Ishtopdesh – Gatha Padyanuvad - Br. Sheetalprasad Ji

Ishtopdesh – Gatha Padyanuvad - Br. Sheetalprasad Ji

स्वयं कर्म सब नाश करि, प्रगटायो निजभाव।
परमातम सर्वज्ञ को, वंदो करि शुभ भाव॥१॥

स्वर्ण पाषाण सुहेतु से, स्वयं कनक हो जाय।
सुद्रव्यादि चारों मिलें, आप शुद्धता थाय॥२॥

मित्र राह देखत खडे, इक छाया इक धूप।
व्रतपालन से देवपद, अव्रत दुर्गति कूप॥३॥

आत्मभाव यदि मोक्षप्रद, स्वर्ग है कितनी दूर।
दोय कोस जो ले चले, आध कोस सुख पूर॥४॥

इन्द्रियजन्य नीरोगमय, दीर्घकाल तक भोग्य।
स्वर्गवासि देवानिको, सुख उनहीके योग्य॥५॥

विषयी सुख-दुख मानते, है अज्ञान प्रसाद।
भोग रोगवत्‍ कष्ट में, तन मन करत विषाद॥६॥

मोहकर्म के उदय से, वस्तुस्वभाव न पात।
मदकारी कोदों भखें, उल्टा जगत लखात॥७॥

पुत्र मित्र घर तन तिया, धन रिपु आदि पदार्थ।
बिल्कुल निज से भिन्न हैं, मानत मूढ निजार्थ॥८॥

दिशा देश से आयकर, पक्षी वृक्ष बसन्त।
प्रात होत निज कार्यवश, इच्छित देश उड़न्त ॥९॥

अपराधी जन क्यों करे, हन्ता जनपर क्रोध।
दो पग अंगुल महि नमे, आपहि गिरत अबोध ॥१०॥

मथत दूध डोरी नितें, दंड फिरत बहु बार।
राग द्वेष अज्ञान से, जीव भ्रमत संसार ॥११॥

जबतक एक विपद टले, अन्य विपद बहु आय।
पदिका जिमि घटियंत्र में, बार बार भरमाय ॥१२॥

कठिन प्राप्त संरक्ष्य ये, नश्वर धन पुत्रादि।
इनसे सुखकी कल्पना, जिमि घृत से ज्वर व्याधि ॥१३॥

पर की विपदा देखता, अपनी देखे नाहिं।
जलते पशु जा वन विषै, जड़ तरूपर ठहराहिं ॥१४॥

आयु क्षय धनवृद्धि को, कारण काल प्रमान।
चाहत हैं धनवान धन, प्राणनितें अधिकान ॥१५॥

पुण्य हेतु दानादि को, निर्धन धन संचेय।
स्नान हेतु निज तन कुधी, कीचड़ से लिम्पेय ॥१६॥

भोगार्जन दुःखद महा, भोजन तृष्णा बाढ।
अंत त्यजत् गुरु कष्ट हो, को बुध भोगत गाढ़ ॥१७॥

शुचि पदार्थ भी संग ते, महा अशुचि हो जाँय।
विघ्न करण नित काय हित, भोगेच्छा विफलाय ॥१८॥

आत्मा हित जो करत है, सो तनको अपकार।
जो तनका हित करत है, सो जियको अपकार ॥१९॥

इत चिंतामणि है महत्, उत खल टूक असार।
ध्यान उभय यदि देत बुध, किसको मानत सार ॥२०॥

निज अनुभव से प्रगट है, नित्य शरीर-प्रमान।
लोकालोक निहारता, आत्म अति सुखवान ॥२१॥

मन को कर एकाग्र, सब इन्द्रिय-विषय मिटाय।
आतमज्ञानी आत्मा में, निजको निजसे ध्याय॥२२॥

अज्ञ-भक्ति अज्ञान को, ज्ञान-भक्ति दे ज्ञान।
लोकोक्ती जो जो धरे, करे सो ताको दान ॥२३॥

परिषहादि अनुभव बिना, आतम-ध्यान प्रताप।
शीघ्र ससंवर निर्जरा, होत कर्म की आप ॥२४॥

‘कट का मैं कर्तार हूँ’ यह द्विष्ठ सम्बन्ध।
आप हि ध्याता ध्येय जहँ, कैसे भिन्न सम्बन्ध ॥२५॥

