हे ज्ञानी-आत्मा, हे नर ! तू यह क्यों नहीं जानता है कि राग-द्वेष दोनों ही पुद्गलजनित हैं। इन दोनों से पुद्गल का बोध होता है । तू चैतन्य है और निश्चय से, राग-द्वेष से रहित है, भिन्न है, शुद्धरूप में आत्मस्वरूप है।
तू नर, पशु, मनुष्य और देव गति में भ्रमण करता नहीं हैं. ये तो पुद्गल की है । तू सिद्ध-स्वरूपी है. अविनाशी है यह तथ्य कोई एक बिरला ही जानता है।
द्रव्यदृष्टि से कोई किसी का कुछ नहीं कर सकता। कोई किसी परवस्तु को ग्रहण नहीं कर सकता। ये गुरु हैं, ज्ञानी हैं और ये शिष्य हैं इसने इसको ज्ञान दिया ऐसा कहने का क्या महत्व है? जैसे कीचड़रहित जल निर्मल है, वैसे ही सब उपाधि से मुक्त, जन्म-मरण से रहित यह आत्मा सर्वमलरहित है,शुद्ध है।
वह सर्वमलरहित आत्मा ही, क्रोध और मानव रहित आत्मा ही तीन लोक में सारवान है, क्रोध और भान सारवान नहीं है। ऐसा क्रोध व मान से रहित निर्मल आत्मा जो अपने अन्तर में आसीन है, व्याप्त है उसी का ध्यान व चिन्तन कर जिससे शिव अर्थात् शान्ति का स्थान मोक्ष प्राप्त हो अर्थात् सिद्धस्वरूप की प्राप्ति हो जावे।