श्री इष्टोपदेश | आचार्य श्री पूज्यपाद स्वामी विरचित | Ishtopdesh

इस अध्यात्म ग्रन्थ में इष्ट आत्मा के स्वरूप का परिचय प्रस्तुत किया है। 51 श्लोकों में पूज्यपाद स्वामी ने अध्यात्म को गागर में सागर भर देने की कहावत चरितार्थ की है। ईसा की छठवीं शताब्दी में रचित इस ग्रन्थ में संसार की यथार्थ स्थिति का परिज्ञान प्राप्त होने से राग-द्वेष, मोह की परिणति घटती है। इस लघुकाय ग्रन्थ में समयसार की गाथाओं का सार अंकित किया गया है। शैली सरल और प्रवाहमय है।

             मंगलाचरण

यस्य स्वयं स्वभावाप्तिरभावे कृत्स्नकर्मणः ।
तस्मै सञ्ज्ञानरूपाय नमोऽस्तु परमात्मने ॥१॥

अर्थ : (यस्य) जिस भगवान् के ( कृत्स्नकर्मणः ) समस्त कर्मों का (अभावे) अभाव हो जाने पर (स्वयं) अपने आप (स्वभाव आप्तिः ) स्वभाव की प्राप्ति हो गयी है ( तस्मै ) उस (संज्ञानरूपाय ) अनन्तज्ञान स्वरूप (परमात्मने) परमात्मा के लिए ( नमः अस्तु) नमस्कार हो।

         निमित्तोपादान से सिद्धि

योग्योपादानयोगेन दृषदः स्वर्णता मता । द्रव्यादिस्वादिसंपत्तावात्मनोऽप्यात्मता मता ॥२॥

अर्थ : (योग्य) योग्य ( उपादान) उपादान के (योगेन) मिलने से (दृषदः ) जैसे स्वर्णपाषाण की (स्वर्णता मता) स्वर्णरूपता मानी गई है, उसी तरह (द्रव्यादि स्वादि) सुद्रव्य, सुक्षेत्र, सुकाल आदि (सम्पत्तौ ) कारण रूप सामग्री के मिल जाने पर (आत्मनः अपि ) संसारी आत्मा की भी (आत्मता ) शुद्ध आत्म स्वरूप की प्राप्ति होना (मता ) माना गया है।

           व्रतों की सार्थकता

वरं व्रतैः पदं दैवं नाव्रतैर्वत नारकं ।
छायातपस्थयोर्भेदः प्रतिपालयतोर्महान् ।।३।।

अर्थ : (व्रतैः ) व्रतों के द्वारा (दैवं पदं) देवपद पाना (वरम्) अच्छा है। (किन्तु) (वत) खेद हैं! (अव्रतैः ) अव्रतों द्वारा (नारकं ) नरक में उत्पन्न होना (न) अच्छा नहीं है (हि) क्योंकि (छाया आतपस्थयोः ) छाया और धूप में स्थित व्यक्तियों के समान (प्रतिपालयतोः) प्रतीक्षारत पुरुषों में ( महान् भेदः) बड़ा भारी अन्तर है ।

      शिव प्रद भावों से स्वर्ग सहज ही

यत्र भावः शिवं दत्ते द्यौः कियद् दूरवर्तिनी ।
यो नयत्याशु गव्यूतिं क्रोशार्धे किं स सीदति ? ॥४॥

अर्थ : (यत्र भावः) जहाँ भाव (शिवं दत्ते) मोक्ष को देता है [ वहाँ ] ( द्यौः ) स्वर्ग की प्राप्ति ( कियद्दूरवर्तिनी) कितनी दूर है ? ( य: गव्यूतिं ) जो मनुष्य दो कोश तक (आशु नयति ) भार को शीघ्र ले जाता है। (स) वह ( क्रोशार्धे ) आधा कोश ले जाने में (किं सीदति ) क्या दुःखी हो सकता है ? अर्थात् नहीं ।