मोही बाँधत कर्म को, निर्मोही छुट जाय।
यातें गाढ़ प्रयत्न से, निर्ममता उपजाय ॥२६॥

मैं इक निर्मम शुद्ध हूँ, ज्ञानी योगीगम्य।
कर्मोदय से भाव सब, मोतें पूर्ण अगम्य ॥२७॥

प्राणी जा संयोगतैं, दुःख समूह लहात।
यातें मन वाच काय युत, हूँ तो सर्व तजात ॥२८॥

मरण रोग मोमैं नहीं, तातें सदा निशंक।
बाल तरूण नहिं वृद्ध हूँ, ये सब पुद्गल अंक ॥२९॥

सब पुद्गलको मोहसे, भोग भोगकर त्याग।
मैं ज्ञानी करता नहीं, उस उच्छिष्ट में राग ॥३०॥

कर्म कर्महितकार है, जीव जीवहितकार।
निज प्रभाव बल देखकर, को न स्वार्थ करतार ॥३१॥

प्रगट अन्य देहादिका, मूढ़ करत उपकार।
सज्जनवत्‍ या मूल को, तज कर निज उपकार ॥३२॥

गुरू उपदेश अभ्यास से, निज अनुभव से भेद।
निज-पर को जो अनुभवे, लहै स्वसुख बेखेद ॥३३॥

आपहि निज हित चाहता, आपहि ज्ञाता होय।
आपहि निज हित प्रेरता, निज गुरू आपहि होय ॥३४॥

मूर्ख न ज्ञानी हो सके, ज्ञानी मूर्ख न होय।
निमित्त मात्र पर जान, जिमि गति धर्मतें होय ॥३५॥

क्षोभ रहित एकान्तमें, तत्त्वज्ञान चित धाय।
सावधान हो संयमी, निज स्वरूप को भाय ॥३६॥

जस जस आतम तत्त्वमें, अनुभव आता जाय।
तस तस विषय सुलभ्य भी, ताको नहीं सुहाय ॥३७॥

जस जस विषय सुलभ्य भी, ताको नहीं सुहाय।
तस तस आतम तत्त्व में, अनुभव बढ़ता जाय ॥३८॥

इन्द्रजाल सम देख जग, निज अनुभव रुचि लात।
अन्य विषय में जात यदि, तो मन में पछतात ॥३९॥

निर्जनता आदर करत, एकांत सवास विचार।
निज कारजवश कुछ कहे, भूल जात उस बार ॥४०॥

देखत भी नहिं देखते, बोलत बोलत नाहिं।
दृढ़ प्रतीत आतममयी, चालत चालत नाहिं ॥४१॥

क्या कैसा किसका किसमें, कहाँ यह आतम राम।
तज विकल्प निज देह न जाने, योगी निज विश्राम ॥४२॥

जो जामें बसता रहे, सो तामें रुचि पाय।
जो जामें रम जात है, सो ता तज नहिं जाय ॥४३॥

वस्तु विशेष विकल्प को, नहिं करता मतिमान।
स्वात्मनिष्ठता से छूटत, नहिं बंधता गुणवान ॥४४॥

पर पर तातें दुःख हो, निज निज ही सुखदाय।
महापुरुष उद्यम किया, निज हितार्थ मन लाय ॥४५॥

पुद्गल को निज जानकर, अज्ञानी रमजाय।
चहुँगति में ता संगको, पुद्गल नहीं तजाय ॥४६॥

ग्रहण त्याग से शून्य जो, निज आतम लवलीन।
योगीको हो ध्यान से, कोइ परमानन्द नवीन ॥४७॥

निजानंद नित दहत है, कर्मकाष्ठ अधिकाय।
बाह्य दुःख नहिं वेदता, योगी खेद न पाय ॥४८॥

पूज्य अविद्या-दूर यह, ज्योति ज्ञानमय सार।
मोक्षार्थी पूछो चहो, अनुभव करो विचार ॥४९॥

जीव जुदा पुद्गल जुदा, यही तत्त्वका सार।
अन्य कछू व्याख्यान जो, याही का विस्तार ॥५०॥

इष्टरूप उपदेश को, पढ़े सुबुद्धी भव्य
मान अमान में साम्यता, जिन मन से कर्तव्य ॥

आग्रह छोड़ स्वग्राम में, वा वनमें सु वसेय
उपमा रहित स्वमोक्षश्री, निजकर सहजहि लेय ॥५१॥

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