जिन आम्नाय में तिथियों का महत्त्व । Importance of Dates in Jainism

जिनाम्नाय में तिथियों का महत्त्व
(एक संक्षिप्त-टिप्पणी)

प्रायः जिनधर्मानुयायी ‘अष्टमी’ और ‘चतुर्दशी’ तिथियों को धार्मिक तिथि-पर्व के रूप में मनाते हैं। वे यथाशक्ति इन तिथियों पर व्रतादिक, पूजनादिक व स्वाध्याय की विशेषता रखते हुये सांसारिक कार्यों से विरत रहते हुये धर्मसाधन व आत्महित में निरत रहते हैं।

इनके अतिरिक्त ‘पंचमी’ तिथि का भी ऐसा ही महत्त्व जिनाम्नाय में माना गया है। यद्यपि दिगम्बर-जैन आम्नाय में इन दो तिथियों को ही आजकल मनाया जाता है ; किन्तु श्वेताम्बर जैनों में आज भी पंचमी-तिथि को भी इसीतरह धर्म-तिथि-पर्व के रूप में मनाया जाता है।

लोगों में यह जिज्ञासा प्रायः रहती है कि इन्हीं तिथियों को इसतरह क्यों मनाया जाता है? और इन्हें ‘शाश्वत-तिथि-पर्व’ के रूप में जिनाम्नाय में क्यों माना गया है?

"अष्टमी अष्टकर्मघ्नी,
सिद्धिदा आ चतुर्दशी।
पञ्चमी ज्ञानलाभाय,
तस्मात् त्रितयं यजेत्।।

:point_up_2:t2:यह एक उद्धरण बहुत पहले का मुझे याद है। किस ग्रंथ का है? — यह स्मरण नहीं रहा।

इसके अनुसार आठ कर्मों से छूटने की भावना की प्रतीक ‘अष्टमी-तिथि’ है, चौदह-गुणस्थान पार करके सिद्धि अर्थात् मोक्ष की प्राप्ति होती है, इसलिए मोक्ष-प्राप्ति की प्रतीक ‘चतुर्दशी-तिथि’ है।

तथा ‘पंचमी-तिथि’ भी इसी वर्ग में इसलिये मानी गयी है कि वह पंचमज्ञान अर्थात् केवलज्ञान की प्राप्ति की प्रतीक है।

ये ही कारण हैं कि जिनाम्नाय में इन तीनों तिथियों को शाश्वत-तिथि-पर्व के रूप में मनाया जाता है। और धर्मनिष्ठ-लोग इन दिनों यथाशक्ति व्रतादि करते हुये आत्मिक परिणामों को विशुद्धतर करते हुये मोक्षसाधन का पुरुषार्थ करते हैं।

प्रस्तुति:-- प्रो. सुदीप कुमार जैन नई दिल्ली

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