           स्वर्ग सुख का कथन

हृषीकज -मनातक्ङं दीर्घ कालोपलालितम् ।
नाके नाकौकसां सौख्यं नाके नाकौकसामिव ॥५॥

अर्थ : ( नाके ) स्वर्ग में (नाकौकसाम् ) देवों का ( हृषीकजं ) इन्द्रियों से उत्पन्न (अनातङ्कं ) दुःख रहित और ( दीर्घकालोपलालितम् ) दीर्घकाल तक सेव्य (सौख्यं) सुख (नाके) स्वर्ग में (नाकौकसाम् इव) देवों के समान ही होता है।

         इन्द्रिय सुख-दुःख भ्रान्ति मात्र

वासनामात्रमेवैतत् सुखं दुःखं च देहिनाम् ।
तथा ह्युद्वेजयन्त्येते भोगा रोगा इवापदि ॥६॥

अर्थ : (देहिनाम् ) संसारी जीवों के ( एतत् सुखं) ये इन्द्रिय सुख (च) और (दुःखं) दुःख (वासनामात्रं एव) भ्रम मात्र ही हैं ( तथा हि ) इसलिए (एते भोगाः ) ये इन्द्रियों के भोग ( आपदि ) आपत्ति के समय (रोगाः इव) रोगों की तरह (उद्वेजयन्ति ) व्याकुल करते हैं।

     मोहावृत ज्ञान वस्तु – स्वरूप नहीं जानता

मोहेन संवृतं ज्ञानं स्वभावं लभते न हि ।
मत्तः पुमान् पदार्थानां यथा मदनकोद्रवैः ॥७॥

अर्थ : (मोहेन ) मोह से (संवृतं ज्ञानं ) ढका हुआ ज्ञान (स्वभावं ) आत्म स्वभाव को ( न हि लभते ) नहीं जान पाता (यथा) जैसे (मदन कोद्रवैः ) नशीले कोदों के खा लेने से ( मत्तः पुमान्) मूर्च्छित / बेखबर मनुष्य (पदार्थानां ) पदार्थों को ठीक तरह नहीं जान पाता।

    मोही, पर पदार्थ को अपना मानता है

वपुर्गृहं धनं दाराः पुत्रा मित्राणि शत्रवः ।
सर्वथान्यस्वभावानि मूढः स्वानि प्रपद्यते ॥८ ॥

अर्थ ( वपुः गृहं ) शरीर, घर ( धनं दारा ) धन, स्त्रियाँ (पुत्राः मित्राणि) पुत्र, मित्र और (शत्रवः) शत्रु (सर्वथा ) सब तरह से (अन्यस्वभावानि ) अन्य स्वभाव वाले हैं परन्तु ( मूढः ) मोही प्राणी इन्हें (स्वानि प्रपद्यते ) अपना समझता है।

    संसारी जीव का कुटुम्ब परिवार कैसा है ?

दिग्देशेभ्यः खगा एत्य संवसन्ति नगे नगे ।
स्वस्वकार्यवशाद्यान्ति देशे दिक्षु प्रगे प्रगे ॥ ९ ॥

अर्थ : (नगे नगे ) वृक्ष-वृक्ष पर ( दिग्देशेभ्यः ) दिशाओं और देशों से ( एत्य ) आकर (खगाः) पक्षी संध्या के समय (संवसन्ति) ठहर जाते हैं तथा (प्रगे प्रगे) प्रातः (स्वस्वकार्यवशात्) अपने-अपने कार्य के वश से (देशे दिक्षु) भिन्न-भिन्न देश, दिशाओं में (यान्ति) चले जाते हैं।

        अहितकर के प्रति क्रोध व्यर्थ

विराधक: कथं हन्त्रे जनाय परिकुप्यति ।
त्र्यङ्गुलं पातयन् पद्भ्यां स्वयं दण्डेन पात्यते ॥१०॥

