जय घोष , नारे | Jay Ghosh , Nare

ज्ञाताद्रष्टाआत्मा - बन जाओ परमात्मा।

वस्तु स्वभाव धर्म है - राग-द्वेष अधर्म हैं।

वस्तुस्वरूप पहचान लो - जीव-अजीव जान लो।

जिनवाणी ने क्या दिया - भगवान आत्मा बता दिया।

शुद्ध-बुद्ध मैं चेतन हूँ - राग भाव से भिन्न हूँ।

पुण्य-पाप तो कर्म हैं - ज्ञानभाव से भिन्न हैं।

गुरु के पथ पर बढ़ना है - सम्यग्चारित धरना है।

मात-पिता का आदर जहाँ - संस्कारों का सागर वहाँ।

ज्ञानं ज्ञानं ज्ञानं आ - रागं रागं रागं जा।

आतम आतम आतम जान - सुखमय सुखमय सुखमय मान।

जिनवाणी को सुनना है - हित-अहित समझना है।

कन्दमूल में फँसी जिन्दगी - कैसे सुनेंगे प्रभु की धुनी।

सदाचार यदि पाना है - भक्ष्य-अभक्ष्य समझना है।

वीर जिनेश्वर हितकर हैं - चौबीसवें तीर्थङ्कर हैं।

जिसका कर्ता जो ही है - नहीं माने वह मोही है।

जड़ चेतन में भेद जहाँ - सच्चा मुक्तिमार्ग वहाँ ।

ज्ञायक तत्त्व को जान लो - धर्म-अधर्म पहचान लो।

महावीर को ध्यायेंगे - परमेष्ठी पद पायेंगे।

तीर्थङ्कर की महिमा गाओ - जैनधर्म की शान बढ़ाओ ।

सिद्धारथ त्रिशला के लाल - जीवों को कर गये निहाल ।