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सेवा करने से पहले सेवा का स्वरूप एवं प्रक्रिया अवश्य पढ़ें, सुनें एवं समझें।
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सेवा निष्पृह भाव से, सौभाग्य मानते हुए करें, अंतरंग में वात्सल्य भाव रखें, किसी प्रसंग में अहसान न जतायें।
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सेवा, विवेक और यत्नाचार पूर्वक ही करना चाहिए, सेवा करते समय विकथा या असावधानी कदापि न करें।
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योग्य काल में धैर्य एवं साधना में सहयोगी उचित सेवा ही कार्यकारी है।
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सेव्य की संतुष्टि का ध्यान रखें। जागृत उपयोग पूर्वक उसकी बात सुनें, प्रसन्न करने वाला योग्य उत्तर दें। अयोग्य इच्छा का भी निषेध इसप्रकार करें जिससे उसे क्षोभ न हो। तीव्र कर्मोदय में उसके द्वारा अयोग्य व्यवहार भी हो तो उसे शांति से सहन करते हुए, उसकी उपेक्षा कदापि न करें।
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धार्मिक सम्बोधन भी कोमलता पूर्वक प्रसंग के अनुसार करें। भक्ति, पाठ, प्रवचन आदि की कैसिट, रुचि के अनुसार लगायें।
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उसके संयम-नियम को मोह, मानादिवश मायाचार करते हुए बिगाड़ें नहीं। प्रत्येक परिचर्या उसके संयम के अनुकूल ही करें। जैसे - त्याज्य वस्तु खाने को औषधि में भी न दें। मर्यादा भंग न करें। कपड़े धोने हों तो अनछने पानी से अथवा अधिक साबुनादि लगाकर न धोवें या छिपाकर धोबी आदि से न धुलवायें।
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उसके स्थान पर गंदगी न रखें । ग्लानि छोड़कर सफाई रखें। सभी कार्य समय पर करें। कार्य दूसरों से कह कर भूल न जायें, यह भी देखें कि कार्य हुआ है या नहीं। किसीप्रकार बहाने बनाते हुए बचने का प्रयत्न न करें।
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मात्र इच्छापूर्ति में ही सहायक न हों, उसके धर्मध्यान में सहायक हों।
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अनजान बने रहने का नाटक करते हुए कुतर्क न करें। किसी प्रकार कषाय के प्रसंग उपस्थित न होने दें। हर प्रकार से योग्य व्यवहार करते हुए, उसकी प्रतिभा एवं क्षमता का सदुपयोग करायें। अयोग्य व्यवहार से उसे थकायें नहीं। वातावरण अच्छा रखें।
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सामने विनय और मिष्ट वचन बोलें, परन्तु पीछे निंदा करें यह ठीक नहीं है।
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दूसरों के कहने मात्र से ही शंका करना कदापि उचित नहीं। स्वयं निर्णय करें।
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अनावश्यक सेवा प्रमाद या अभिमान की पोषक होने से त्याज्य है।
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सेवा पुण्य प्रमाण ही होती है,अधिक सेवा की चाह सर्वथा अनुचित है। सेवा को हस्तावलम्बन समझकर, शीघ्र ही स्वावलम्बी होना उचित है। सर्वथा पराश्रित हो जाना क्लेशकारक ही समझें।
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सेवा कराने के लिए भी संतोष, क्षमा, सहनशीलता, विवेक, तत्त्वविचार आवश्यक है। क्षण-क्षण में झुंझलाने, चिल्लाने, टोंकने (विशेषत: दूसरों के सामने तिरस्कृत करने) से सेवा करने वाले में श्रद्धा एवं आदर भाव नहीं रह पायेगा, वह हतोत्साहित होकर हट जायेगा, आपका निंदक हो जायेगा।
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व्यक्ति के समक्ष दूसरे की अत्यधिक प्रशंसा करते रहने से भी उसमें हीन भावना अथवा ईर्ष्याभाव जग जाता है, जिससे वह दूर हो जाता है।