अर्थ (विराधक: ) अपकार करने वाला मनुष्य (हन्त्रे जनाय) मारने वाले मनुष्य के लिए (कथं परिकुप्यति) कैसे क्रोध करता है (त्र्यङ्गुलं) तीन अँगुली वाले उपकरण को (पद्भ्यां ) पैरों के द्वारा (पातयन्) गिराया हुआ मनुष्य (स्वयं दण्डेन ) स्वयं लकड़ी के बेंत द्वारा (पात्यते ) गिराया (झुकाया)

       संसार में जीव किस तरह घूमता है

रागद्वेषद्वयीदीर्घ -‌‌ नेत्राकर्षण - कर्मणा ।
अज्ञानात्सुचिरं जीवः संसाराब्धौ भ्रमत्यसौ ॥११॥

अर्थ (असी) यह (जीव ) संसारी प्राणी ( संसार अब्धी) इस संसार समुद्र में (अज्ञानात्सुचिरं ) अज्ञान के कारण अनादिकाल से (रागद्वेषद्वयी दीर्घ- नेत्राकर्षण - कर्मणा ) राग-द्वेष रूपी दो लम्बी डोरियों के खींचने रूप कार्य से अर्थात् घुमायी जाती हुई मथानी की तरह ( भ्रमति) घूम रहा है।

    कोई न कोई विपत्ति मौजूद ही रहती है

विपद्भवपदावर्ते पदिकेवातिवाह्यते ।
यावत्तावद्भवन्त्यन्याः प्रचुराः विपदः पुरः ॥१२॥

अर्थ : (भव- पदावर्ते) संसाररूपी पैर से चलने वाले घटीयंत्र में (पदिका इव) रहट के डण्डे के समान ( यावत्) जब तक ( विपद् ) एक विपत्ति (अतिवाह्यते) समाप्त की जाती है (तावत्) तब तक (अन्याः प्रचुराः ) दूसरी बहुत सी (विपदः) विपत्तियाँ ( पुरः भवन्ति ) सामने आ खड़ी हो जाती हैं।

         हर स्थिति में धन दुःखकर

दुरर्ज्येनासुरक्ष्येण नश्वरेण धनादिना ।
स्वस्थंमन्यो जनः कोऽपि ज्वरवानिव सर्पिषा ॥ १३ ॥

अर्थ : (दुरर्त्स्न्येन) बड़ी कठिनाइयों से कमाये जाने वाले तथा (असुरक्ष्येण ) सुरक्षित न रहने वाले (नश्वरेण) विनश्वर ( धनादिना ) धन पुत्रादिकों के द्वारा (स्वस्थं मन्यः ) अपने आपको स्वस्थ (सुखी) मानने वाला (कः अपि जन: ) कोई भी मनुष्य (सर्पिषा) घी के प्रयोग से ( ज्वरवान् इव) ज्वर से पीड़ित मनुष्य की तरह मूर्ख होता है।

     संसारी प्राणी दूसरों का दुःख देखता है।

विपत्तिमात्मनो मूढः परेषामिव नेक्षते ।
दह्यमान - मृगाकीर्ण - वनान्तर - तरुस्थवत् ॥१४॥

अर्थ : (मृगाकीर्ण) मृग आदि जीवों से भरे तथा (दह्यमान ) अग्नि से जलते हुए ( वनान्तर) वन के मध्य (तरुस्थवत् ) वृक्ष पर बैठे हुए मनुष्य के समान (मूढः ) मूर्ख प्राणी ( परेषां ) दूसरे की ( विपत्तिम् इव) विपत्ति के समान (आत्मनः ) अपनी विपत्ति को (न ईक्षते) नहीं देखता है।

          लोभी को धन इष्ट है

आयुर्वृद्धिक्षयोत्कर्ष हेतुं कालस्य निर्गमम् ।
वाञ्छतां धनिनामिष्टं जीवितात्सुतरां धनम् ॥१५॥

