जपि माला जिनवर नाम की ।
भजन सुधारससों नहिं धोई, सो रसना किस काम की ॥जपि.॥
सुमरन सार और सब मिथ्या, पटतर धूंवा नाम की ।
विषम कमान समान विषय सुख, काय कोथली चाम की ।।१ ॥जपि.॥
जैसे चित्र-नाग के मांथै, थिर मूरति चित्राम की ।
चित आरूढ़ करो प्रभु ऐसे, खोय गुंडी परिनाम की ।।२ ॥जपि.॥
कर्म बैरि अहनिशि छल जोवैं, सुधि न परत पल जाम की ।
`भूधर’ कैसैं बनत विसारैं, रटना पूरन राम की ।।३ ॥जपि.॥
(हे भव्य!) श्री जिनवर की माला जपो । जिनेन्द्र की भक्ति-स्तवन से जिसने अपनी रसना (जीभ-जिह्वा) को नहीं धोया वह रसना (जीभ) अन्य किस मतलब की है?
जिनेन्द्र का स्मरण ही सारयुक्त है, उनकी तुलना में और सब झूठ है, नाममात्र का है, थोथा है। यह देह चमड़े की थैली है और विषयों के सुखाभास कठोर बाण के समान पीड़ादायक हैं, कष्टदायक हैं।
भित्तिचित्र में चित्रित नाग के सिर पर विराजित भगवान पार्श्वनाथ की मूर्ति प्रशान्त और स्थिर है, उस स्थिर मुद्रा को फल की इच्छा /चिन्तारहित होकर अपने चित्त में आरूढ़ करो और अपना चित्त भी उनके समान स्थिर करो ।
ये कर्म-शत्रु दिन-रात इतना छल रहे हैं कि एक क्षण भी उनका (भगवान पार्श्वनाथ का) स्मरण नहीं होता। भूधरदास कहते हैं कि उसके स्मरण के बिना तेरा प्रयोजन कैसे सिद्ध होगा अर्थात् उनके जप-स्मरण से ही तेरी सिद्धि होगी।