जीवन पथ दर्शन - ब्र. श्री रवीन्द्र जी 'आत्मन्' | Jeevan Path Darshan


39. रोगी सेवा निर्देश

  1. रोगी से आन्तरिक स्नेहपूर्ण व्यवहार करें।

  2. मृदुभाषा में अल्प बोलें।

  3. शारीरिक एवं मानसिक विश्राम एवं सन्तुष्टि का विशेष ध्यान रखें।

  4. रोगी को अनावश्यक अकेला न छोड़ें। उसकी परिचर्या उसके नियत समय के अनुसार ही करें। किसी प्रकार का छल या प्रमाद न करें।

  5. सेवा का प्रदर्शन एवं कमरे में भीड़ या विकथा न होने दें।

  6. रोगी के औदायिक भावों एवं चेष्टाओं को सहन भी करें, उपगूहन भी करें।

  7. भोजन का न आग्रह करें, न अति करें। विवेक पूर्वक ही व्यवहार करें। धैर्य एवं सन्तुलन न खोयें।

  8. पानी औषधि का विशेष ध्यान रखें। बर्तन वैसे ही न पड़े रहने दें। व्यवस्थित एवं साफ करके ही रखें।

  9. थूकने, वमन, पट्टी आदि के बर्तन, कपड़े अलग रखें, उन्हें भी स्वच्छ रखें।

  10. वस्त्र पहनने, बिछाने, ओढ़ने, पोंछने के स्वच्छ एवं छोटे बड़े सुविधानुसार रखें। पुराने कपड़े भी धुले हुए रखे रहें, जिससे पट्टी, पसीना पोंछने में परेशानी एवं अपव्यय न हो।

  11. व्यवस्था दूसरों पर ही न छोड़ें और दूसरों से कहकर निश्चिंत तो कदापि न होवें । जानकारी अवश्य रखें।

  12. चिकित्सा एवं सेवा योग्य वैद्य के परामर्शानुसार ही करें। चाहे किसी की सलाह-अनुसार, चाहे कुछ न करने लगे।

  13. आयुर्वेद एवं प्राकृतिक चिकित्सा पद्धति को भलीप्रकार समझकर सुमेल रखें। कभी कुछ काढ़े आदि आयुर्वेदानुसार और कभी रस एवं फल प्राकृतिक अनुसार न दें। पट्टी, एनीमा आदि का प्रयोग भी चिकित्सक से पूछकर ही करें।

  14. एक्यूप्रेशर, चुम्बकीयादि पद्धतियों का अवलम्बन विवेक पूर्वक लेवें।

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