अर्थ : (कालस्य निर्गमम् ) समय का व्यतीत होना (आयुर्वृद्धिक्षयोत्कर्ष हेतुं ) आयु क्षय और धनवृद्धि का कारण है (वाञ्छतां धनिनां ) धन चाहने वाले धनवान् पुरुषों को (जीवितात्) अपने जीवन से भी (सुतराम् ) अधिक ( धनं इष्टम् ) धन इष्ट होता है।

त्यागाय श्रेयसे वित्तमवित्तः सञ्चिनोति यः ।
स्वशरीरं स पङ्केन स्नास्यामीति विलिम्पति ॥ १६ ॥

आरम्भे तापकान् प्राप्तावतृप्तिप्रतिपादकान् ।
अन्ते सुदुस्त्यजान् कामान् कामं कः सेवते सुधीः ॥१७॥

भवन्ति प्राप्य यत्सङ्गमशुचीनि शुचीन्यपि ।
स कायः सन्ततापायस्तदर्थं प्रार्थना वृथा ॥१८॥

यज्जीवस्योपकराय तद्देहस्यापकारकम्।
यद्देहस्योपकाराय तज्जीवस्यापकारकम् ॥१९॥

इतश्चिन्तामणिर्दिव्य इतः पिण्याकखण्डकम् ।
ध्यानेन चेदुभे लभ्ये क्वाद्रियन्तां विवेकिनः ॥२०॥

स्वसंवेदन सुव्यक्तस्तनुमात्रो निरत्ययः ।
अत्यन्तसौख्यवानात्मा लोकालोकविलोकन: ॥२१॥

संयम्य करणग्राममेकाग्रत्वेन चेतसः ।
आत्मानमात्मवान् ध्यायेदात्मनैवात्मनि स्थितम् ॥२२॥

अज्ञानोपास्तिरज्ञानं ज्ञानं ज्ञानिसमाश्रयः ।
ददाति यत्तु यस्यास्ति सुप्रसिद्धमिदं वचः ॥२३॥

परीषहाद्यविज्ञानादास्त्रवस्य निरोधिनी ।
जायतेऽध्यात्मयोगेन कर्मणामाशु निर्जरा ॥२४॥

कटस्य कर्त्ताहमिति सम्बन्धः स्याद् द्वयोर्द्वयोः ।
ध्यानं ध्येयं यदात्मैव सम्बन्धः कीदृशस्तदा ॥ २५ ॥

बध्यते मुच्यते जीवः सममो निर्ममः क्रमात् ।
तस्मात्सर्वप्रयत्नेन निर्ममत्वं विचिन्तयेत् ॥२६॥

एकोऽहं निर्ममः शुद्धो ज्ञानी योगीन्द्रगोचरः ।
बाह्याः संयोगजा भावा मत्तः सर्वेऽपि सर्वथा ॥२७॥

दुःखसंदोहभागित्वं संयोगादिह देहिनाम्।
त्यजाम्येनं ततः सर्वं मनोवाक्कायकर्मभिः ॥२८॥

न मे मृत्युः कुतो भीतिर्न मे व्याधिः कुतो व्यथा ।
नाहं बालो न वृद्धोऽहं न युवैतानि पुद्गले ॥२९॥

भुक्तोज्झिता मुहुर्मोहान्मयापीठ सर्वेऽपि पुद्गलाः ।
उच्छिष्टेष्विव तेष्वद्य मम विज्ञस्य का स्पृहा ॥ ३०॥

कर्म कर्म - हिताबन्धि जीवो जीवहितस्पृहः ।
स्वस्वप्रभावभूयस्त्वे स्वार्थं को वा न वाञ्छति ॥३१॥

