आदि पक्षी प्रवेश न कर पावें। खुले स्थानों पर द्रव्य चढ़ाने के लिए अच्छी जालीदार पेटियाँ रखें।
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वेदी में श्रीजी विराजमान हों और वहाँ कोई निर्माण कार्य चल रहा हो तो पर्दा अवश्य डाल दें।
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पानी एवं अन्य घोल खुले न छोड़े। सीमेंट, चूने, रंग, पेंट के दाग तुरंत साफ करा देवें।
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मंदिरजी में हिंसक सामग्री से उत्पन्न अशुद्ध वस्तुओं (जैसे सनमाइका, स्वर्ण वर्क, अगरबत्ती, सरेस तथा चिकना चमकदार कागज आदि) का प्रयोग न करें।
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जीना (सीढ़ियाँ) एवं द्वार कम से कम दो हों।
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हरियाली एवं अधिक लाइट कदापि न लगायें।
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पालिशादि में हिंसात्मक पद्धतियों का प्रयोग केवल सौन्दर्य के लिए न किया जाये।
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हवा एवं प्रकाश के लिए खिड़की, रोशनदान एवं जाल आवश्यकतानुसार पर्याप्त हों।
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जैन संस्कृति एवं पानी के जीवों की रक्षा हेतु कुआँ अवश्य हो। जिससे श्री जी के प्रक्षाल व मुनिराजों, व्रतियों के लिए शुद्ध जल प्राप्त हो सकेगा।
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वेदियों में रंग स्वर्ण चित्रकारी न करें, स्वर्ण वर्कों का प्रयोग कलशों पर भी न करें।
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वेदियाँ एक या तीन हो, वेदियों के अनुपात से ही द्वारादि हों।
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प्रतिमा सर्वांगीण शुद्ध एवं सुन्दर हो। बिना पालिश की देखें और देखने के बाद पालिश करायें।
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प्रतिष्ठापाठ एवं वास्तु विज्ञान का उपहास पूर्वक निषेध न किया जावे। निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध मात्र को मिथ्यात्व मान लेना ठीक नहीं।
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पानी छानने की व्यवस्था हेतु एक मजदूर लगायें, उसे समझाकर दया पालन करावें।
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किसी मजदूर या व्यापारी को लेन-देन में परेशान न करें। किसी व्यक्ति का शोषण न हो पाये-ऐसा ध्यान रखें।
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चित्रकारी एवं लिखाई अत्यधिक न करायें । रंग गहरे न भरें। चित्रों में मुद्रा सादा एवं शीलयुक्त हो । वस्त्र पदों की मर्यादा के उपयुक्त हों।
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खिड़की, दरवाजे, फर्श गहरे रंग के डिजायनदार न बनायें, क्योंकि उनमें सफाई करते समय जीव दिखाई नहीं देते एवं सफाई में समय अधिक बर्बाद होता है।
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मंदिर निर्माण के साथ ही स्वयं की निवृत्ति का संकल्प कर लेना अथवा उसकी संभाल के लिए एक निवृत्त व्यक्ति खोजकर रख लेना अति आवश्यक है।
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मंदिरजी में पूजन, पाठशाला, स्वाध्याय, सत्समागम, आयोजन, साधर्मी व्यवस्थाओं में कंजूसी पूर्वक उपेक्षा कदापि न करें।
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अलग-अलग व्यवस्थाओं के लिये अलग-अलग फण्ड एवं सैद्धांतिक दृढ़ता एवं व्यवहारिक उदारवृत्ति वाले प्रभारी बनायें।
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मूर्तियाँ अधिक विराजमान न करें। अनावश्यक रचनाएँ (समवशरण, नंदीश्वरादि) न बनायें।
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निर्माण में यत्नाचार, विवेक, दया, क्षमा आदि का ध्यान रखें।
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विस्तृत लक्ष्य भले रखें, परन्तु अनावश्यक दबाव पूर्वक चन्दादि करके आयोजनों में मिथ्याप्रदर्शन, धन, कागज, फ्लैक्स आदि बर्बाद न करें।
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मंदिर जी में दैनिक उपयोगी, नैमित्तिक उपयोगी, मासिक पत्र-पत्रिकाओं तथा दुर्लभ ग्रंथों को यथास्थान अलग अलग विराजमान किये जाने की उचित व्यवस्था करें।
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पंचकल्याणक प्रतिष्ठा के सभी पात्र व्यसन एवं लोकनिंद्य कार्यों के त्यागी हों। प्रतिदिन या कम से कम सप्ताह में एक या दो दिन पूजन, मंदिरजी की वैयावृत्ति का नियम अवश्य करें।