37. प्रौढ़ एवं वृद्धजन निर्देश
1. बाह्य उपाधियों को सीमित करते जायें।
2. व्यापार एवं व्यवहार सम्बंधी उत्तरदायित्व बच्चों पर छोड़ें।
3. बच्चों को योग्य निर्देशन दें। समय-समय पर निरीक्षण करते रहें एवं किसी बिगड़ते हुए कार्य को भी ऐसे सम्हालें जिससे बच्चों की प्रतिष्ठा बढ़े और उनके हृदय में आपके प्रति आदर भी बढ़े। इसके लिए पूर्व से अनुभव, पूर्व तैयारी, सूक्ष्म उपयोग, उदारता, क्षमादि गुण, प्रभावशाली (समाज, शासन प्रशासन सम्बन्धी) व्यक्तियों से सम्पर्क रखें।
4. दानादि भी न अंतिम समय के लिये छोड़ें और न भावुकतावश सब पहले ही छोड़ दें। दूसरों की बातों को सुनते हुए भी निर्णय विवेक पूर्वक स्वयं लें।
5. बाह्य त्याग परिस्थिति अनुसार करें । देह से भी निर्मम होते हुए अयोग्य व्यवस्थाओं, चिकित्सा आदि को नियमपूर्वक निषेधे । समाधि के लिए अंतरंग से तैयार एवं उत्साहित रहें।
6. विशेषतः अध्ययन एवं स्वाध्याय में लगे रहें।
7. धर्मायतनों की यथाशक्ति सेवा करें और करायें। समाज सेवा के कार्यों में योग्य सलाह दें एवं अपने प्रभाव का सदुपयोग करें। चमत्कारों, तांत्रिकों एवं ठगों के चक्कर में प्रलोभन या भयवश न फंसे और न किसी को फसायें।
8. स्वास्थ्य एवं कर्तव्यों के प्रति जागरूक रहें।
9. संयम के पथ पर यथाशक्ति बढ़ें। द्रव्य संयम के साथ ही भाव संयम विशुद्धि (अहिंसा क्षमादि गुणों) को प्रमुखता दें।
10. प्रपंचों या विरोधों में न उलझें। निस्पृह एवं मध्यस्थ रहें। अल्प एवं योग्य वचन के अतिरिक्त अधिक से अधिक समय मौन रहकर साधना में लगायें।
11. परिग्रह के साथ-साथ व्यवहार भी सीमित करते जायें। जीवन को सार्थक करें, मात्र पूरा नहीं।