परोपकृतिमुत्सृज्य स्वोपकारपरो भव ।
उपकुर्वन्परस्याज्ञो दृश्यमानस्य लोकवत् ॥ ३२॥

गुरूपदेशादभ्यासात् संवित्तेः स्वपरान्तरम् ।
जानाति यः स जानाति, मोक्षसौख्यं निरन्तरम् ॥३३॥

स्वस्मिन् सदभिलाषित्वादभीष्टज्ञापकत्वतः ।
स्वयं हितप्रयोक्तृत्वादात्मैव गुरुरात्मनः ॥३४॥

नाज्ञो विज्ञत्वमायाति विज्ञो नाज्ञत्वमृच्छति ।
निमित्तमात्रमन्यस्तु गतेर्धर्मास्तिकायवत् ॥३५॥

अभवच्चित्तविक्षेप एकान्ते तत्त्वसंस्थितः ।
अभ्यस्येदभियोगेन योगी तत्त्वं निजात्मनः ॥३६॥

यथा यथा समायाति संवित्तौ तत्त्वमुत्तमम् ।
तथा तथा न रोचन्ते विषयाः सुलभा अपि ॥३७॥

यथा यथा न रोचन्ते विषयाः सुलभा अपि ।
तथा तथा समायाति संवित्तौ तत्त्वमुत्तमम् ॥३८॥

निशामयति निश्शेषमिन्द्रजालोपमं जगत्।
स्पृहयत्यात्मलाभाय गत्वान्यत्रानुतप्यते ॥३९॥

इच्छत्येकान्तसंवासं निर्जनं जनितादरः ।
निजकार्यवशात्किञ्चिदुक्त्वा विस्मरति द्रुतम् ॥४०॥

ब्रुवन्नपि हि न ब्रूते गच्छन्नपि न गच्छति ।
स्थिरीकृतात्मतत्त्वस्तु पश्यन्नपि न पश्यति ॥४१॥

किमिदं कीदृशं कस्य कस्मात्क्वेत्यविशेषयन् ।
स्वदेहमप नावैति योगी योगपरायणः ॥४२॥

यो यत्र निवसन्नास्ते स तत्र कुरुते रतिम् ।
यो यत्र रमते तस्मादन्यत्र स न गच्छति ॥४३॥

अगच्छंस्तद्विशेषाणामनभिज्ञश्च जायते ।
अज्ञाततद्विशेषस्तु बध्यते न विमुच्यते ॥४४॥

परः परस्ततो दुःखमात्मैवात्मा ततः सुखम्।
अतएव महात्मानस्तन्निमित्तं कृतोद्यमाः ॥४५॥

अविद्वान् पुद्गलद्रव्यं योऽभिनन्दति तस्य तत् ।
न जातु जन्तो: सामीप्यं चतुर्गतिषु मुञ्चति ॥४६॥

आत्मानुष्ठाननिष्ठस्य व्यवहारबहिः स्थितेः ।
जायते परमानन्दः कश्चिद्योगेन योगिनः ॥४७॥

आनन्दो निर्दहत्युद्धं कर्मेन्धनमनारतम्।
न चासौ खिद्यते योगी बहिर्दुःखेष्वचेतनः ॥४८॥

अविद्याभिदुरं ज्योतिः ज्योतिः परं ज्ञानमयं महत् ।
तत्प्रष्टव्यं तदेष्टव्यं तद्दृष्टव्यं मुमुक्षुभिः ॥४९॥

जीवोऽन्यः पुद्गलश्चान्य इत्यसौ तत्त्वसंग्रहः ।
यदन्यदुच्यते किञ्चित् सोऽस्तु तस्यैव विस्तरः ॥५०॥

इष्टोपदेशमिति सम्यगधीत्य धीमान्,
मानापमानसमतां स्वमताद्वितन्य ।
मुक्ताग्रहो विनिवसन् सजने वने वा,
मुक्तिश्रियं निरुपमामुपयाति भव्यः ॥ ५१ ॥

Singer: मुनिश्री प्रणम्य सागर जी महाराज

3 Likes