जीवन पथ दर्शन - ब्र. श्री रवीन्द्र जी 'आत्मन्' | Jeevan Path Darshan


21. दान निर्देश :arrow_up:

  1. दान में न्यायोपार्जित धन एवं उपयोगी सामग्री बहुमान पूर्वक दें।

  2. विवेक पूर्वक उपयोगिता एवं पात्रादि का निर्णय करके देखें।

  3. धनादि देने के साथ-साथ आत्मीयता से उचित सलाह अवश्य देवें।

  4. दान हेतु धन तो दें ही, स्वयं विनम्र होकर, आहारादि क्रियाओं में सहभागी भी होवें।

  5. बच्चों को भी दान एवं दया के सम्यक् संस्कार दें । पात्र दान और सेवा कार्य उन्हें देखने भी दें और उन्हें सहभागी भी बनायें। स्वयं करने के लिए निर्देश एवं प्रोत्साहन दें। उनके नाम से अलग-अलग प्रसंगों पर अलग-अलग रसीद बनवायें। बड़ों के नाम से भी दान करें और रसीद उन्हें अवश्य दिखायें, जिससे संतोष हो कि घर में उनका भी सम्मान है।

  6. स्वयं के व्यक्तिगत फण्ड भी बनायें, जिससे गुप्त दान भी किये जा सकें।

  7. त्यागीजनों को श्रद्धा, भक्ति एवं यथायोग्य आदर सहित आवास, शिक्षा, धार्मिक ज्ञानाभ्यास, प्रासुक चिकित्सा एवं अन्य व्यवस्थाओं में उदारता एवं निष्पृहता पूर्वक सहयोग करें; जिससे वे जीवन में भी निश्चिंत एवं स्वस्थ रहकर, स्वयं आराधना कर सकें और समाज को भी उनका लाभ मिल सके।

  8. दान के नाम पर अनावश्यक प्रदर्शन कदापि न करें। महँगे कपड़े या शीघ्र खराब हो जाने वाली घड़ी, टार्च, टेप आदि; हल्की गुणवत्ता की मेवा; बिना मौसम के फल; हल्की पेंसिलें, मंहगी डायरियाँ, बैग आदि न दें।

  9. अभिमान पूर्वक प्रदर्शन न करें। स्वागत, सत्कार, माल्यार्पण न करायें, दृढ़ता पूर्वक इनका निषेध करें।

  10. बार-बार न कहलवायें । स्वयं धन्यवाद दें एवं आभार मानें तथा कहें कि भविष्य में भी इसीप्रकार अवसर देते रहें।

  11. ध्यान रखें - भावुकता या अभिमान के कारण आप पात्र दान से वंचित हो जायेंगे; कार्य तो होंगे ही।

  12. समाजोन्नति, साधर्मीजनों का व्यक्तिगत सहयोग एवं लोकोपकारी कार्य भी विवेक एवं उदारता पूर्वक करें ।

  13. कमजोर वर्ग के लिए निर्दोष शिक्षा, चिकित्सा एवं आजीविका योजनाबद्ध ढंग से करें एवं करायें।

  14. दान देने पर भी, यदि सदुपयोग होता न देखें तो भी निंदा न करें, पछतावा न करें। योग्यता का विचार करते हुए, माध्यस्थ भाव से विरक्त हो जावें।

  15. कान के कच्चे न बनें, परस्थिति समझे। शंका होने पर अधिकृत जानकारी करके, निर्णय करें। हो सकता है कि किन्हीं कारणों, सरकारी उलझनों या अनुभव न होने से अधिक धन लग गया हो। किसी के सीधेपन से या अनजाने कोई भूल हो गई हो। अन्यथा आरोप न करें।

  16. शिकायतें न करते हुए सुझाव एवं सहयोग करने की प्रवृत्ति बनायें।

  17. अच्छे कार्यकर्ताओं का अपवाद करके, न उन्हें हतोत्साहित करें, न स्वयं तीव्र पाप कर्मों का बंध करें ।

  18. किसी विशेष दान का हठ न करते हुए, जहाँ जो आवश्यक दिखे, वह करें। जैसे - मंदिर, मूर्ति, वेदी पहले से हो तो पाठशाला, पुस्तकालय, वाचनालय, साधर्मी निवास में उपकरणादि दें। बड़ी-बड़ी रचनाओं एवं योजनाओं को मुख्य न करके, छोटी-छोटी सादगीपूर्ण उपयोगी योजनाओं को मुख्य करें।

  19. दान के प्रभाव का सदुपयोग प्रदर्शन एवं अनावश्यक स्टेशनरी एवं अन्य खर्ची को रोकने में करें।

  20. भवन निर्माण में सादगी के निर्देश दें। साज सज्जा पर अधिक खर्च एवं प्रोत्साहन न करें। साधर्मी एवं दीन दुखियों के उपकार हेतु शिविर, धार्मिक, नैतिक एवं चिकित्सा शिविरों एवं संस्थानों में वात्सल्य भोज दें एवं अन्य प्रकार सहयोग दें।

  21. विशेष धनी दातार एक मीटिंग करके धर्म प्रभावना एवं समाजोत्थान की प्रतिष्ठापूर्ण राष्ट्रव्यापी योजनायें बनायें।

  22. दान के नाम वाले पाटिया पहले तो लगायें ही नहीं और यदि लगायें तो गुरुजनों के नाम को उर्ध्व रखें। भाषा अत्यंत संक्षिप्त एवं विनयपूर्ण रहे।

  23. छोटी-छोटी राशियों की नाम-सूचि से भरे पाटिया, धर्मायतनों में अत्यंत अशोभनीय लगते हैं। दातारों को नाम का लोभ संवरण कर, स्वयं निषेध करना ही योग्य है। पाटियों पर तो स्तुतियाँ, पाठ, सूक्तियाँ लिखवाना ही श्रेयस्कर है।

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