जकड़ी | Jakadi (Ramkishna)

जकड़ी (श्री रामकृष्ण कृत)

(तर्ज- अति पुण्य उदय मम आयो)

अरहंत चरन चित लाऊँ, पुनि सिद्ध शिवंकर ध्याऊँ।
वन्दौं जिन-मुद्रा धारी, निर्ग्रंथ यती अविकारी॥
अविकारी करुणावंत वन्दौं, सकल लोक शिरोमणि ।
सर्वज्ञभाषित धर्म प्रणमूँ, देय सुख सम्पति घनी॥
ये परम मंगल चार जग में, चार लोकोत्तम सही।
भवभ्रमत इस असहाय जिय को और रक्षक कोउ नहीं॥१ ॥

मिथ्यात्व महारिपु दण्ड्यो, चिरकाल चतुर्गति हण्ड्यो।
उपयोग-नयन-गुन खोयौ, भरि नींद निगोदे सोयौ ॥
सोयौ अनादि निगोद में जिय, निकर फिर थावर भयौ॥
भू तेज तोय समीर तरुवर, थूल सूच्छम तन लयौ ।
कृमि कुंथु अलि सैनी असैनी, व्योम जल थल संचर्यो।
पशुयोनि बासठ लाख इसविध, भुगति मर-मर अवतर्यों ॥२ ॥

अति पाप उदय जब आयौ, महानिंद्य नरकपद पायौ।
थिति सागरों बंध जहाँ है, नानाविध कष्ट तहाँ है।
है त्रास अति आताप वेदन, शीत-बहु युत है मही।
जहाँ मार-मार सदैव सुनिये, एक क्षण साता नहीं।
नारक परस्पर युद्ध ठानैं, असुगण क्रीड़ा करैं।
इस विध भयानक नरक थानक, सहैं जी परवश परैं॥३॥

मानुषगति के दुख भूल्यो, बसि उदर अधोमुख झूल्यो।
जनमत जो संकट सेयो, अविवेक उदय नहिं बेयो ॥
बेयो न कछु लघु बालवय में, वंशतरु कोंपल लगी।
दल रूप यौवन वयस आयौ, काम-द्यौं तब उर जगी॥
जब तन बुढ़ापो घट्यो पौरुष, पान पकि पीरो भयो।
झड़ि पर्यो काल-बयार बाजत, वादि नरभव यौं गयो॥४॥

अमरापुर के सुख कीने, मनवांछित भोग नवीने।
उर माल जबै मुरझानी, विलख्यो आसन मृतु जानी॥
मृतु जान हाहाकर कीनौं, शरण अब काकी गहौं।
यह स्वर्ग सम्पति छोड़ अब, मैं गर्भवेदन क्यों सहौं॥
तब देव मिलि समुझाइयो, पर कछु विवेक न उर वस्यो।
सुरलोक गिरिसों गिरि अज्ञानी, कुमति-कादौं फिर फस्यौ ॥५॥

इहविध इस मोही जी ने, परिवर्तन पूरे कीने।
तिनकी बहु कष्ट कहानी, सो जानत केवलज्ञानी।।
ज्ञानी बिना दुख कौन जाने, जगत वन में जो लह्यो।
जर-जन्म-मरण-स्वरूप तीछन, त्रिविध दावानल दह्यो।।
जिनमत सरोवर शीत पर, अब बैठ तपन बुझाय हो।
जिय मोक्षपुर की बाट बूझौ, अब न देर लगाय हो॥६॥

यह नरभव पाय सुज्ञानी, कर-कर निज कारज प्राणी।
तिर्जंच योनि जब पावै, तब कौन तुझे समझावै॥
समझाय गुरु उपदेश दीनों, जो न तेरे उर रहै।
तो जान जीव अभाग्य अपनो, दोष काहू को न है।
सूरज प्रकाशै तिमिर नाशै, सकल जग को तम हरै।
गिरि-गुफा-गर्भ-उदोत होत न, ताहि भानु कहा करै॥७॥

जगमाहिं विषयन फूल्यो, मनमधुकर तिहिं विच भूल्यो।
रसलीन तहाँ लपटान्यो, रस लेत न रंच अघान्यो ॥
न अघाय क्यों ही रमैं निशिदन, एक छिन हू ना चुकै।
नहिं रहै बरज्यो बरज देख्यो, बार-बार तहाँ ढुके ॥
जिनमत सरोज सिद्धान्त सुन्दर, मध्य याहि लगाय हो।
अब ‘रामकृष्ण’ इलाज याकौ, किये ही सुख पाय हो ॥८॥

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