जीवन पथ दर्शन - ब्र. श्री रवीन्द्र जी 'आत्मन्' | Jeevan Path Darshan


38. सेवा निर्देश

  1. सेवा करने से पहले सेवा का स्वरूप एवं प्रक्रिया अवश्य पढ़ें, सुनें एवं समझें।

  2. सेवा निष्पृह भाव से, सौभाग्य मानते हुए करें, अंतरंग में वात्सल्य भाव रखें, किसी प्रसंग में अहसान न जतायें।

  3. सेवा, विवेक और यत्नाचार पूर्वक ही करना चाहिए, सेवा करते समय विकथा या असावधानी कदापि न करें।

  4. योग्य काल में धैर्य एवं साधना में सहयोगी उचित सेवा ही कार्यकारी है।

  5. सेव्य की संतुष्टि का ध्यान रखें। जागृत उपयोग पूर्वक उसकी बात सुनें, प्रसन्न करने वाला योग्य उत्तर दें। अयोग्य इच्छा का भी निषेध इसप्रकार करें जिससे उसे क्षोभ न हो। तीव्र कर्मोदय में उसके द्वारा अयोग्य व्यवहार भी हो तो उसे शांति से सहन करते हुए, उसकी उपेक्षा कदापि न करें।

  6. धार्मिक सम्बोधन भी कोमलता पूर्वक प्रसंग के अनुसार करें। भक्ति, पाठ, प्रवचन आदि की कैसिट, रुचि के अनुसार लगायें।

  7. उसके संयम-नियम को मोह, मानादिवश मायाचार करते हुए बिगाड़ें नहीं। प्रत्येक परिचर्या उसके संयम के अनुकूल ही करें। जैसे - त्याज्य वस्तु खाने को औषधि में भी न दें। मर्यादा भंग न करें। कपड़े धोने हों तो अनछने पानी से अथवा अधिक साबुनादि लगाकर न धोवें या छिपाकर धोबी आदि से न धुलवायें।

  8. उसके स्थान पर गंदगी न रखें । ग्लानि छोड़कर सफाई रखें। सभी कार्य समय पर करें। कार्य दूसरों से कह कर भूल न जायें, यह भी देखें कि कार्य हुआ है या नहीं। किसीप्रकार बहाने बनाते हुए बचने का प्रयत्न न करें।

  9. मात्र इच्छापूर्ति में ही सहायक न हों, उसके धर्मध्यान में सहायक हों।

  10. अनजान बने रहने का नाटक करते हुए कुतर्क न करें। किसी प्रकार कषाय के प्रसंग उपस्थित न होने दें। हर प्रकार से योग्य व्यवहार करते हुए, उसकी प्रतिभा एवं क्षमता का सदुपयोग करायें। अयोग्य व्यवहार से उसे थकायें नहीं। वातावरण अच्छा रखें।

  11. सामने विनय और मिष्ट वचन बोलें, परन्तु पीछे निंदा करें यह ठीक नहीं है।

  12. दूसरों के कहने मात्र से ही शंका करना कदापि उचित नहीं। स्वयं निर्णय करें।

  13. अनावश्यक सेवा प्रमाद या अभिमान की पोषक होने से त्याज्य है।

  14. सेवा पुण्य प्रमाण ही होती है,अधिक सेवा की चाह सर्वथा अनुचित है। सेवा को हस्तावलम्बन समझकर, शीघ्र ही स्वावलम्बी होना उचित है। सर्वथा पराश्रित हो जाना क्लेशकारक ही समझें।

  15. सेवा कराने के लिए भी संतोष, क्षमा, सहनशीलता, विवेक, तत्त्वविचार आवश्यक है। क्षण-क्षण में झुंझलाने, चिल्लाने, टोंकने (विशेषत: दूसरों के सामने तिरस्कृत करने) से सेवा करने वाले में श्रद्धा एवं आदर भाव नहीं रह पायेगा, वह हतोत्साहित होकर हट जायेगा, आपका निंदक हो जायेगा।

  16. व्यक्ति के समक्ष दूसरे की अत्यधिक प्रशंसा करते रहने से भी उसमें हीन भावना अथवा ईर्ष्याभाव जग जाता है, जिससे वह दूर हो जाता है।

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